कल 23 जून को यूपी की राजधानी लखनऊ में नगर निकाय के लिए वोट डाले जायेंगे। मेरी तरह बहुत से मतदाता दुविधा में होंगे कि किसे वोट दिया जाय? इसलिए मैनें सोंचा कि क्यों न अपनें फेस बुकिया और ब्लागिया मित्रों से मशविरा ले लिया जाय। पार्षदी के लिए तो पार्टी प्रत्याशी से ज्यादा महत्वपूर्ण व्यक्तिगत टच का ही प्रत्याशी रहेगा। लेकिन मेयर पद को लेकर मेरी दुविधा बढती जा रही है। सपा, बसपा द्वारा इन चुनावों का अघोषित बहिष्कार स्थिति को और भयावह कर रहा है। सिर्फ भाजपा और कांग्रेस के ही प्रत्याशी राजधानी क्षेत्र में दिख रहे हैं।
कांग्रेसी प्रत्याशी श्रीमान नीरज वोरा के प्रति मेरे मन में सहानुभूति का भाव तो है, लेकिन मैं पंजे का बटन दबा पाउँगा कह पाना बहुत मुश्किल है। उत्तर प्रदेश से बहुजन समाज पार्टी को निपटानें के बाद मेरी हार्दिक इच्छा कांग्रेस को ही दफ़न करनें की है। अब बचे भाजपा के डॉ दिनेश शर्मा, यह जान कर मुझे बड़ी पीड़ा है कि कार्यकर्ताओं के हरदिल अज़ीज़ अमित पुरी को इस पार्टी नें मेयर पद के काबिल नहीं समझा। फिलहाल भाजपा नें एक ही व्यक्ति के नाम राजधानी की महापौरी रजिस्टर्ड कर रखी है। ऐसा ही रजिस्ट्रेशन विधायकी में भी चला आ रहा था। जिसे राजधानी की जनता तार-तार कर चुकी है।
फिलहाल मुझे तो भाजपा का ही प्रत्याशी जीतता हुआ दिख रहा है, क्योंकि राज्य की सत्तारूढ़ पार्टी सपा नें बसपाई पैटर्न को जो अपना रखा है। बसपा नें भी सत्ता में रहते हुए नगर निकायों के चुनावों से अपनें को दूर रखनें की रणनीति अख्तियार कर रखी थी।
हमारे हरदिल अज़ीज़ युवा मुख्यमंत्री मा0 अखिलेश यादव जी की रहनुमाई में भी समाजवादी पार्टी नें, अपनी पूर्ववर्ती जनविरोधी बसपा सरकार के ही नक्शेकदम पर चलनें का फैंसला किया। जो दुखद है। लोकतंत्र की व्यापकता की बात करनें वाले मुझे बताएं कि स्थानीय निकायों के चुनावों से दूर रहकर, कोई पार्टी कैसे लोकतान्त्रिक व्यवस्था को और व्यापक बना सकती है?
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