वशिष्ठ जी भगवान् राम के वनवास प्रकरण पर भरत जी को समझाते हैं, इस अवसर पर बाबा तुलसीदास जी एक चौपाई द्वारा बहुत ही सुन्दर ढंग से लिखते हैं कि "सुनहु भरत भावी प्रबल, बिलखि कहेहुँ मुनिनाथ। हानि, लाभ, जीवन, मरण,यश, अपयश विधि हाँथ।"
इस प्रकरण पर एक संत बड़ा ही सुन्दर विवेचन प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि "भले ही लाभ हानि जीवन, मरण ईश्वर के हाँथ हो, परन्तु हानि के बाद हम हारें न यह हमारे ही हाँथ है, लाभ को हम शुभ लाभ में परिवर्तित कर लें यह भी जीव के ही अधिकार क्षेत्र में आता है, जीवन जितना भी मिले उसे हम कैसे जियें यह सिर्फ जीव अर्थात हम ही तय करते हैं, मरण अगर प्रभु के हाँथ है, तो उस परमात्मा का स्मरण हमारे अपनें हाँथ है "
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