सोमवार, 17 दिसंबर 2018

अपना इकबाल खोती योगी सरकार

   

आईपी सिंह, वरिष्ठ भाजपा नेता, यूपी
  प्रचंड बहुमत की सरकार है लेकिन जनता नदारद है--- -सत्ता के गलियारे की चमक,कालिदास मार्ग जिसपर मा0 मुख्यमंत्री जी का सरकारी आवास है। यह इलाका दशकों से अपनी चमक बिखेरता रहा है। सनद रहे कि CM आवास के साथ वरिष्ठ मंत्रियों के ज्यादातर आवास इसी मार्ग पर है साथ में विक्रमादित्य मार्ग भी चर्चा का केंद्र रहा है। उसी के साथ माल-एवेन्यू में भी मंत्रियों के निवास स्थल है। यहाँ कई पूर्व मुख्यमंत्रियों के आवास है। किसी भी सरकार के काम-काज का आकलन यहाँ से शुरू होकर विधानसभा, एनेक्सी,आज का आधुनिक लोकभवन पर समाप्त होता है। और पार्टी मुख्यालय आम कार्यकर्ता के लिए जुटने का और जब सरकार रहती है तो सत्ता का बड़ा केंद्र रहता है। दो दशक पूर्व जब मन्त्रियों के आवासों पर गहमागहमी दिनरात देखी जाती थी। प्रदेशभर से जनताअपने विभिन्न कार्यो को लेकर विधायकों के साथ आवा-जाही उनकी बनी रहती थी। सुबह 2 जनता मंत्रियों के आवास पर धमक जाती थी। और मिलने का सिलसिला 11 बजे दिन तक चलता रहता था।   
    ततपश्चात मंत्रियों के कारों का काफिला एक एक कर विधान सभा में प्रवेश करता था। और दिनभर अफसरों के साथ मीटिंग, समीक्षा आदि चलती रहती थी। चूंकि समयाभाव के कारण बहुत से मंत्रियों का दिन का भोजन उनके घर से अक्सर दफ्तर में आ जाता था। 
   अपने काम के प्रति एक जुनून स्वयं हमने अपनी आँखों से देखा है। और जैसे ही दिन के तीन बजते थे। आम जनता मंत्रियों के चेम्बर में धमक जाती थी,और सबकी सुनवाई होती थी। एक वाकया मुझे याद है मा0 कल्याण सिंह मुख्यमंत्री थे। श्री रविन्द्र शुक्ला जी शिक्षा मंत्री थे। एक कार्यक्रम के सिलसिले में मैं उनसे मिलने विधानसभा में उनके कक्ष में पहुँचा तो देखा आपका चेम्बर खचाखच भरा हुआ था।और वे स्वयं उठकर सबसे प्रार्थना पत्र ले रहे थे। क्योंकि तब कार्य संस्कृति टालने की नही थी। मंत्रियों अफसरों में भय रहता था कि यदि काम नही करूँगा तो मेरी कुर्सी चली जायेगी। बिना रोकटोक के कार्यकर्ता छोड़िए आम जनता मंत्रियों से भेंट कर लेती थी। मेरा मानना है कि "सरकार इकबाल से चलती है"।
     तब मंत्रियों से मिलने का समय निर्धारित होता था। सप्ताह में सोमवार के लेकर शुक्रवार की शाम तक मंत्री जमकर सरकारी आवास से लेकर विधानसभा तक अपना विभागीय कार्य करते थे। शनिवार और रविवार अपने निर्धारित कार्य से प्रदेश का दौरा या अपने 2 क्षेत्र चले जाते थे। मंत्रियों के लिए अपने आफिस में बैठना और सरकारी कार्य करना अनिवार्य होता था। वक्त बदला और उसी के साथ सब कुछ बदल गया।
      मित्रों अब वो दौर भी चला गया। जब फोटो खींचने के लिए कैमरे की जरूरत पड़ती थी और कैमरा सब जगह ले जाना भी मना था। आजका दौर पहले से बहुत बेहतर है। हर हाथ में मोबाइल और उसमें कैमरा लगा है। 
    अपने खुले कैमरे के साथ सबसे पहले चीर परिचित स्थान कालिदास मार्ग पर ले चलता हूँ। जाइये और देखिए कितने मंत्री अपने आवास पर मौजूद हैं क्या उनकी लोकप्रियता के कारण उनके घर के बाहर कार्यकर्ता या या जनता मौजूद है आप सब जगह निरीक्षण करिये जहाँ 2 मंत्रियों के निवास है आपको ज्यादातर सन्नाटा मिलेगा। हाँ सुरक्षा में तैनात गारद और गिने चुने मंत्रियों के करीबी लोग मिल सकते है। उससे ज्यादा कुछ नही,जनता के लिए विधानसभा के अंदर प्रवेश पर बहुत सख्ती है लेकिन जो दलाल किस्म के लोग है चाहे जिसकी सरकार हो उनका प्रवेश धड़ल्ले से होता है पास उन्ही का बनता है जिसे मंत्री का स्टाफ पर्ची भेजेगा वो भी सीमित फिर जनता मंत्री से कैसे मिल सकती है । अब दिन में 3 बजे के बाद कोई मंत्री जनता से मिलने के लिए नही बैठता है।           दो माह पूर्व दिल्ली से कुछ वरिष्ठ पत्रकार आये थे। उन लोगों ने कहाँ यदि कुछ मंत्रियों से हम लोगों की भेंट हो जाती तो यूपी के विकास पर एक रिपोर्ट बना ली जाती, मित्रों मैं उन लोगों के साथ विधानसभा के दोनों भवनों में मंत्रीगण से मिलने के लिए घूमता रहा। वो पूरा वीरान पड़ा था। वहां कोई भी मंत्री मौजूद नही था। उनके दफ्तर जरूर खुले थे। लेकिन कोई काम काज नही हो रहा था।जानकारी किया तो पता चला कि विधानसभा अध्यक्ष जी आये है हम सब ऊपरी फ्लोर पर पहुँचे तो मा0 विधानसभा अध्यक्ष जी से हम लोगों की 10 मिनट की भेंट हुई।  मैं मानसिक रूप से संतुष्ट हुआ कि चलो किसी से तो भेंट हुई। आजके दौर में मंत्री फाइले अपने घर पर करते है। दो साल होने को है और दो मंत्री रेगुलर अपने सरकारी दफ्तर में नही बैठते है। ज्यादातर मंत्री अक्सर दौरे पर रहते है और उनके दौरे विभागीय होते है या राजनैतिक, या व्यक्तिगत किसी को नही पता,उसकी जानकारी सार्वजनिक नही होती। विधानसभा में यदि मंत्रियों की अफसरों की biometric व्यवस्था कर दी जाय और उसकी रिपोर्ट प्रकाशित हो तो तहलका मच जायेगा। क्योंकि मान्यवर लोग दफ़्तर नही आते है,मीटिंग घर पर करते है फिर लाख टके का एक सवाल--
    सरकार अफसरों से कैसे उम्मीद कर सकती है कि वे अपने दफ्तर में बैठकर देर रात तक काम करेंगे। यकिन मानिये बिश्वास कीजिये। आज सब कुछ पटरी से उतर चुका है। भाजपा सरकार से जनता को बड़ी उम्मीदें थीं क्या हमारे मंत्रीगण विधायक,अफसर उसपर 100 प्रतिशत खरे उतरे रहे है। मंत्रियों में जो लाज और भय रहना चाहिए वो बिल्कुल खत्म हो गया है। यदि किसी सरकार का कार्य देखना है तो तेलंगाना,आन्ध्र प्रदेश का कार्य संस्कृति अवश्य देखना चाहिए। आपकी आँखे खुली की खुली रह जायेगी। सरकार बनने के बाद नेतागिरी से काम नही होगा। काम बैठकर करना होगा तक कार्य पूरे होंगे तब जाकर जनता और प्रदेश को सरकार का काम दिखाई देगा।
             सत्यमेव जयते 

बुधवार, 12 दिसंबर 2018

नोटा के सोंटा से तिलमिला उठी है भाजपा

सुशील अवस्थी "राजन"
मध्यप्रदेश विधानसभा चुनावों में भाजपा और कांग्रेस को बहुमत न मिलने के पीछे नोटा को मुख्य वजह माना जा रहा है। कम से कम 14 सीटें ऐसी हैं जहां नोटा यानी ‘नन ऑफ द अबव’ दोनों दलों के लिए विलेन साबित हुआ है। 230 सीटों में से 14 सीटों पर हार का अंतर नोटा में पड़े वोट से भी कम था। इससे पहले कर्नाटक चुनावों में भी नोटा ने 8 सीटों पर भाजपा की जीत को हार में तब्दील कर दिया था। चुनाव आयोग के आंकड़ों पर नजर डालें तो मध्यप्रदेश में बहुमत का समीकरण नोटा के चलते बिगड़ा है।
मध्यप्रदेश चुनावों में डेढ़ फीसदी (4,666,26) वोटरों ने नोटा पर बटन दबाया था। राजनीतिक विश्लेषक इस परिस्थिति के लिए दोनों दलों के बूथ मैनेजमेंट को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। उनका कहना है कि अगर दोनों दलों ने मतदाताओं को विश्वास जीता होता तो, इतनी संख्या में नोटा के वोट नहीं पड़ते। उनका कहना है कि जिस तरह से भाजपा और कांग्रेस बराबरी पर हैं, इससे साफ हो गया है कि इस बार का चुनाव पूरी तरह से नोटा के शिकंजे में रहा है।
मध्यप्रदेश में भाजपा और कांग्रेस दोनों को 41.2 प्रतिशत वोट मिले हैं। आंकड़ों पर नजर डालें, तो मध्यप्रदेश की वारासिवनी सीट पर निर्दलीय प्रदीप जायसवाल को 45612 वोट मिले, जबकि भाजपा के योगेश निर्मल को 44663 वोच मिले। वहीं नोटा में 1045 वोट पड़े। वहीं टीकमगढ़ में कांग्रेस प्रत्याशी को 44384 और भाजपा को 44573 और नोटा को 986 वोट पड़े। सुवासरा विधानसभा में भाजपा को 89712 और कांग्रेस को 89364 और नोटा पर 2874 वोट पड़े। गरोथ में भाजपा को 72219 और कांग्रेस को 69953, वहीं नोटा को 2351 वोट मिले।
राजनगर विधानसभा सीट की बात करें, तों यहां भाजपा के उम्मीदवार को 34807 वोट और कांग्रेस के प्रत्याशी को 34139 वोट पड़े, जबकि नोटा के पक्ष में 2133 वोट पड़े। नेपानगर में कांग्रेस को 85320, भाजपा को 84056 और नोटा को 2551 वोट पड़े। मान्धाता में कांग्रेस को 71228, भाजपा को 69992 और नोटा को 1575 वोट पड़े। कोलारस में भाजपा को 71173 और कांग्रेस को 70941, जबकि नोटा पर 1649 वोट पड़े। जोबाट सीट पर नोटा में 5139 वोट पड़े, जबकि दोनों दलों के प्रत्याशियों की जीत का अंतर 2500 सौ वोटों का रहा। जओरा सीट पर नोटा के पक्ष में 1500 वोट पड़े, जबकि कांग्रेस प्रत्याशी को जीत के लिए मात्र 700 वोट चाहिए थे।
वहीं पन्ना जिले के गुनौर विधानसभा में नोटा पर 3734 वोट पड़े, जबकि कांग्रेस को 57657 और भाजपा को 55674 वोट पड़े। वहीं यूपी की सीमा से लगने वाले चंदला में नोटा के पक्ष में 2695 वोट पड़े, जबकि जीत का अंतर 1100 वोटों से भी कम रहा। वहीं बीना विधानसभा में नोटा पर 1528 वोट गिरे, जबकि जीत का अंतर 600 वोटों से कम रहा। वहीं ब्यावरा में नोटा पर 1481 वोट गिरे, जबकि कांग्रेस को 75569 और भाजपा को 74743 वोट मिले।
भैंसदेही में सबसे ज्यादा 7706 वोट नोटा में पड़े और तकरीबन 13 से ज्यादा विधानसभा क्षेत्र ऐसे थे, जहां पांच हजार से ज्यादा वोट नोटा के पक्ष में गिरे। वहीं मध्यप्रदेश में तीसरी ताकत बनने वाली आम आदमी पार्टी को नोटा से करारा झटका लगा है। नोटा को मिले वोटटा प्रतिशत आप को मिले वोटों से कहीं ज्यादा है। आप को 0.7 प्रतिशत के साथ देर शाम तक 2,408,79 वोट हासिल हुए हैं।

गुरुवार, 28 जून 2018

श्रमजीवी पत्रकार की जेल गाथा: के.विश्वदेव


उन दिनों (1976-77) दिल्ली की तिहाड़ जेल के वार्ड सत्रह में पिताजी के विक्रम राव (K Vikram Rao) नजरबन्द थें, जार्ज फर्नांडिस (George Fernandes) तथा 23 अन्य के साथ। सी.बी.आई. (#CBI) की चार्जशीट में लगी धाराओं के अनुसार उन्हें सजाये-मौत देने की मांग की गई थी। यह मेरे जन्म (22 मार्च 1978) के चन्द महीनों पहले का वृत्तान्त हैं। अपने अग्रज सुदेव और दीदी विनीता तथा माँ डा० सुधा से विवरण सुनता आया था। बड़ौदा डाइनामाईट केस (#BarodaDynamiteCase) के सभी अभियुक्तों का पुलिसिया आकलन में इन्दिरा गाँधी (Indira Gandhi) के सर्वाधिक खतरनाक शत्रुओं में शुमार था। हालांकि तमाम सच्चे झूठे प्रयासों के बावजूद सी.बी.आई. कोई प्रमाण नहीं जुटा पाई थी कि इन विद्रोहियों ने किसी प्रकार की प्राण-हानि पहुँचाई हो। प्रारंभ में बड़ौदा सेन्ट्रल जेल में पिताजी के साथ पाँच कैदी थे जिन्हें तन्हा कोठरी में बेड़ियों के साथ दो ताले लगाकर बन्द किया जाता था। इन अठारह वर्ग फिटवाली कोठरियों का निर्माण महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ ने 1876 में फांसी के सजायाफ्ता अपराधियों के लिए किया था। कुछ महीनों बाद इन कैदियों को बड़ौदा से दिल्ली के तिहाड़ जेल में ले जाया गया। वहाँ नौ राज्यों में गिरफ्तार किये गये डायनामाइट केस के अन्य अभियुक्तों को भी एक साथ रखा गया था।
 एक साहसी संवाददाता के नाते पिताजी ने अभिव्यक्ति की आज़ादी  के दमन के विरूद्ध अभियान चलाया था। इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स (IFWJ - Indian Federation of Working Journalists) के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष (पुणे सम्मेलन, 1973 में) वे चुने गये थे। अतः प्रेस सेंसरशिप (25 जून 1975) लागू होते ही संघर्ष शुरू कर दिया था। फेडरेशन की राष्ट्रीय परिषद के बंगलूर अधिवेशन (फरवरी 1976) में इन्दिरा गाँधी शासन की तानाशाही की भर्त्सना वाला प्रस्ताव उन्होंने बहुमत से पारित कराया। इसके चन्द दिनों बाद ही (19 मार्च 1976) गुजरात पुलिस ने पिताजी को कैद कर लिया। और तभी अखबारी आज़ादी के अनन्य समर्थक टाइम्स ऑफ इंडिया के प्रधान संपादक शाम लाल तथा सम्पादक गिरिलाल जैन ने बड़ौदा जेल में पिताजी के निलम्बन का आदेश (अप्रैल 1976) और फिर दिल्ली जेल में (अक्टूबर 1976) बरखास्तगी का आदेश भिजवा दिया। इतनी त्वरित गति से काम किया कि सत्ता पर सवार लोग प्रभावित हो गये थें। इस बीच हमारे परिवार पर क्या गुजरी यह दर्दभरी दास्तां है। मेरी माँ (डा० सुधा) का बड़ौदा मंडलीय रेलवे अस्पताल से पाकिस्तान के सीमावर्ती गाँधीधाम (कच्छ) रेगिस्तानी इलाके में तबादला कर दिया गया। वे राजपत्रित रेल अधिकारी थीं। परिवार बिखर गया। पिताजी ने जेल से ही स्वाधीनता सेनानी और संपादक रहे रेलमंत्री पंडित कमलापति त्रिपाठी को विरोध-पत्र लिखा कि अंग्रेजों ने भी कभी किसी स्वाधीनता सेनानी के परिवार को तंग नहीं किया, तो फिर कांग्रेस सरकार की ऐसी अमानवीय नीति क्यों?  
   आखिर स्वयं त्रिपाठी जी तथा मेरे दादाजी (नेहरू के नेशनल हेरल्ड के संस्थापक-सम्पादक) स्व. के. रामा राव भी (1942) में जेल गये थें। उनके परिवार को ब्रिटिश राज ने कभी परेशान नहीं किया था। इस पर रेल मंत्री ने दिल्ली के एक पत्रकार-प्रतिनिधि मंडल से कहा कि वे असहाय थे। “ऊपर से आदेश आया था”। इतना सब होने के कुछ दिन पूर्व ही अचानक बड़ौदा के समाचारपत्रों में खबर छपी कि कर्नाटक पुलिस और सी.बी.आई पिताजी को सान्ताक्रूज (मुम्बई) थाने में, फिर बंगलूर पुलिस की हिरासत में ले गई हैं। माँ ने सी.बी.आई. अद्दिकारियों से विरोध व्यक्त किया कि बिना परिवार को सूचित किये बड़ौदा जेल के बाहर पिताजी को कैसे ले गये?  इस पर पुलिस का जवाब था, “सर्वोच्च न्यायालय के प्रद्दान न्यायमूर्ति ए.एन. राय के निर्णय के अनुसार इमर्जेंसी में सरकार को किसी भी नागरिक की जान लेने का भी अद्दिकार है। इसके खिलाफ कहीं भी सुनवाई नहीं हो सकती है”। बंगलूर (मल्लीश्वरम्) पुलिस हिरासत में ठण्डी फर्श पर सुलाना, बिना कुर्सी दिये घंटों खड़ा रख कर सवाल जवाब करना, रात को तेज रोशनी चेहरे पर डालकर जगाये रखना, इसपर भी कुछ न बताने पर हेलिकाप्टर (पंखे से लटकाना) बनाना आदि यातनायें दीं गईं। 
   बडौदा के मुख्य दण्डाधिकारी और जिला जज ने  जमानत की याचिका खारिज कर दी। बाद में पिताजी की अपील सुनकर गुजरात हाई कोर्ट ने जमानत पर रिहाई का आदेश दे दिया। तभी इन्दिरा गाँद्दी सरकार ने उन पर मीसा (आन्तरिक सुरक्षा कानून) के तहत नजरबन्दी का आदेश लागू कर दिया। तब तक कानून था कि यदि पुलिस साठ दिन में चार्जशीट नहीं दायर कर सकी तो जमानत अपने आप मिल जाती थी। इस प्रावधान को भारत सरकार ने संशोधित कर एक सौ बीस दिन कर दिया। इसके अलावा यह भी कानून बना दिया गया कि पुलिस के समक्ष दिया गया बयान भी सबूत माना जायेगा। अर्थात जबरन लिया गया वक्तव्य भी वैध बना दिया गया जो गुलाम भारत में भी नहीं था। जब जमानत  मिलने पर भी जेल के अन्दर ही पिताजी को दुबारा गिरफ्तार कर दिल्ली रवाना कर दिया गया तो ये सारे अमानविक तथा अवैध संशोधन अपनी तीव्रता खो चुके थे। तब एक चुटकुला चल निकला था कि मीसा के मायने हैं मेइंटिनेन्स ऑफ इन्दिरा एण्ड संजय (इन्टर्नल सेक्युरिटि) एक्ट है। अन्याय की पराकाष्ठा तो तब हुई जब पिताजी के वकील को भी जेल में निरूद्ध कर दिया गया था। 
     बड़ौदा जेल में पिताजी के साथ यादगार घटनायें हुई। माओ जेडोंग का निधन (9 सितम्बर 1976) हो गया था तो पिताजी ने अपने वार्ड में शोकसभा रखी। सभी कैदी शामिल हुए जिससे श्री बाबूभाई जशभाई पटेल, जो 1977 में जनता पार्टी के मुख्य मंत्री बने, जनसंघ विधायक चिमनभाई शुक्ल जो राजकोट से लोकसभा में आयें, सर्वोदयी प्रभुदास पटवारी जो 1977 में तमिलनाडु के राज्यपाल नियुक्त हुए, आदि ने संबोधित किया। सबने वन्दे मातरम भी गाया तो संगठन कांग्रेसियों ने केवल पहला छन्द ही गाया क्योंकि अगले में मूर्तिपूजा का भास था, जिस पर कुछ मुसलमान आपत्ति करते आये हैं। इस पर जनसंघ विधायक चिमनभाई शुक्ल ने आलोचना की कि इन कांग्रेसियों ने पहले भारत को बांटा और अब वन्दे मातरम को भी काट रहें हैं। बड़ौदा जेल में पिताजी को भोजन की कठिनाई तो होती थी क्योंकि वे प्याज-लहसुन तक का परहेज करते हैं। नाश्ते में उन्हें गुड़ और भुना चना मिलता था जिसे वे चींटियों और चिड़ियों को खिला देते थें। लेकिन सबसे कष्टदायक बात थी कि पत्रकार को समाचारपत्र नही मिलते थे। पिताजी की दशा बिन पानी की मछली जैसी थी। मगर यह दुःख शीघ्र दूर हो गया जब एक युवक पिताजी के लिए रोज अखबारों का बण्डल पहुँचाता था जिसे तरस खाकर जेलर साहब पिताजी के बैरक में पहुँचा देते थे। वह युवक था नरेन्द्र दामोदरदास मोदी, गुजरात के मुख्यमंत्री एव अब भारत के प्रधानमंत्री। 
 उनकी कैद के प्रथम दिन से ही पिताजी की प्रतिरोधात्मक संकल्प शक्ति को तोड़ने की साजिश सी.बी.आई. रचती रही थी। आला पुलिस हाकिमों ने केन्द्रीय गृह मंत्रालय के निर्देश पर पिताजी को जार्ज फर्नांडिस के विरूद्ध वादामाफ गवाह (एप्रूवर) बनाने का सतत यत्न किया था। एक दिन तो उनलोगों ने पिताजी को अल्टिमेटम दे डाला कि यदि वे सरकारी गवाह नही बनेंगे तो उनकी पत्नी (मेरी माँ) को भी सहअपराधी बनाकर बड़ौदा जेल में ले आयेंगे। पिताजी ने बाद में हम सबको बताया कि सी.बी.आई. की धमकी से वे हिल गये थे। तब मेरी बहन विनीता चार वर्ष की और भाई सुदेव तीन वर्ष के थे। दूसरे शनिवार को माँ बड़ौदा जेल भेंट करने आईं। उनसे पिताजी ने पूछा। माँ ने बेहिचक कहा कि “जेल में खाना पकाऊँगी। यहीं रहेंगे। पर साथी (जार्ज फर्नांडिस) से गद्दारी नही करेंगे”। अगले दिन सी.बी.आई वाले जानने आये। पिताजी का जवाब तीन ही शब्दों में था, “लड़ेंगे, झुकेंगे नहीं”। फिर यातनाओं का सिलसिला ज्यादा लम्बाया।
   कैदी के रूप में पिताजी तथा उनके साथियों से बड़े अपमानजनक तरीके से बर्ताव किया जाता था, खासकर जब उन्हें अदालत ले जाया जाता था। हथकड़ी और मोटी रस्सी से बांध कर आठ-आठ सिपाही लोग बख्तरबन्द गाड़ी में जेल से कोर्ट और वापस जेल ले जाते थें। सैकड़ों सशस्त्र पुलिसवाले उनकी गाड़ी के आगे पीछे चलते थें। पिताजी की कलाई के साथ स्व. वीरेन जे. शाह को भी बांधा जाता था। इस पर पिताजी ने व्यंग किया कि इन्दिरा गाँधी ने असली समाजवाद ला दिया है। श्री वीरेन शाह अरबपति, उद्योपति (मकुन्द आयरन एण्ड स्टील के मालिक), भारतीय जनसंघ के सांसद और बाद में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल बने। अर्थात श्रमजीवी पत्रकार मेरे पिता तथा पूंजीपति शाह का संग! सी.बी.आई. ने जब तीस हजारी कोर्ट (दिल्ली) के चीफ ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट मोहम्मद शमीम (बाद में दिल्ली हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति तथा अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष) के सामने अभियुक्तों को पेश किया तो जार्ज फर्नांडिस ने एक लिखित बयान पढ़ा। उसमें एक वाक्य था, “हम सब लोगों की कलाइयों पर बंधी ये हथकड़ियाँ वस्तुतः भारत राष्ट्र पर लगी जंजीरें है”। 
   ठीक उसी वक्त पिताजी और अन्य ने बाहें उठा हथकड़ियाँ झनझनायी। इसे बी.बी.सी. के संवाददाता मार्क टल्ली ने विस्तार से प्रसारित किया। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों का दस्ता कोर्ट आकर उनका “लाल सलाम” के नारे से अभिवादन करता था। तीस हजारी कोर्ट में अभियुक्तों से भेंट करने आने वालों में मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेई, मधु लिमये, राजनारायण, चन्द्रशेखर, भाकपा के ज्योतिर्मय बसु आदि थे। उसी दौर में बडौदा डायनामाइट केस के अभियुक्क्तों के बचाव में एक सलाहकार समिति गठित हुई थी। इसके अध्यक्ष थे वयोवृद्ध गाँधीवादी अस्सी-वर्षीय आचार्य जीवतराम भगवानदास कृपलानी। चन्द्रभानु गुप्त  कोषाध्यक्ष थे। अन्य सदस्य थे न्यायमूर्ति वी.एम. तारकुण्डे, सोली सोराबजी, अषोक देसाई आदि लब्द्दप्रतिष्ठित विद्दि विषेषज्ञ। अचानक एक रात (18 जनवरी 1977) आकाशवाणी पर प्रधानमंत्री की घोषणा हुई कि मार्च में छठी लोकसभा का चुनाव आयोजित होगा। मीसा बन्दी सब रिहा हो गये। मगर डायनामाइट केस के सभी 25 अभियुक्त जेल में ही रहे। पिताजी बताते हैं कि तिहाड़ जेल में कैद जनसंघ के सुंदर सिंह भण्डारी (बाद में बिहार और गुजरात के राज्यपाल) ने बताया था कि ये सारे मीसाबन्दी रिटर्न टिकट लेकर जेल के बाहर जा रहें हैं। चुनाव के बाद वे सब फिर कैद कर लिये जायेंगे। भण्डारी जी का कथन था कि “डायनामाइट केस के आप कैदी तो तभी रिहा हांगे जब इन्दिरा गाँधी खुद चुनाव हार जायें”। 
   मार्च के प्रथम सप्ताह (9 मार्च, मेरे दादाजी की सोलहवीं पुण्यतिथि पर) मेरी माँ दोनों बच्चों (मेरी पाँच-वर्षीया दीदी और चार-वर्षीय भाई) के साथ पिताजी से भेंट करने गाँधीधाम से दिल्ली तिहाड़ जेल गईं। रूंधे गले से माँ ने पिताजी को बताया कि शायद यह आखिरी मुलाकात है क्योंकि इन्दिरा गाँधी चुनाव जीत रहीं है और फिर जार्ज फर्नांडिस तथा पिताजी को फाँसी हो जाएगी। ये दोनों व्यक्ति नम्बर एक और दो पर नामित अभियुक्त थे। पिताजी हंसे और बोले कि कांग्रेस को सूपड़ा हिन्दी भाषी प्रदेशों में साफ हो रहा है। राज नारायण जी (Raj Narain) रायबरेली से जीतने जा रहे हैं। जनता पार्टी की सरकार बनेगी। जेल के भीतर पिताजी को लोकमानस की सही सूचना थी बजाय बाहर रहकर माँ को। फिर चुनाव परिणाम आयें। मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने। उनकी काबीना का प्रथम निर्णय था कि बड़ौदा डायनामाइट केस वापस ले लिया जाय। इसमें गृहमंत्री चरण सिंह, वित्त मंत्री एच.एम. पटेल, कानून मंत्री शांति भूषण तथा विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की अहम भूमिका थी। केस वापस हुआ और जार्ज फर्नांडिस ने मंत्री पद की शपथ ली। सभी लोग (22 मार्च 1977 को) तिहाड़ जेल से रिहा कर दिये गये। 
 मगर किस्सा अभी बाकी था। कांग्रेस पार्टी के सांसदों और वकीलों ने दिल्ली हाई कोर्ट में याचिका दायर की कि मोरारजी देसाई काबीना का निर्णय अवैध करार दिया जाय और सार्वजनिक एवं राष्ट्रहित में डायनामाईट केस फिर चलाया जाय। हाईकोर्ट द्वारा इसे खारिज कर देने पर इन कांग्रेसी वकीलों ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील दर्ज की। न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्ण अय्यर तथा न्यायमूर्ति चेन्नप्पा रेड्डि की खण्ड पीठ ने सुनवाई की। बचाव के वकील थे जनता पार्टी के सांसद और वकील राम जेठमलानी। उनका तर्क था कि यदि इन्दिरा गाँधी, जो तब तक सत्ता पर लौट आई थीं, चाहें तो मुकदमा स्वयं खुलवा सकती हैं। अतः सर्वोच्च न्यायालय क्यों हस्तक्षेप करें ?  जजों की पीठ ने कांग्रेसी अपील खारिज कर दी। इमर्जेंसी की भूल के लिए जनता से बारम्बार क्षमा याचना करने वाली इन्दिरा गाँधी दुबारा हिम्मत नहीं जुटा सकी कि डायनामाइट केस खोल दें। अन्ततः पिताजी और सभी साथी मुक्त रहे। 
     फिर टाइम्स ऑफ इण्डिया प्रबंधन ने पिताजी को लखनऊ ब्यूरों प्रमुख बनाकर (फरवरी, 1978, मेरे जन्म के एक माह पूर्व) नियुक्त किया। मगर इसमें भी मोरारजी देसाई को हस्तक्षेप करना पड़ा। जनता पार्टी काबीना का महत्वपूर्ण निर्णय था कि जो भी लोग इमर्जेंसी का विरोध करने पर बर्खास्त हुये हैं उन्हें बकाया वेतन के साथ पुनर्नियुक्त कर दिया जाय। प्रद्दानमंत्री ने टाइम्स ऑफ इण्डिया के चेयरमैन अशोक जैन को खुद आदेश दिया कि काबीना के इस निर्णय के तहत पिताजी को सवेतन वापस लिया जाय। अतः टाइम्स ऑफ इण्डिया जो आम तौर पर भारत के श्रम कानून की खिल्ली उड़ाता रहता है, को मानना पड़ा। वह केन्द्रीय सरकार के निर्णय की अवहेलना करने से सहमा। और तब पिताजी लखनऊ में संवाददाता के रूप में कार्यरत हो गये। हमारें परिवार की यह गाथा है। आपके लिये प्रस्तुत है।

के विश्वदेव राव
ईमेल: vishwadevrao@gmail.com
मो०: 9415010300

शनिवार, 9 जून 2018

जानिए एसएन शुक्ला ने कैसे खाली कराये माया, अखिलेश मुलायम, राजनाथ, और कल्याण से सरकारी बंगले

क्या भारत की किसी सरकार में ये ताकत थी कि वो जनता के अरबों रुपये खर्च करके बनवाये गये मायावती और अखिलेश यादव के बंगलों को खाली करवा पाती? कभी नहीं। क्योंकि मायावती ने तो जीवन भर सिर्फ बंगलों की ही राजनीति की है। यूपीए सरकार को समर्थन करने के बदले में तीन बंगले ले लिये थे। 

भला हो एसएन शुक्ल जी का, जिन्होंने १४ साल की लंबी कानूनी लड़ाई लड़कर जनधन का दुरुपयोग करनेवालों को बता दिया कि कोई कानून से ऊपर कोई नहीं है। अगर माननीय कानून का दुरुपयोग करेंगे तो उन्हें भी चुनौती दी जा सकती है। 

एक रिटायर्ड आईएसएस रहे एस एन शुक्ला ने अपनी संस्था लोक प्रहरी के माध्यम से अब तक दो केस जीते हैं और दोनों ही लोकतंत्र में लोक की रक्षा के सबसे अहम हथियार साबित हुए है। पहला, सजायाफ्ता अपराधियों के चुनाव लड़ने पर रोक और दूसरा अब एक्स सीएम को सरकारी बंगला देने पर रोक। 

ऐसे ही लोग लोकतंत्र की जान और शान है। जो सुविधाभोगी भेड़ियों से न सिर्फ जन धन और सम्मान की रक्षा करते हैं बल्कि उन्हें सबक भी सिखाते हैं, जो कि लोकतंत्र का दुरुपयोग अपने निजी फायदे के लिए ही करते हैं।

सोमवार, 14 मई 2018

सिर्फ जिन्ना पर भारत विभाजन का दोष क्यों?

प्रभात रंजन दीन
साथियो..! कभी-कभी कुछ बातें आपको भीतर तक इतनी चुभा देती हैं कि उस निरूपित-पीड़ा के खिलाफ आपकी जानकारी और आपकी समझ बगावत करने लगती है. आज के अखबारों में कांग्रेसी नेता स्वनामधन्य शशि थरुर का बयान सुर्खियों में छपा है. अखबार वालों से तो आप अब उम्मीद ही न करें कि वो कोई खबर देश-समाज के हित को ध्यान में रख कर छापते हैं. अखबार और मीडिया की सोच-समझ बहुत शातिराना है. किन बातों से समाज में विद्वेष फैलेगा, किन बातों से कटुता फैलेगी, नफरत का सृजन होगा, उन्माद भड़केगा और अराज कायम होगा, ऐसे विषय अखबारों और चैनलों में खबर बनते हैं. मीडिया का दोनों पक्ष अतिवाद का शिकार है. एक पक्ष विरोध की अति पर है दो दूसरा पक्ष चाटुकारिता की अति पर. दोनों ही पक्ष विश्वास-हीन हैं. हम उस दौर में पहुंच गए हैं जहां आपको अपनी खुद की समझ से समझदारी विकसित करनी है, आप मीडिया को समाज का दिग्दर्शक समझने की भूल न करें, वो आपको गहरे अंधे खड्ड की तरफ ले जा रहे हैं. 

खैर, गुस्सा आ गया इसलिए थोड़ा इधर-उधर हो गया. कांग्रेस नेता शशि थरुर लखनऊ आए थे और वे कांग्रेस के प्रबुद्धजनों को संबोधित कर रहे थे. उन्होंने जिन्ना का प्रकरण उठाया और कहा कि यह जनता का ध्यान भटकाने के लिए किया गया है. थरुर ने फिर ‘भारत माता की जय’ का मसला उठाया और संविधान को सामने लाते हुए कहा कि ‘भारत माता की जय’ बोलने के लिए हमें संविधान बाध्य नहीं करता. थरुर ने यह भी कहा कि मुसलमानों के मजहब में इसे बोलने से मनाही है. यह कैसी बौद्धिक सभा थी कि सारे लोग थरुर का अबौद्धिक वक्तव्य सुनते रहे, किसी ने कोई प्रति-प्रश्न नहीं किया और अखबार वालों ने भी उसे हूबहू छाप दिया! भारतीय संविधान के भाग चार (क) का अनुच्छेद 51 (क) नागरिकों के मूल कर्तव्य को पारिभाषित करता है. संविधान में 10 मूल कर्तव्य उल्लेखित हैं. लेकिन यहां मैं आपको पहले तीन कर्तव्य की याद दिलाता हूं:- 
1. संविधान का पालन करें और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्र-ध्वज और राष्ट्र-गान का सम्मान करें.
2. स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय से संजोए रखें और उसका पालन करें.
3. भारत की प्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करें और उसे अक्षुण्ण रखें.

संविधान का कंधा इस्तेमाल कर थरुर ने समाज में विद्वेष फैलाने वाली कुत्सित बात कही. संविधान में कहां लिखा है कि ‘भारत माता की जय’ मत बोलो! संविधान में यह भी नहीं लिखा है कि ‘भारत माता की जय’ बोलो, लेकिन संविधान में यह जरूर लिखा है कि ‘स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय से संजोए रखें और उसका पालन करें.’ ...‘भारत माता की जय’ का नारा राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़े क्रांतिकारियों ने दिया था. हम उन उच्च आदर्शों को हृदय में संजोए रखने और पीढ़ियों तक उस संस्कार को ले जाने के लिए कहते हैं, ‘भारत माता की जय’. संविधान कहता है कि हमें भारत की सम्प्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करनी है और उसे अक्षुण्ण रखना है, इसलिए हमारा ‘भारत माता की जय’ कहना सबसे बड़ा और प्राथमिक धर्म है. 

शशि थरुर नाम का अबौद्धिक व्यक्ति कहता है कि मुसलमानों में ‘भारत माता की जय’ कहना मना है. अरे..! यह कैसा पढ़ा-लिखा व्यक्ति है..! ‘मादरे वतन भारत की जय’ कहना क्या है..? 1857 में जब स्वतंत्रता संग्राम की पहली क्रांति शुरू हुई थी, तभी अजीमुल्लाह खान ने ‘मादरे वतन भारत की जय’ का नारा दिया था... यह ‘भारत माता की जय’ का ही तो उर्दू तरजुमा था! हम सब बड़े गर्व से ‘जय हिंद’ कहते हैं. इसमें कहां कोई धर्म आड़े आता है! ‘जय हिंद’ का नारा आबिद हसन सफरानी ने दिया था, थरुर साहब! बात कड़वी जरूर है, लेकिन थरुर साहब के लिए सटीक है... आप पहले अपनी पत्नी के प्रति वफादार होना सीख लें, देश के प्रति वफादारी आ जाएगी. 

बहरहाल, जिन्ना पर आते हैं. जिस जिन्ना ने खुद कभी इस्लाम की शिक्षा नहीं मानी और हर वे हरकतें कीं जो इस्लाम के खिलाफ मानी जाती हैं, उसी जिन्ना को लेकर कुछ मुसलमान बेवजह फना हुए जा रहे हैं. लेकिन जिन लोगों ने जिन्ना की तस्वीर का मसला उठाया है, उसके पीछे उनकी कोई राष्ट्र-भक्ति नहीं, वह केवल वोट-भक्ति है. यह कांग्रेस के पैंसठ साल तक चले फार्मूले का प्रति-फार्मूला है, जिसे भाजपा आजमा रही है. 

भारत के विभाजन के लिए अकेले जिन्ना दोषी नहीं हैं. भारत के विभाजन के लिए जिन्ना के साथ-साथ नेहरू और गांधी भी दोषी हैं. साथ-साथ वे सब दोषी हैं जिन्होंने एक तरफ जिन्ना का साथ दिया तो दूसरी तरफ नेहरू का. इन सब लोगों ने मिल कर देश विभाजन का आपराधिक कृत्य किया. हम अकेले जिन्ना जिन्ना क्यों रट लगा रहे हैं..? गांधी को राष्ट्रपिता का सम्मान हासिल था. पिता जब तक जीवित रहता है, घर का बंटवारा नहीं होता. भाई आपस में चाहे जितना मनमुटाव रखें, पर पिता के सामने उनकी नहीं चलती. पिता का आखिरी हथियार होता है, ‘मेरी लाश पर ही घर का बंटवारा होगा.’ यह कह कर पिता घर को बांधे रहता है. लेकिन राष्ट्रपिता गांधी ने राष्ट्र-गृह का विभाजन रोकने के लिए ऐसा क्या किया..? अगर वह जिन्ना और नेहरू की सत्ता-लालसा के आगे इतने ही निरीह हो गए थे, तो देश के समक्ष जिन्ना-नेहरू की लिप्सा उजागर करते और देश के बंटवारे के मसले को देश की जनता के जिम्मे छोड़ देते! गांधी ने ऐसा क्यों नहीं किया..? जिन्ना को पहला प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव देकर नेहरू मुस्लिम लीग की दुर्भावना पर पानी फेर सकते थे और आम चुनाव के जरिए देश का दूसरा प्रधानमंत्री बनने का रास्ता अपना सकते थे. लेकिन जिन्ना और नेहरू दोनों पर ही ‘प्रथम’ होने की सनक सवार थी. इसी सनक पर देश बंट गया और देश के लोगों से पूछा भी नहीं गया. देश को जिन्ना और नेहरू ने अपनी-अपनी बपौती समझ कर बांट लिया. हम इन दोनों को अपने-अपने देश में महान बनाए बैठे हैं. देश के बंटवारे के मसौदे पर नेहरू और जिन्ना ने हस्ताक्षर किए, गांधी मूक बने बैठे रह गए. नेहरू अगर राष्ट्रभक्त होते तो बंटवारे के मसौदे पर साइन करने से इन्कार कर देते..! फिर कुछ दिन और आजादी की लड़ाई लड़ी जाती. जूझारू क्रांतिकारी विनायक दामोदर सावरकर ने ‘टू-नेशन थ्योरी’ का पुरजोर विरोध किया था और बंटवारे के खिलाफ आवाज बुलंद की थी. लेकिन दुर्भाग्य यह है कि सावरकर को भावी नस्लों के सामने विलेन की तरह पेश किया गया और हमने भी बिना सोचे समझे सावरकर को विलेन कहना शुरू कर दिया. यह बंटवारा-परस्तों का षडयंत्र था, जिसने हमारा दिमाग ग्रस लिया. सत्ता के भांड इतिहासकारों ने तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर उलट-पलट कर हमारे सामने पेश किया. हमने इसे इतिहास समझ लिया, साजिश नहीं समझा. 

हम महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता कहते हैं, क्योंकि हमें ऐसा कहने को कहा गया. हमें अपना राष्ट्रपिता चुनने का अधिकार नहीं. वैसे ही जैसे हमें अपने देश को एक बनाए रखने का अधिकार नहीं था. भारतवर्ष के राष्ट्रपिता का व्यक्तित्व बाबा साहब भीमराव अंबेडकर में था. भ्रमित-खंडित देश ने इस पर ध्यान ही नहीं दिया. भारत राष्ट्र और भारतीय समाज को लेकर एक बाप की तरह की पीड़ा थी बाबा साहब में, इस पर हमने सोचा ही नहीं. धारा 370 को लेकर आज भाजपा जो भी राजनीति करती रहे, बाबा साहब ने इसे लागू करने को लेकर पुरजोर विरोध किया था, यहां तक कि शेख अब्दुल्ला को अपने कक्ष से बाहर निकाल दिया था. फिर नेहरू, पटेल और अब्दुल्ला ने षडयंत्र करके संविधान निर्माण प्रारूप समिति के अध्यक्ष और कानून मंत्री बाबा साहब को दरकिनार कर संसद से धारा 370 का प्रस्ताव पारित कराया. 

राष्ट्रपिता बाबा साहब अंबेडकर ने भारत के विभाजन का तगड़ा विरोध किया था. लेकिन बाबा साहब की एक नहीं सुनी गई. बाबा साहब की किताब ‘थॉट्स ऑन पाकिस्‍तान’ पढ़ें तो ‘महापुरुषों’ के कुकृत्य देख कर आपके रोंगटे खड़े हो जाएंगे और मन वितृष्णा से भर जाएगा. सत्ता-लोलुपता से ग्रस्त ‘महापुरुष’ देश के टुकड़े करने से बाज नहीं आए और इसके लिए क्या क्या हरकतें नहीं कीं! बाबा साहब ने अपनी किताब में सावरकर का जिक्र करते हुए लिखा है कि सावरकर देश बंटवारे के विरोध में थे. यहां तक कि सावरकर ने दो देश बनने के बावजूद एक ही संविधान रखने की आखिरी कोशिश की थी, लेकिन उसमें भी वे नाकाम रहे. देश का विभाजन करने पर आमादा जिन्ना और नेहरू को बाबा साहब ने बुरी तरह लताड़ा था. 1940 में लिखी इस किताब में उन्होंने एक तरफ मुस्लिम लीग तो दूसरी तरफ कांग्रेस की खूब छीछालेदर की थी. बाबा साहब भारतवर्ष को अखंड देखना चाहते थे. उनका मानना था कि देश को दो भागों में बांटना व्‍यवहारिक रूप से अनुचित है और इससे मनुष्‍यता का सबसे बड़ा नुकसान होगा. और ऐसा ही हुआ. विभाजन के दौरान हुई भीषण हिंसा आज भी आंखों में लहू उतार देती है. कौन-कौन दोषी हैं इसके लिए..? क्या अकेले जिन्ना..? या साथ में नेहरू भी..? और साथ में गांधी भी..? बाबा साहब भारतवर्ष को भौगोलिक और सांस्कृतिक नजरिए से एक समग्र राष्ट्र के रूप में देखते थे. जैसा एक राष्ट्रपिता देखता है... आप ‘भारत माता की जय बोलें’, आप ‘मादरे वतन भारत की जय बोलें’ और आप बोलें ‘राष्ट्रपिता बाबा साहब अंबेडकर की जय’... यह बोलने में धर्म, जाति, वर्ण, सवर्ण सब भूल जाएं, केवल राष्ट्र याद रखें...

तुलसीदास ने अपनी रचना "तुलसी शतक" में किया है "बाबरी मस्जिद" का उल्लेख

आम तौर पर हिंदुस्तान में ऐसी परिस्थितियां कई बार उत्पन्न हुई जब राम -मंदिर और बाबरी मस्जिद (ढांचा ) एक विचार-विमर्श का मुद्दा बना और कई विद्वानों ने चाहे वो इस पक्ष के हो या उस पक्ष के अपने विचार रखे . कई बार तुलसीदास रचित रामचरित मानस पर भी सवाल खड़े किये गए की अगर बाबर ने राम -मंदिर का विध्वंश किया तो तुलसीदास जी ने इस घटना का जिक्र क्यों नही किया . 
सच ये है कि कई लोग तुलसीदास जी की रचनाओं से अनभिज्ञ है और अज्ञानतावश ऐसी बातें करते हैं . वस्तुतः रामचरित्रमानस के अलावा तुलसीदास जी ने कई अन्य ग्रंथो की भी रचना की है . तुलसीदास जी ने तुलसी शतक में इस घंटना का विस्तार से विवरण दिया है .

हमारे वामपंथी विचारको तथा इतिहासकारो ने ये भ्रम की स्थति उतपन्न की,कि रामचरितमानस में ऐसी कोई घटना का वर्णन नही है . श्री नित्यानंद मिश्रा ने जिज्ञाशु के एक पत्र व्यवहार में "तुलसी दोहा शतक " का अर्थ इलाहाबाद हाई कोर्ट में प्रस्तुत किया है | हमनें भी उन दोहों के अर्थो को आप तक पहुँचाने का प्रयास किया है | प्रत्येक दोहे का अर्थ उनके नीचे दिया गया है , ध्यान से पढ़ें |

मन्त्र उपनिषद ब्राह्मनहुँ,
बहु पुरान इतिहास ।
जवन जराये रोष भरि,
करि तुलसी परिहास ॥

श्री तुलसीदास जी कहते हैं कि क्रोध से ओतप्रोत यवनों ने बहुत सारे मन्त्र (संहिता), उपनिषद, ब्राह्मणग्रन्थों (जो वेद के अंग होते हैं) तथा पुराण और इतिहास सम्बन्धी ग्रन्थों का उपहास करते हुये उन्हें जला दिया ।

सिखा सूत्र से हीन करि,
बल ते हिन्दू लोग ।
भमरि भगाये देश ते,
तुलसी कठिन कुजोग ॥

श्री तुलसीदास जी कहते हैं कि ताकत से हिंदुओं की शिखा (चोटी) और यग्योपवित से रहित करके उनको गृहविहीन कर अपने पैतृक देश से भगा दिया ।

बाबर बर्बर आइके,
कर लीन्हे करवाल ।
हने पचारि पचारि जन,
जन तुलसी काल कराल ॥

श्री तुलसीदास जी कहते हैं कि हाँथ में तलवार लिये हुये बर्बर बाबर आया और लोगों को ललकार ललकार कर हत्या की । यह समय अत्यन्त भीषण था ।

सम्बत सर वसु बान नभ,
ग्रीष्म ऋतू अनुमानि ।
तुलसी अवधहिं जड़ जवन,
अनरथ किय अनखानि ॥

(इस दोहा में ज्योतिषीय काल गणना में अंक दायें से बाईं ओर लिखे जाते थे, सर (शर) = 5, वसु = 8, बान (बाण) = 5, नभ = 1 अर्थात विक्रम सम्वत 1585 और विक्रम सम्वत में से 57 वर्ष घटा देने से ईस्वी सन 1528 आता है ।)
श्री तुलसीदास जी कहते हैं कि सम्वत् 1585 विक्रमी (सन 1528 ई) अनुमानतः ग्रीष्मकाल में जड़ यवनों अवध में वर्णनातीत अनर्थ किये । (वर्णन न करने योग्य) ।

राम जनम महि मंदरहिं,
तोरि मसीत बनाय ।
जवहिं बहुत हिन्दू हते,
तुलसी कीन्ही हाय ॥

जन्मभूमि का मन्दिर नष्ट करके, उन्होंने एक मस्जिद बनाई । साथ ही तेज गति उन्होंने बहुत से हिंदुओं की हत्या की । इसे सोचकर तुलसीदास शोकाकुल हुये ।

दल्यो मीरबाकी अवध,
 मन्दिर राम समाज ।
तुलसी रोवत ह्रदय हति,
त्राहि त्राहि रघुराज ॥

मीरबकी ने मन्दिर तथा रामसमाज (राम दरबार की मूर्तियों) को नष्ट किया । राम से रक्षा की याचना करते हुए विदिर्ण ह्रदय तुलसी रोये ।

राम जनम मन्दिर जहाँ,
तसत अवध के बीच ।
तुलसी रची मसीत तहँ,
मीरबकी खल नीच ॥

तुलसीदास जी कहते हैं कि अयोध्या के मध्य जहाँ राममन्दिर था वहाँ नीच मीरबकी ने मस्जिद बनाई ।

रामायन घरि घट जहाँ,
श्रुति पुरान उपखान ।
तुलसी जवन अजान तँह,
करत कुरान अज़ान ॥

श्री तुलसीदास जी कहते है कि जहाँ रामायण, श्रुति, वेद, पुराण से सम्बंधित प्रवचन होते थे, घण्टे, घड़ियाल बजते थे, वहाँ अज्ञानी यवनों की कुरआन और अज़ान होने लगे।

अब यह स्पष्ट हो गया कि गोस्वामी तुलसीदास जी की इस रचना में जन्मभूमि विध्वंस का विस्तृत रूप से वर्णन किया है।

गुरुवार, 18 जनवरी 2018

14 वर्ष के वनवास में कहां-कहां रहे राम?




 श्रीराम को 14 वर्ष का वनवास हुआ। इस वनवास काल में श्रीराम ने कई ऋषि-मुनियों से शिक्षा और विद्या ग्रहण की, तपस्या की और भारत के आदिवासी, वनवासी और तमाम तरह के भारतीय समाज को संगठित कर उन्हें धर्म के मार्ग पर चलाया। संपूर्ण भारत को उन्होंने एक ही विचारधारा के सूत्र में बांधा, लेकिन इस दौरान उनके साथ कुछ ऐसा भी घटा जिसने उनके जीवन को बदल कर रख दिया।

रामायण में उल्लेखित और अनेक अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार जब भगवान राम को वनवास हुआ तब उन्होंने अपनी यात्रा अयोध्या से प्रारंभ करते हुए रामेश्वरम और उसके बाद श्रीलंका में समाप्त की। इस दौरान उनके साथ जहां भी जो घटा उनमें से 200 से अधिक घटना स्थलों की पहचान की गई है।

जाने-माने इतिहासकार और पुरातत्वशास्त्री अनुसंधानकर्ता डॉ. राम अवतार ने श्रीराम और सीता के जीवन की घटनाओं से जुड़े ऐसे 200 से भी अधिक स्थानों का पता लगाया है, जहां आज भी तत्संबंधी स्मारक स्थल विद्यमान हैं, जहां श्रीराम और सीता रुके या रहे थे। वहां के स्मारकों, भित्तिचित्रों, गुफाओं आदि स्थानों के समय-काल की जांच-पड़ताल वैज्ञानिक तरीकों से की। आईये जानते हैं कुछ प्रमुख स्थानों के बारे में…

पहला पड़ाव…

1.केवट प्रसंग : राम को जब वनवास हुआ तो वाल्मीकि रामायण और शोधकर्ताओं के अनुसार वे सबसे पहले तमसा नदी पहुंचे, जो अयोध्या से 20 किमी दूर है। इसके बाद उन्होंने गोमती नदी पार की और प्रयागराज (इलाहाबाद) से 20-22 किलोमीटर दूर वे श्रृंगवेरपुर पहुंचे, जो निषादराज गुह का राज्य था। यहीं पर गंगा के तट पर उन्होंने केवट से गंगा पार करने को कहा था।

‘सिंगरौर’ : इलाहाबाद से 22 मील (लगभग 35.2 किमी) उत्तर-पश्चिम की ओर स्थित ‘सिंगरौर’ नामक स्थान ही प्राचीन समय में श्रृंगवेरपुर नाम से परिज्ञात था। रामायण में इस नगर का उल्लेख आता है। यह नगर गंगा घाटी के तट पर स्थित था। महाभारत में इसे ‘तीर्थस्थल’ कहा गया है।

‘कुरई’ : इलाहाबाद जिले में ही कुरई नामक एक स्थान है, जो सिंगरौर के निकट गंगा नदी के तट पर स्थित है। गंगा के उस पार सिंगरौर तो इस पार कुरई। सिंगरौर में गंगा पार करने के पश्चात श्रीराम इसी स्थान पर उतरे थे।

इस ग्राम में एक छोटा-सा मंदिर है, जो स्थानीय लोकश्रुति के अनुसार उसी स्थान पर है, जहां गंगा को पार करने के पश्चात राम, लक्ष्मण और सीताजी ने कुछ देर विश्राम किया था।

दूसरा पड़ाव…

2.चित्रकूट के घाट पर : कुरई से आगे चलकर श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण और पत्नी सहित प्रयाग पहुंचे थे। प्रयाग को वर्तमान में इलाहाबाद कहा जाता है। यहां गंगा-जमुना का संगम स्थल है। हिन्दुओं का यह सबसे बड़ा तीर्थस्थान है। प्रभु श्रीराम ने संगम के समीप यमुना नदी को पार किया और फिर पहुंच गए चित्रकूट। यहां स्थित स्मारकों में शामिल हैं, वाल्मीकि आश्रम, मांडव्य आश्रम, भरतकूप इत्यादि।

चित्रकूट वह स्थान है, जहां राम को मनाने के लिए भरत अपनी सेना के साथ पहुंचते हैं। तब जब दशरथ का देहांत हो जाता है। भारत यहां से राम की चरण पादुका ले जाकर उनकी चरण पादुका रखकर राज्य करते हैं।

तीसरा पड़ाव…

3.अत्रि ऋषि का आश्रम : चित्रकूट के पास ही सतना (मध्यप्रदेश) स्थित अत्रि ऋषि का आश्रम था। महर्षि अत्रि चित्रकूट के तपोवन में रहा करते थे। वहां श्रीराम ने कुछ वक्त बिताया। अत्रि ऋषि ऋग्वेद के पंचम मंडल के द्रष्टा हैं। अत्रि ऋषि की पत्नी का नाम है अनुसूइया, जो दक्ष प्रजापति की चौबीस कन्याओं में से एक थी।

अत्रि पत्नी अनुसूइया के तपोबल से ही भगीरथी गंगा की एक पवित्र धारा चित्रकूट में प्रविष्ट हुई और ‘मंदाकिनी’ नाम से प्रसिद्ध हुई। ब्रह्मा, विष्णु व महेश ने अनसूइया के सतीत्व की परीक्षा ली थी, लेकिन तीनों को उन्होंने अपने तपोबल से बालक बना दिया था। तब तीनों देवियों की प्रार्थना के बाद ही तीनों देवता बाल रूप से मुक्त हो पाए थे। फिर तीनों देवताओं के वरदान से उन्हें एक पुत्र मिला, जो थे महायोगी ‘दत्तात्रेय’। अत्रि ऋषि के दूसरे पुत्र का नाम था ‘दुर्वासा’। दुर्वासा ऋषि को कौन नहीं जानता?

अत्रि के आश्रम के आस-पास राक्षसों का समूह रहता था। अत्रि, उनके भक्तगण व माता अनुसूइया उन राक्षसों से भयभीत रहते थे। भगवान श्रीराम ने उन राक्षसों का वध किया। वाल्मीकि रामायण के अयोध्या कांड में इसका वर्णन मिलता है।

प्रातःकाल जब राम आश्रम से विदा होने लगे तो अत्रि ऋषि उन्हें विदा करते हुए बोले, ‘हे राघव! इन वनों में भयंकर राक्षस तथा सर्प निवास करते हैं, जो मनुष्यों को नाना प्रकार के कष्ट देते हैं। इनके कारण अनेक तपस्वियों को असमय ही काल का ग्रास बनना पड़ा है। मैं चाहता हूं, तुम इनका विनाश करके तपस्वियों की रक्षा करो।’

राम ने महर्षि की आज्ञा को शिरोधार्य कर उपद्रवी राक्षसों तथा मनुष्य का प्राणांत करने वाले भयानक सर्पों को नष्ट करने का वचन देकर सीता तथा लक्ष्मण के साथ आगे के लिए प्रस्थान किया।

चित्रकूट की मंदाकिनी, गुप्त गोदावरी, छोटी पहाड़ियां, कंदराओं आदि से निकलकर भगवान राम पहुंच गए घने जंगलों में…

चौथा पड़ाव,

4. दंडकारण्य : अत्रि ऋषि के आश्रम में कुछ दिन रुकने के बाद श्रीराम ने मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के घने जंगलों को अपना आश्रय स्थल बनाया। यह जंगल क्षेत्र था दंडकारण्य। ‘अत्रि-आश्रम’ से ‘दंडकारण्य’ आरंभ हो जाता है। छत्तीसगढ़ के कुछ हिस्सों पर राम के नाना और कुछ पर बाणासुर का राज्य था। यहां के नदियों, पहाड़ों, सरोवरों एवं गुफाओं में राम के रहने के सबूतों की भरमार है। यहीं पर राम ने अपना वनवास काटा था। यहां वे लगभग 10 वर्षों से भी अधिक समय तक रहे थे।

‘अत्रि-आश्रम’ से भगवान राम मध्यप्रदेश के सतना पहुंचे, जहां ‘रामवन’ हैं। मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ क्षेत्रों में नर्मदा व महानदी नदियों के किनारे 10 वर्षों तक उन्होंने कई ऋषि आश्रमों का भ्रमण किया। दंडकारण्य क्षेत्र तथा सतना के आगे वे विराध सरभंग एवं सुतीक्ष्ण मुनि आश्रमों में गए। बाद में सतीक्ष्ण आश्रम वापस आए। पन्ना, रायपुर, बस्तर और जगदलपुर में कई स्मारक विद्यमान हैं। उदाहरणत: मांडव्य आश्रम, श्रृंगी आश्रम, राम-लक्ष्मण मंदिर आदि।

राम वहां से आधुनिक जबलपुर, शहडोल (अमरकंटक) गए होंगे। शहडोल से पूर्वोत्तर की ओर सरगुजा क्षेत्र है। यहां एक पर्वत का नाम ‘रामगढ़’ है। 30 फीट की ऊंचाई से एक झरना जिस कुंड में गिरता है, उसे ‘सीता कुंड’ कहा जाता है। यहां वशिष्ठ गुफा है। दो गुफाओं के नाम ‘लक्ष्मण बोंगरा’ और ‘सीता बोंगरा’ हैं। शहडोल से दक्षिण-पूर्व की ओर बिलासपुर के आसपास छत्तीसगढ़ है।

वर्तमान में करीब 92,300 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैले इस इलाके के पश्चिम में अबूझमाड़ पहाड़ियां तथा पूर्व में इसकी सीमा पर पूर्वी घाट शामिल हैं। दंडकारण्य में छत्तीसगढ़, ओडिशा एवं आंध्रप्रदेश राज्यों के हिस्से शामिल हैं। इसका विस्तार उत्तर से दक्षिण तक करीब 320 किमी तथा पूर्व से पश्चिम तक लगभग 480 किलोमीटर है।

दंडक राक्षस के कारण इसका नाम दंडकारण्य पड़ा। यहां रामायण काल में रावण के सहयोगी बाणासुर का राज्य था। उसका इन्द्रावती, महानदी और पूर्व समुद्र तट, गोइंदारी (गोदावरी) तट तक तथा अलीपुर, पारंदुली, किरंदुली, राजमहेन्द्री, कोयापुर, कोयानार, छिन्दक कोया तक राज्य था। वर्तमान बस्तर की ‘बारसूर’ नामक समृद्ध नगर की नींव बाणासुर ने डाली, जो इन्द्रावती नदी के तट पर था। यहीं पर उसने ग्राम देवी कोयतर मां की बेटी माता माय (खेरमाय) की स्थापना की। बाणासुर द्वारा स्थापित देवी दांत तोना (दंतेवाड़िन) है। यह क्षेत्र आजकल दंतेवाड़ा के नाम से जाना जाता है। यहां वर्तमान में गोंड जाति निवास करती है तथा समूचा दंडकारण्य अब नक्सलवाद की चपेट में है।

इसी दंडकारण्य का ही हिस्सा है आंध्रप्रदेश का एक शहर भद्राचलम। गोदावरी नदी के तट पर बसा यह शहर सीता-रामचंद्र मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। यह मंदिर भद्रगिरि पर्वत पर है। कहा जाता है कि श्रीराम ने अपने वनवास के दौरान कुछ दिन इस भद्रगिरि पर्वत पर ही बिताए थे।

स्थानीय मान्यता के मुताबिक दंडकारण्य के आकाश में ही रावण और जटायु का युद्ध हुआ था और जटायु के कुछ अंग दंडकारण्य में आ गिरे थे। ऐसा माना जाता है कि दुनियाभर में सिर्फ यहीं पर जटायु का एकमात्र मंदिर है।

दंडकारण्य क्षे‍त्र की चर्चा पुराणों में विस्तार से मिलती है। इस क्षेत्र की उत्पत्ति कथा महर्षि अगस्त्य मुनि से जुड़ी हुई है। यहीं पर उनका महाराष्ट्र के नासिक के अलावा एक आश्रम था।

-डॉ. रमानाथ त्रिपाठी ने अपने बहुचर्चित उपन्यास ‘रामगाथा’ में रामायणकालीन दंडकारण्य का विस्तृत उल्लेख किया है।

पांचवां पड़ाव…

‘पंचानां वटानां समाहार इति पंचवटी’।

5. पंचवटी में राम : दण्डकारण्य में मुनियों के आश्रमों में रहने के बाद श्रीराम कई नदियों, तालाबों, पर्वतों और वनों को पार करने के पश्चात नासिक में अगस्त्य मुनि के आश्रम गए। मुनि का आश्रम नासिक के पंचवटी क्षेत्र में था। त्रेतायुग में लक्ष्मण व सीता सहित श्रीरामजी ने वनवास का कुछ समय यहां बिताया।

उस काल में पंचवटी जनस्थान या दंडक वन के अंतर्गत आता था। पंचवटी या नासिक से गोदावरी का उद्गम स्थान त्र्यंम्बकेश्वर लगभग 20 मील (लगभग 32 किमी) दूर है। वर्तमान में पंचवटी भारत के महाराष्ट्र के नासिक में गोदावरी नदी के किनारे स्थित विख्यात धार्मिक तीर्थस्थान है।

अगस्त्य मुनि ने श्रीराम को अग्निशाला में बनाए गए शस्त्र भेंट किए। नासिक में श्रीराम पंचवटी में रहे और गोदावरी के तट पर स्नान-ध्यान किया। नासिक में गोदावरी के तट पर पांच वृक्षों का स्थान पंचवटी कहा जाता है। 

 ये पांच वृक्ष थे- पीपल, बरगद, आंवला, बेल तथा अशोक वट। यहीं पर सीता माता की गुफा के पास पांच प्राचीन वृक्ष हैं जिन्हें पंचवट के नाम से जाना जाता है। माना जाता है कि इन वृक्षों को राम-सीमा और लक्ष्मण ने अपने हाथों से लगाया था।

यहीं पर लक्ष्मण ने शूर्पणखा की नाक काटी थी। राम-लक्ष्मण ने खर व दूषण के साथ युद्ध किया था। यहां पर मारीच वध स्थल का स्मारक भी अस्तित्व में है। नासिक क्षेत्र स्मारकों से भरा पड़ा है, जैसे कि सीता सरोवर, राम कुंड, त्र्यम्बकेश्वर आदि। यहां श्रीराम का बनाया हुआ एक मंदिर खंडहर रूप में विद्यमान है।

मरीच का वध पंचवटी के निकट ही मृगव्याधेश्वर में हुआ था। गिद्धराज जटायु से श्रीराम की मैत्री भी यहीं हुई थी। वाल्मीकि रामायण, अरण्यकांड में पंचवटी का मनोहर वर्णन मिलता है।

छठा पड़ाव..

6.सीताहरण का स्थान ‘सर्वतीर्थ’ : नासिक क्षेत्र में शूर्पणखा, मारीच और खर व दूषण के वध के बाद ही रावण ने सीता का हरण किया और जटायु का भी वध किया जिसकी स्मृति नासिक से 56 किमी दूर ताकेड गांव में ‘सर्वतीर्थ’ नामक स्थान पर आज भी संरक्षित है।

जटायु की मृत्यु सर्वतीर्थ नाम के स्थान पर हुई, जो नासिक जिले के इगतपुरी तहसील के ताकेड गांव में मौजूद है। इस स्थान को सर्वतीर्थ इसलिए कहा गया, क्योंकि यहीं पर मरणासन्न जटायु ने सीता माता के बारे में बताया। रामजी ने यहां जटायु का अंतिम संस्कार करके पिता और जटायु का श्राद्ध-तर्पण किया था। इसी तीर्थ पर लक्ष्मण रेखा थी।

पर्णशाला : पर्णशाला आंध्रप्रदेश में खम्माम जिले के भद्राचलम में स्थित है। रामालय से लगभग 1 घंटे की दूरी पर स्थित पर्णशाला को ‘पनशाला’ या ‘पनसाला’ भी कहते हैं। हिन्दुओं के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से यह एक है। पर्णशाला गोदावरी नदी के तट पर स्थित है। मान्यता है कि यही वह स्थान है, जहां से सीताजी का हरण हुआ था। हालांकि कुछ मानते हैं कि इस स्थान पर रावण ने अपना विमान उतारा था।

इस स्थल से ही रावण ने सीता को पुष्पक विमान में बिठाया था यानी सीताजी ने धरती यहां छोड़ी थी। इसी से वास्तविक हरण का स्थल यह माना जाता है। यहां पर राम-सीता का प्राचीन मंदिर है।

सातवां पड़ाव....

7.सीता की खोज : सर्वतीर्थ जहां जटायु का वध हुआ था, वह स्थान सीता की खोज का प्रथम स्थान था। उसके बाद श्रीराम-लक्ष्मण तुंगभद्रा तथा कावेरी नदियों के क्षेत्र में पहुंच गए। तुंगभद्रा एवं कावेरी नदी क्षेत्रों के अनेक स्थलों पर वे सीता की खोज में गए।

आठवां पड़ाव…

8.शबरी का आश्रम : तुंगभद्रा और कावेरी नदी को पार करते हुए राम और लक्ष्‍मण चले सीता की खोज में। जटायु और कबंध से मिलने के पश्‍चात वे ऋष्यमूक पर्वत पहुंचे। रास्ते में वे पम्पा नदी के पास शबरी आश्रम भी गए, जो आजकल केरल में स्थित है।

शबरी जाति से भीलनी थीं और उनका नाम था श्रमणा।

पम्पा नदी भारत के केरल राज्य की तीसरी सबसे बड़ी नदी है। इसे ‘पम्बा’ नाम से भी जाना जाता है। ‘पम्पा’ तुंगभद्रा नदी का पुराना नाम है। श्रावणकौर रजवाड़े की सबसे लंबी नदी है। इसी नदी के किनारे पर हम्पी बसा हुआ है। यह स्थान बेर के वृक्षों के लिए आज भी प्रसिद्ध है। पौराणिक ग्रंथ ‘रामायण’ में भी हम्पी का उल्लेख वानर राज्य किष्किंधा की राजधानी के तौर पर किया गया है।

केरल का प्रसिद्ध ‘सबरिमलय मंदिर’ तीर्थ इसी नदी के तट पर स्थित है।

सबरिमलय मंदिर’ तीर्थ इसी नदी के तट पर स्थित है।

नौवां पड़ाव…

9.हनुमान से भेंट : मलय पर्वत और चंदन वनों को पार करते हुए वे ऋष्यमूक पर्वत की ओर बढ़े। यहां उन्होंने हनुमान और सुग्रीव से भेंट की, सीता के आभूषणों को देखा और श्रीराम ने बाली का वध किया।

ऋष्यमूक पर्वत वाल्मीकि रामायण में वर्णित वानरों की राजधानी किष्किंधा के निकट स्थित था। इसी पर्वत पर श्रीराम की हनुमान से भेंट हुई थी। बाद में हनुमान ने राम और सुग्रीव की भेंट करवाई, जो एक अटूट मित्रता बन गई। जब महाबली बाली अपने भाई सुग्रीव को मारकर किष्किंधा से भागा तो वह ऋष्यमूक पर्वत पर ही आकर छिपकर रहने लगा था।

ऋष्यमूक पर्वत तथा किष्किंधा नगर कर्नाटक के हम्पी, जिला बेल्लारी में स्थित है। विरुपाक्ष मंदिर के पास से ऋष्यमूक पर्वत तक के लिए मार्ग जाता है। यहां तुंगभद्रा नदी (पम्पा) धनुष के आकार में बहती है। तुंगभद्रा नदी में पौराणिक चक्रतीर्थ माना गया है। पास ही पहाड़ी के नीचे श्रीराम मंदिर है। पास की पहाड़ी को ‘मतंग पर्वत’ माना जाता है। इसी पर्वत पर मतंग ऋषि का आश्रम था।

दसवां पड़ाव..

10.कोडीकरई : हनुमान और सुग्रीव से मिलने के बाद श्रीराम ने अपनी सेना का गठन किया और लंका की ओर चल पड़े। मलय पर्वत, चंदन वन, अनेक नदियों, झरनों तथा वन-वाटिकाओं को पार करके राम और उनकी सेना ने समुद्र की ओर प्रस्थान किया। श्रीराम ने पहले अपनी सेना को कोडीकरई में एकत्रित किया।

तमिलनाडु की एक लंबी तटरेखा है, जो लगभग 1,000 किमी तक विस्‍तारित है। कोडीकरई समुद्र तट वेलांकनी के दक्षिण में स्थित है, जो पूर्व में बंगाल की खाड़ी और दक्षिण में पाल्‍क स्‍ट्रेट से घिरा हुआ है।

लेकिन राम की सेना ने उस स्थान के सर्वेक्षण के बाद जाना कि यहां से समुद्र को पार नहीं किया जा सकता और यह स्थान पुल बनाने के लिए उचित भी नहीं है, तब श्रीराम की सेना ने रामेश्वरम की ओर कूच किया।

ग्यारहवां पड़ाव…

11.रामेश्‍वरम : रामेश्‍वरम समुद्र तट एक शांत समुद्र तट है और यहां का छिछला पानी तैरने और सन बेदिंग के लिए आदर्श है। रामेश्‍वरम प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ केंद्र है। महाकाव्‍य रामायण के अनुसार भगवान श्रीराम ने लंका पर चढ़ाई करने के पहले यहां भगवान शिव की पूजा की थी। रामेश्वरम का शिवलिंग श्रीराम द्वारा स्थापित शिवलिंग है।

बारहवां पड़ाव…

12.धनुषकोडी : वाल्मीकि के अनुसार तीन दिन की खोजबीन के बाद श्रीराम ने रामेश्वरम के आगे समुद्र में वह स्थान ढूंढ़ निकाला, जहां से आसानी से श्रीलंका पहुंचा जा सकता हो। उन्होंने नल और नील की मदद से उक्त स्थान से लंका तक का पुनर्निर्माण करने का फैसला लिया।

छेदुकराई तथा रामेश्वरम के इर्द-गिर्द इस घटना से संबंधित अनेक स्मृतिचिह्न अभी भी मौजूद हैं। नाविक रामेश्वरम में धनुषकोडी नामक स्थान से यात्रियों को रामसेतु के अवशेषों को दिखाने ले जाते हैं।

धनुषकोडी भारत के तमिलनाडु राज्‍य के पूर्वी तट पर रामेश्वरम द्वीप के दक्षिणी किनारे पर स्थित एक गांव है। धनुषकोडी पंबन के दक्षिण-पूर्व में स्थित है। धनुषकोडी श्रीलंका में तलैमन्‍नार से करीब 18 मील पश्‍चिम में है।

इसका नाम धनुषकोडी इसलिए है कि यहां से श्रीलंका तक वानर सेना के माध्यम से नल और नील ने जो पुल (रामसेतु) बनाया था उसका आकार मार्ग धनुष के समान ही है। इन पूरे इलाकों को मन्नार समुद्री क्षेत्र के अंतर्गत माना जाता है। धनुषकोडी ही भारत और श्रीलंका के बीच एकमात्र स्‍थलीय सीमा है, जहां समुद्र नदी की गहराई जितना है जिसमें कहीं-कहीं भूमि नजर आती है।

दरअसल, यहां एक पुल डूबा पड़ा है। 1860 में इसकी स्पष्ट पहचान हुई और इसे हटाने के कई प्रयास किए गए। अंग्रेज इसे एडम ब्रिज कहने लगे तो स्थानीय लोगों में भी यह नाम प्रचलित हो गया। अंग्रेजों ने कभी इस पुल को क्षतिग्रस्त नहीं किया लेकिन आजाद भारत में पहले रेल ट्रैक निर्माण के चक्कर में बाद में बंदरगाह बनाने के चलते इस पुल को क्षतिग्रस्त किया गया।

30 मील लंबा और सवा मील चौड़ा यह रामसेतु 5 से 30 फुट तक पानी में डूबा है। श्रीलंका सरकार इस डूबे हुए पुल (पम्बन से मन्नार) के ऊपर भू-मार्ग का निर्माण कराना चाहती है जबकि भारत सरकार नौवहन हेतु उसे तोड़ना चाहती है। इस कार्य को भारत सरकार ने सेतुसमुद्रम प्रोजेक्ट का नाम दिया है। श्रीलंका के ऊर्जा मंत्री श्रीजयसूर्या ने इस डूबे हुए रामसेतु पर भारत और श्रीलंका के बीच भू-मार्ग का निर्माण कराने का प्रस्ताव रखा था।

तेरहवां पड़ाव…

13.’नुवारा एलिया’ पर्वत श्रृंखला : वाल्मीकिय-रामायण अनुसार श्रीलंका के मध्य में रावण का महल था। ‘नुवारा एलिया’ पहाड़ियों से लगभग 90 किलोमीटर दूर बांद्रवेला की तरफ मध्य लंका की ऊंची पहाड़ियों के बीचोबीच सुरंगों तथा गुफाओं के भंवरजाल मिलते हैं। यहां ऐसे कई पुरातात्विक अवशेष मिलते हैं जिनकी कार्बन डेटिंग से इनका काल निकाला गया है।

श्रीलंका में नुआरा एलिया पहाड़ियों के आसपास स्थित रावण फॉल, रावण गुफाएं, अशोक वाटिका, खंडहर हो चुके विभीषण के महल आदि की पुरातात्विक जांच से इनके रामायण काल के होने की पुष्टि होती है। आजकल भी इन स्थानों की भौगोलिक विशेषताएं, जीव, वनस्पति तथा स्मारक आदि बिल्कुल वैसे ही हैं जैसे कि रामायण में वर्णित किए गए हैं।

श्रीवाल्मीकि ने रामायण की संरचना श्रीराम के राज्याभिषेक के बाद वर्ष 5075 ईपू के आसपास की होगी (1/4/1 -2)। श्रुति स्मृति की प्रथा के माध्यम से पीढ़ी-दर-पीढ़ी परिचलित रहने के बाद वर्ष 1000 ईपू के आसपास इसको लिखित रूप दिया गया होगा। इस निष्कर्ष के बहुत से प्रमाण मिलते हैं। रामायण की कहानी के संदर्भ निम्नलिखित रूप में उपलब्ध हैं-

* कौटिल्य का अर्थशास्त्र (चौथी शताब्दी ईपू)
* बौ‍द्ध साहित्य में दशरथ जातक (तीसरी शताब्दी ईपू)
* कौशाम्बी में खुदाई में मिलीं टेराकोटा (पक्की मिट्‍टी) की मूर्तियां (दूसरी शताब्दी ईपू)
* नागार्जुनकोंडा (आंध्रप्रदेश) में खुदाई में मिले स्टोन पैनल (तीसरी शताब्दी)
* नचार खेड़ा (हरियाणा) में मिले टेराकोटा पैनल (चौथी शताब्दी)
* श्रीलंका के प्रसिद्ध कवि कुमार दास की काव्य रचना ‘जानकी हरण’ (सातवीं शताब्दी)

संदर्भ ग्रंथ :

1. वाल्मीकि रामायण
2. वैदिक युग एवं रामायण काल की ऐतिहासिकता (सरोज बाला, अशोक भटनागर, कुलभूषण मिश्र)

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