निर्गुण सन्तों में सन्त नामदेव का नाम अग्रणी है. उनका जन्म 26 अक्तूबर, 1270 ई. को महाराष्ट्र के नरसी बामनी नामक गांव में हुआ था. इनके पिता दामाशेट जी और माता गोणाई जी थीं. कुछ लोग इनका जन्मस्थान पण्ढरपुर मानते हैं. इनके पिताजी दर्जी का काम करते थे, जो आगे चलकर पण्ढरपुर आ गये और विट्ठल के उपासक हो गये. वे विट्ठल के श्रीविग्रह की भोग, पूजा, आरती आदि बड़े नियम से करते थे. जब नामदेव केवल पांच वर्ष के थे, तो इनके पिता को किसी काम से बाहर जाना पड़ा. उन्होंने विट्ठल के विग्रह को दूध का भोग लगाने का काम नामदेव को सौंप दिया. अबोध नामदेव को पता नहीं था कि मूर्ति दूध नहीं पीती, उसे तो भावात्मक भोग ही लगाया जाता है.
नामदेव ने मूर्ति के सामने दूध रखा, जब बहुत देर तक दूध वैसा ही रखा रहा, तो नामदेव हठ ठानकर बैठ गये. बोले – जब तक तुम दूध नहीं पियोगे, मैं हटूंगा नहीं. जब तुम पिताजी के हाथ से रोज पीते हो, तो आज क्या बात है ? कहते हैं कि बालक की हठ देखकर विट्ठल भगवान प्रगट हुए और दूध पी लिया. बड़े होने पर इनका विवाह राजाबाई से हुआ. उससे उन्हें चार पुत्र तथा एक पुत्री की प्राप्ति हुई. पण्ढरपुर से कुछ दूर स्थित औढिया नागनाथ मन्दिर में रहने वाले विसोबा खेचर को उन्होंने अपना अध्यात्म गुरू बनाया. आगे चलकर सन्त ज्ञानदेव और मुक्ताबाई के सान्निध्य में नामदेव सगुण भक्ति से निर्गुण भक्ति में प्रवृत्त हुए और योग मार्ग के पथिक बने.
ज्ञानदेव से इनका प्रेम इतना प्रगाढ़ हुआ कि वे इन्हें अपने साथ लम्बी तीर्थयात्रा पर काशी, अयोध्या, मारवाड़, तिरुपति, रामेश्वरम आदि के दर्शनार्थ ले गये. एक-एक कर सन्त ज्ञानदेव, उनके दोनों भाई एवं बहिन ने भी समाधि ले ली. इससे नामदेव अकेले हो गये. इस शोक एवं बिछोह में उन्होंने समाधि के अभंगों की रचना की. इसके बाद भ्रमण करते हुए वे पंजाब के भट्टीवाल स्थान पर पहुंचे और वहां जिला गुरदासपुर में ‘घुमान’ नगर बसाया. फिर वहीं मन्दिर बनाकर तप किया और विष्णुस्वामी, परिसा भागवते, जनाबाई, चोखामेला, त्रिलोचन आदि को नाम दीक्षा दी. सन्त नामदेव मराठी सन्तों में तो सर्वाधिक पूज्य हैं ही, पर उत्तर भारत की सन्त परम्परा के तो वे प्रवर्तक ही माने जाते हैं. मराठी साहित्य में एक विशेष प्रकार के छन्द ‘अभंग’ के जनक वे ही हैं. पंजाब में उनकी ख्याति इतनी अधिक रही कि ‘श्री गुरु ग्रन्थ साहिब’ में उनकी वाणी संकलित है. सन्त कबीर, रविदास, दादू, नानकदेव, मलूकदास आदि की ही तरह निर्गुण के उपासक होने के कारण नामदेव ने अपने काव्य में मूर्ति पूजा, कर्मकाण्ड, जातिभेद, चमत्कार आदि से दूर रहने की बात कही है. इसी प्रकार वे परमात्मा की प्राप्ति के लिए सद्गुरु की कृपा को बहुत महत्त्व देते हैं.
पंजाब के बाद अन्य अनेक स्थानों का भ्रमण करते हुए वे फिर अपने प्रिय स्थान पण्ढरपुर आ गये और वहीं 80 वर्ष की अवस्था में आषाढ़ बदी 13, विक्रमी संवत 1407 (3 जुलाई, 1350 ई.) को उन्होंने समाधि ले ली. वे मानते थे कि आत्मा और परमात्मा में कोई अन्तर नहीं है. परमात्मा द्वारा निर्मित सभी जीवों की सेवा ही मानव का परम धर्म है. इसी से साधक को दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है. सन्त नामदेव द्वारा प्रवर्तित ‘वारकरी पन्थ’ के लाखों उपासक विट्ठल और गोविन्द का नाम स्मरण कर अपने जीवन को धन्य बना रहे हैं.
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