सोमवार, 23 अक्तूबर 2017

"त्रिकूट" और "चित्रकूट" का फर्क

 

   चित्रकूट के घाट पर एक बार भीड़ हुई थी, जब बाबा तुलसीदास चंदन घिस रहे थे और स्वयं भगवान श्री राम अपने हाँथ से तिलक कर रहे थे। एक बार और तब भी खूब भीड़ हुई थी, जब अयोध्या का एक राजकुमार भरत अपने बड़े भाई राम को दल-बल के साथ उसका राजपाट वापस करने आया था। चित्रकूट में कभी भी भीड़ सत्ता कब्जियाने के लिए नही हुई। ये चित्रकूट के पर्वत की संस्कृति है जहां सत्ता मतलब जिम्मेदारी है। जबकि एक और भी पर्वत संस्कृति है, जहां सत्ता भोग विलास की पर्याय है। इसलिए सत्ता के लिए वहां सदैव परिवार के अंदर ही संघर्ष चलता रहा, और वह पर्वत शिखर है त्रिकूट का। नही समझे क्या? समझो "गिरि त्रिकूट ऊपर बसी लंका"
  चित्रकूट पर्वत के सुरम्य और मानवीय गुणों से ओतप्रोत माहौल में सत्ता सुशीलता के साथ त्याग की वस्तु है, जबकि दूर दक्षिण में स्थित दूसरे पर्वत शिखर त्रिकूट की संस्कृति में सत्ता येनकेन प्रकारेण आत्मसात करने की वस्तु है। सत्ता प्राप्ति के दुर्भाव से प्रेरित होकर आज भी कोई चित्रकूट से सत्ता प्राप्ति नही कर सकता। आयोध्या में सत्ता के लिए षड्यंत्र करने वाली ताकते चित्रकूट आते आते प्रायश्चित भाव में आ जाती है।
   आज खुद को राम और चित्रकुटीय संस्कृति का सच्चा साधक और योगी बताने वाले कुछ सत्ता लोलुप लोग यहां भी त्रिकुटीय संस्कृति के बीज रोपना चाह रहे हैं। वे भाई को भाई का दुश्मन बनाने वाली अपनी नफरती सोंच को इसी पर्वत की चोटी से हिंदुस्तान में प्रक्षेपित करना चाह रहे हैं। वह फेल होंगे ठीक वैसे जैसे रावण हुआ था।
    सत्ता के खातिर चित्रकूट में भीड़ जुटाने वालों आपको त्रिकूट की तरफ जाना होगा। क्योंकि वहां भोग है, यहां तो सिर्फ योग है, वहां सोने के महल हैं, यहां तो घास-फूस की झोपड़ी है। लेकिन याद रखना भोग वहां विनाश और अशांति लाता है, जबकि योग यहाँ शांति। सोने के महलों में वहां भाई-भाई के खिलाफ नफरत पैदा करने में हेतु बनता है, तो यहां झोपड़ी दो भाइयों के प्रेम वृद्धि का सेतु।

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