रविवार, 8 अक्तूबर 2017

करवाचौथ स्पेशल: देवी अनुसूया द्वारा "नारी धर्म व्याख्या"

दिब्य बसन भूषन पहिराए। 
जे नित नूतन अमल सुहाए॥
कह रिषिबधू सरस मृदु बानी। 
नारिधर्म कछु ब्याज बखानी॥1॥ 

और उन्हें ऐसे दिव्य वस्त्र और आभूषण पहनाए, जो नित्य-नए निर्मल और सुहावने बने रहते हैं। फिर ऋषि पत्नी उनके बहाने मधुर और कोमल वाणी से स्त्रियों के कुछ धर्म बखान कर कहने लगीं॥1॥


मातु पिता भ्राता हितकारी। 
मितप्रद सब सुनु राजकुमारी॥
अमित दानि भर्ता बयदेही। 
अधम सो नारि जो सेव न तेही॥2॥

हे राजकुमारी! सुनिए- माता, पिता, भाई सभी हित करने वाले हैं, परन्तु ये सब एक सीमा तक ही (सुख) देने वाले हैं, परन्तु हे जानकी! पति तो (मोक्ष रूप) असीम (सुख) देने वाला है। वह स्त्री अधम है, जो ऐसे पति की सेवा नहीं करती॥2॥


धीरज धर्म मित्र अरु नारी। 
आपद काल परिखिअहिं चारी॥
बृद्ध रोगबस जड़ धनहीना। 
अंध बधिर क्रोधी अति दीना॥3॥

धैर्य, धर्म, मित्र और स्त्री- इन चारों की विपत्ति के समय ही परीक्षा होती है। वृद्ध, रोगी, मूर्ख, निर्धन, अंधा, बहरा, क्रोधी और अत्यन्त ही दीन-॥3॥ 


ऐसेहु पति कर किएँ अपमाना। 
नारि पाव जमपुर दुख नाना॥
एकइ धर्म एक ब्रत नेमा। 
कायँ बचन मन पति पद प्रेमा॥4॥

ऐसे भी पति का अपमान करने से स्त्री यमपुर में भाँति-भाँति के दुःख पाती है। शरीर, वचन और मन से पति के चरणों में प्रेम करना स्त्री के लिए, बस यह एक ही धर्म है, एक ही व्रत है और एक ही नियम है॥4॥ 


जग पतिब्रता चारि बिधि अहहीं। 
बेद पुरान संत सब कहहीं॥
उत्तम के अस बस मन माहीं। 
सपनेहुँ आन पुरुष जग नाहीं॥5॥

जगत में चार प्रकार की पतिव्रताएँ हैं। वेद, पुराण और संत सब ऐसा कहते हैं कि उत्तम श्रेणी की पतिव्रता के मन में ऐसा भाव बसा रहता है कि जगत में (मेरे पति को छोड़कर) दूसरा पुरुष स्वप्न में भी नहीं है॥5॥ 


  मध्यम परपति देखइ कैसें। 
भ्राता पिता पुत्र निज जैसें॥
धर्म बिचारि समुझि कुल रहई। 
सो निकिष्ट त्रिय श्रुति अस कहई॥6॥

मध्यम श्रेणी की पतिव्रता पराए पति को कैसे देखती है, जैसे वह अपना सगा भाई, पिता या पुत्र हो (अर्थात समान अवस्था वाले को वह भाई के रूप में देखती है, बड़े को पिता के रूप में और छोटे को पुत्र के रूप में देखती है।) जो धर्म को विचारकर और अपने कुल की मर्यादा समझकर बची रहती है, वह निकृष्ट (निम्न श्रेणी की) स्त्री है, ऐसा वेद कहते हैं॥6॥


बिनु अवसर भय तें रह जोई। 
जानेहु अधम नारि जग सोई॥
पति बंचक परपति रति करई। 
रौरव नरक कल्प सत परई॥7॥

और जो स्त्री मौका न मिलने से या भयवश पतिव्रता बनी रहती है, जगत में उसे अधम स्त्री जानना। पति को धोखा देने वाली जो स्त्री पराए पति से रति करती है, वह तो सौ कल्प तक रौरव नरक में पड़ी रहती है॥7॥ 


छन सुख लागि जनम सत कोटी। 
दुख न समुझ तेहि सम को खोटी॥
बिनु श्रम नारि परम गति लहई। 
पतिब्रत धर्म छाड़ि छल गहई॥8॥

क्षणभर के सुख के लिए जो सौ करोड़ (असंख्य) जन्मों के दुःख को नहीं समझती, उसके समान दुष्टा कौन होगी। जो स्त्री छल छोड़कर पतिव्रत धर्म को ग्रहण करती है, वह बिना ही परिश्रम परम गति को प्राप्त करती है॥8॥ 


 पति प्रतिकूल जनम जहँ जाई। 
बिधवा होइ पाइ तरुनाई॥9॥

किन्तु जो पति के प्रतिकूल चलती है, वह जहाँ भी जाकर जन्म लेती है, वहीं जवानी पाकर (भरी जवानी में) विधवा हो जाती है॥9॥ 


सहज अपावनि नारि 
पति सेवत सुभ गति लहइ।
जसु गावत श्रुति चारि 
अजहुँ तुलसिका हरिहि प्रिय॥ क॥

स्त्री जन्म से ही अपवित्र है, किन्तु पति की सेवा करके वह अनायास ही शुभ गति प्राप्त कर लेती है। (पतिव्रत धर्म के कारण ही) आज भी 'तुलसीजी' भगवान को प्रिय हैं और चारों वेद उनका यश गाते हैं॥ (क)॥ 


सुनु सीता तव नाम सुमिरि 
नारि पतिब्रत करहिं।
तोहि प्रानप्रिय राम कहिउँ 
कथा संसार हित॥ख॥

हे सीता! सुनो, तुम्हारा तो नाम ही ले-लेकर स्त्रियाँ पतिव्रत धर्म का पालन करेंगी। तुम्हें तो श्री रामजी प्राणों के समान प्रिय हैं, यह (पतिव्रत धर्म की) कथा तो मैंने संसार के हित के लिए कही है॥ (ख)॥

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