सोमवार, 30 अप्रैल 2012

हर नेता के दिल में एक बंगारू धड़कता है!

    दिल्ली की सीबीआई अदालत ने कमाल कर दिया। भाजपा के पूर्व अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण को चार साल की सजा दे दी और एक लाख रुपए का जुर्माना लगाया। बंगारू का अपराध क्या था? उन्होंने किसी नकली फर्म से कोई नकली माल रक्षा मंत्रालय को बिकवाने का आश्वासन दिया था और बदले में उन्होंने एक लाख रुपए की ‘भेंट’ स्वीकार की थी। अदालत ने माना कि रिश्वत देने वाली फर्म नकली थी, रिश्वत देने वाला नकली था, बिकने वाला माल नकली था, लेकिन रिश्वत लेने वाला और रिश्वत असली थी। इसलिए जज ने रिश्वत देने वाले को सजा नहीं दी। यह कैसा न्याय, जज ने यह नहीं बताया कि बंगारू ने एक लाख रुपए लेकर बदले में क्या रक्षा मंत्रालय को यह सिफारिश की कि क्या वह उस घटिया माल को खरीद ले? क्या रक्षा मंत्रालय ने सत्ता दल के अध्यक्ष की सिफारिश या दबाव के कारण उस घटिया माल को खरीद लिया? यदि नहीं तो फिर बंगारू लक्ष्मण को दोषी ठहराना और उनको सदाचार का लंबा-चौड़ा उपदेश झाड़ना क्या सचमुच न्याय है?

यह न्याय भी नकली ही मालूम पड़ता है। इससे बढ़कर हास्यास्पद फैसला क्या हो सकता है? इसका अर्थ यह कदापि नहीं, कि जो बंगारू लक्ष्मण ने किया, वह उचित था। वह अनुचित तो था ही और उसकी जो सजा उनको और उनकी पार्टी को मिलनी चाहिए थी, वह उसी समय मिल भी गई थी। अब अदालत द्वारा उनको चार साल की सजा देना और रिश्वत देने का नाटक करने वालों के खिलाफ मुंह नहीं खोलना, कानून की धज्जियां उड़ाना है। जाहिर है कि सीबीआई अदालत का यह फैसला किसी भी अन्य अदालत में औंधे मुंह गिरेगा। इस फैसले से सीबीआई की ‘महान प्रतिष्ठा’ में चार चांद लग गए हैं! बंगारू के फैसले पर देश के सारे नेता हतप्रभ हैं। सबकी बोलती बंद है। कांग्रेस और भाजपा एक दूसरे पर वार जरूर कर रहे हैं, लेकिन लोग चुप क्यों हैं? क्योंकि हर नेता के सीने में एक बंगारू धड़क रहा है। क्या देश में एक भी नेता ऐसा है, जो दावा कर सके कि जो बंगारू ने किया वह वैसा नहीं करता। भारतीय राजनीति का चरित्र् ही ऐसा है कि हर नेता को अपने राजनीतिक जीवन में असंख्य बार बंगारू बनना पड़ता है। सारे नेता यही खैर मना रहे हैं कि वे बंगारू की तरह रंगे हाथ नहीं पकड़े गए। अदालत को गलतफहमी है कि उसने बड़ा तीर मार दिया है।

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