सोमवार, 25 सितंबर 2017

"हरामखोरी" एक विचार कथा

   
हरामखोरी शब्द से हम सभी वाकिफ है। एक तरह से गाली है ये वर्ड। अधिकतर किसी से नाराजगी या गुस्से की स्थिति में ही हम उसके खिलाफ इसका इस्तेमाल करते है। 
  अब गौर से अपने आस-पास देखिए तो पाएंगे कि हरामखोरी एक बड़ी मुकम्मल प्रवृत्ति और विचारधारा बन चुकी है। वो अलग बात है कि इतनी प्रबल और सशक्त विचारधारा की रहनुमाई कोई पार्टी खुल्ले तौर पर नहीं कर रही है। परंतु परोक्ष रूप से इस विचार को प्रोत्साहन देने में कोई पार्टी पीछे नही है।
   कांग्रेस जो देश की सबसे पुरानी पार्टी है। उसके बारे में लोगों में यह आम धारणा है कि इसने आज़ादी के बाद से अब तक हरामखोरी और हरामखोरों के लिए अतुलनीय कार्य किया है। कहा जाता है कि देश की जनता में हरामखोरी जैसे गुण के सर्वतोमुखी विकास के लिए ही उसने नरेगा जैसी खर्चीली योजनाओं को धरातल पर उतारा था। जिसे जनता ने हांथों-हाँथ लिया।

 कहते हैं सिर्फ नरेंद्र भाई ही कांग्रेस के इस आभिनव प्रयोग के मर्म को समझ पाए। उन्होंने देश के अधिकांश हरामखोरों को एक कूट संदेश दिया कि नरेगा में भी आपको कुछ न कुछ तो करना ही पड़ता है, जैसे प्रधान को पटाना और कमीशन बाज़ी का परसेंट तय करना आदि आदि, तब जाके आपके अकाउंट में कुछ रुपया देखने को मिलता है। मैं एक ऐसी योजना लांच करूँगा, जिससे कि आपके अकाउंट में बगैर कुछ किये धरे ही 15 लाख दिख जाएंगे। फिर क्या था, इसी विचारक्रांति नें उन्हें भी देश का शहंशाह बना दिया।
 
 माना जाता है कि देश का अभिजात्य वर्ग पैदाइशी हरामखोर होता है। जैसे कि माल्या और ललित मोदी। ये हरामखोरों के खुल्लमखुल्ला आदर्श महापुरुष देश के गरीब और मेहनतकशों का खरबों रुपया पीकर देश छोङ गए। देेश का एनपीए घाटा अगर आज 9 लाख करोड़ के पार पहुंच गया है तो इसमें इन हरामखोरों की अतुलनीय भूमिका है। अपार खुशी तब होती है, जब हमारी चुनी गई सरकारें भी इस विचारक्रांति में अपना गुप्त सहयोग देती हैं।
देश की रीढ़ किसान में भी ये पार्टियां इस बीज का रोपण करने के लिए उनका कर्ज़ माफ करती हैं। बस अब तो सिर्फ उस दिन का सुशील अवस्थी बेशब्री से इंतज़ार कर रहा है, जब इस विचारक्रांति की संवाहक बनने के लिए कोई पार्टी अपना नाम रखे और खुले तौर पर काम भी करती दिखे। जैसे भारतीय हरामखोर पार्टी, दल, मंच, महासंघ आदि आदि।



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