म्यांमार में हो रहे नरसंहार से रोहिंग्या मुसलमानों की स्थिति दयनीय के साथ-साथ जटिल भी हो गई है. अपने देश वे जा नहीं सकते, जहां वे सुरक्षित रह सकते हैं वहां से उन्हें निकालने की तैयारी हो रही है, और जो उन्हें आने दे रहा है उसकी क्षमता सीमित है. उनकी हालत ‘न ज़मीं अपनी न आसमां अपना’ वाली है. ऐसे में उनके प्रति सहानुभूति रखने वाला व्यक्ति अच्छी कल्पना से ज़्यादा क्या ही कर सकता है!
बौद्ध धर्म गुरु दलाई लामा ने यही किया. कुछ दिन पहले जब उनसे रोहिंग्या मुद्दे पर सवाल किया गया तो उन्होंने कहा कि अगर बुद्ध होते तो निश्चित ही रोहिंग्या मुसलमानों की मदद करते. आगे उनका कहना था कि जो लोग रोहिंग्याओं को सता रहे हैं उन्हें याद रखना चाहिए ऐसे हालात में बुद्ध निश्चित ही उन कमज़ोर मुसलमानों की मदद करते.
वैसे तो म्यांमार समेत अन्य देशों के पास रोहिंग्या मुद्दे पर दलाई लामा की बुद्ध वाली बात से आंखें फेरने के कई ‘जायज़ बहाने’ हैं, लेकिन बुद्ध अपने आप में ऐसा विचार हैं जिससे आंखें तो फेरी जा सकती हैं, लेकिन मन नहीं. दलाई लामा का यह कहना कि ‘बुद्ध निश्चित ही मदद करते’, उनके जीवन से जुड़ी एक बेहद अहम घटना की याद दिलाता है. यह तब की बात है जब बुद्ध, बुद्ध नहीं थे. उस समय वे सिद्धार्थ थे. यह कम चर्चित घटना बुद्ध के गृह त्याग को लेकर चली आ रही कहानी पर भी सवाल उठाती है, जिसके मुताबिक़ ज्ञान प्राप्ति के लिए राजकुमार सिद्धार्थ आधी रात को सोती पत्नी और पुत्र को छोड़कर चले गए थे.
भारत में बुद्ध और उनके विचारों के विषय में जिन लोगों ने काफ़ी अध्ययन किया उनमें ओशो, राहुल सांकृत्यायन और डॉ बीआर अंबेडकर प्रमुख नाम माने जाते हैं. डॉ अंबेडकर द्वारा लिखे गए ग्रंथ ‘भगवान और उनका धम्म’ में जिक्र है कि कैसे रोहिणी नदी के पानी के उपयोग को लेकर शाक्य और कोलिय राज्य में युद्ध की स्थितियां बन गईं और उस संभावित हिंसा को टालने के प्रयास के चलते बुद्ध को अपना घर तक त्यागना पड़ा.
‘भगवान और उनका धम्म’ में यह वाकया कुछ यूं दिया गया है. शाक्यों के राज्य के पड़ोस में कोलियों का राज्य था. रोहिणी नदी इन दोनों राज्यों को बांटते हुए बहती थी. खेती के लिए दोनों राज्य नदी के पानी का इस्तेमाल करते थे. लेकिन इस पर आए दिन विवाद होता रहता था और जो अक्सर हिंसक हो जाता था. राजकुमार सिद्धार्थ जब 28 साल के थे तो नदी के पानी को लेकर शाक्यों और कोलियों के बीच ऐसा ही एक विवाद हुआ और इसके चलते दोनों पक्षों के कुछ लोग घायल हो गए. इस बार दोनों पक्षों ने सोचा कि इस विवाद को हमेशा के लिए ख़त्म कर दिया जाना चाहिए. उनके सामने इसका सिर्फ एक जरिया था - युद्ध.
उस समय शाक्यों का अपना संघ होता था. सिद्धार्थ इस संघ के सदस्य थे. नई परिस्थितियों के बीच शाक्यों के सेनापति ने युद्ध के सवाल पर चर्चा करने के लिए संघ का एक अधिवेशन बुलाया. यहां उसने सदस्यों से कहा, ‘हमारे लोगों पर कोलियों ने आक्रमण किया. इसलिए हमें पीछे हटना पड़ा. कोलियों ने इससे पहले भी अनेक बार ऐसी आक्रामक कार्रवाइयां की हैं. हमने अब तक उन्हें सहन किया है, लेकिन ऐसा हमेशा नहीं चल सकता. इसे रोका जाना चाहिए और इसे रोकने का एक ही रास्ता है कि कोलियों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की जाए.’
युद्ध में क्या होता है, यह वहां मौजूद सभी व्यक्ति जानते थे. इसके बावजूद ज्यादातर लोग इसके पक्ष में थे. वहीं जो युद्ध के विरुद्ध थे वे सेनापति के सामने अपनी बात रखने का साहस नहीं जुटा पाए. तभी राजकुमार सिद्धार्थ गौतम उठे. उन्होंने कहा, ‘मैं इस प्रस्ताव का विरोध करता हूं. युद्ध से किसी प्रश्न का समाधान नहीं होता. इससे हमारे उद्देश्य की पूर्ति नहीं होगी.’ सिद्धार्थ का कहना था, ‘किसी की हत्या करने वाले को कोई दूसरा हत्या करने वाला मिल ही जाता है. जो किसी को जीतता है उसे कोई दूसरा जीतने वाला मिल ही जाता है. जो आदमी किसी को लूटता है उसे कोई और लूटने वाला मिल ही जाता है.’ सिद्धार्थ ने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा कि शाक्यों को युद्ध को लेकर जल्दबाज़ी नहीं करनी चाहिए. उन्होंने पूरी निष्पक्षता के साथ कहा कि पहले इस बात की जांच हो कि जो भी हिंसा हुई उसमें वास्तव में दोषी कौन था. उन्होंने आगे कहा, ‘मैंने सुना है कि हमारे आदमी भी आक्रामक रहे हैं. अगर ऐसा है तो साफ़ तौर पर हम भी निर्दोष नहीं हैं.’
मामले की संवेदनशीलता को देखते हुए सिद्धार्थ ने एक प्रस्ताव रखा. उन्होंने कहा कि घटना की जांच के लिए पांच सदस्यीय समिति बनाई जाए जिसमें दो शाक्य और दो कोलिय मिलकर पांचवें सदस्य को चुनें और फिर ये सभी मिलकर झगड़े का समाधान करें. सिद्धार्थ के इस प्रस्ताव का समर्थन तो हुआ लेकिन सेनापति युद्ध पर उतारू था. इसलिए प्रस्ताव को मतदान के लिए रखा गया.
सेनापति का विरोध सफल रहा. प्रस्ताव अमान्य हो गया. इसके बाद सेनापति ने अपने युद्ध के प्रस्ताव पर मत मांगे. सिद्धार्थ ने फिर इसका विरोध किया. इस पर सेनापति ने सिद्धार्थ को क्षत्रिय धर्म याद दिलाते हुए कहा कि युद्ध में अपना-पराया नहीं होता और राज्य के हित के लिए सगे भाइयों से भी लड़ना पड़ता है. सिद्धार्थ ने जवाब देते हुए कहा, ‘जहां तक मैं समझता हूं, धर्म तो इस बात को मानने में है कि वैर से वैर कभी शांत नहीं होता. यह केवल अवैर (यानी प्रेम) से ही शांत हो सकता है.’ अब सेनापति का सब्र टूट गया. सिद्धार्थ से दार्शनिक शास्त्रार्थ में उलझने के बजाय उसने सीधे मत की मांग की. उसका प्रस्ताव भारी बहुमत से पारित हो गया.
अगले दिन युद्ध में शामिल होने के लिए सेना में भर्ती को लेकर फिर बैठक बुलाई गई. इसमें प्रस्ताव रखा गया कि 20 से 50 वर्ष के प्रत्येक शाक्य को कोलियों के विरुद्ध युद्ध करने के लिए सेना में भर्ती होना होगा. सभा में सिद्धार्थ के प्रस्ताव को स्वीकार करने वाले अल्पमत सदस्य भी मौजूद थे. बहुमत का विरोध करने का परिणाम जानने के चलते उनमें से किसी में कुछ कहने का साहस नहीं बचा. समर्थकों को मौन देखकर सिद्धार्थ एकबार फिर खड़े हुए. उन्होंने कहा कि न तो वे सेना में भर्ती होंगे और न ही कोलियों से युद्ध करेंगे.
सेनापति ने सिद्धार्थ से संघ का सदस्य बनते समय ली शपथ याद करने की बात कहते हुए कहा कि अगर उन्होंने इसका पालन नहीं किया तो वे सार्वजनिक निंदा के पात्र बनेंगे. इस पर सिद्धार्थ ने उत्तर दिया, ‘हां, मैंने अपने तन, मन और धन से शाक्यों के हितों की रक्षा करने का वचन दिया है. लेकिन मैं नहीं समझता कि यह युद्ध शाक्यों के हित में है. शाक्यों के हित की अपेक्षा सार्वजनिक निंदा का मेरे लिए कोई मूल्य नहीं.’
अब सेनापति ने सिद्धार्थ को सीधे धमकी दी कि अगर उन्होंने संघ के पारित प्रस्ताव को नहीं माना तो उनके परिवार का बहिष्कार और उनके खेतों को ज़ब्त भी किया जा सकता है. सिद्धार्थ को युद्ध का विरोध करते ही रहना था इसलिए वे समझ गए थे कि परिणाम क्या होने वाला है. अब उनके सामने तीन विकल्प थे. एक, युद्ध करें. दो, मृत्युदंड या देश निकाला स्वीकार करें. तीन, परिवार का सामाजिक बहिष्कार स्वीकार करें. पहला और तीसरा उन्हें स्वीकार नहीं था सो उन्होंने कहा कि उन्हें मृत्युदंड (फांसी) या देश निकाला में से जो भी मिले, स्वीकार होगा. लेकिन कोसलराज राज्य के प्रभाव के चलते सिद्धार्थ को इन दोनों विकल्पों में से कुछ भी देना संभव नहीं था.
इसलिए इस समस्या के समाधान के रूप में सिद्धार्थ ने कहा कि वे परिव्राजक (भ्रमण करनेवाला संन्यासी) बन जाएंगे. उनका तर्क था कि यह भी एक तरह का ‘देश निकाला’ ही है. उन्होंने वचन दिया कि वे इसके लिए अपने माता-पिता से भी अनुमति ले लेंगे. हिंसा को किसी भी क़ीमत पर स्वीकार नहीं करने वाले उस 28 साल के ‘विद्रोही’ ने तब घोषणा की, ‘मैं वचन देता हूं कि अनुमति मिले या ना मिले, मैं तुरंत यह देश छोड़ दूंगा.’ इस तरह सिद्धार्थ ने देश निकाला स्वीकार किया और इसी से उनके गृह त्याग का आधार तैयार हुआ.
इस पूरे प्रसंग में म्यांमार के बौद्धों और शांति का नोबेल पुरस्कार जीत चुकीं आंग सान सू की के लिए कई सबक़ हो सकते हैं. जैसे कि सिद्धार्थ शाक्य संघ के सदस्य थे, इसके बावजूद वे अहिंसा के प्रति संवेदनशील और न्याय के प्रति विवेकशील बने रहे. इसके साथ ही निर्दोष रोहिंग्या मुसलमानों के ख़िलाफ़ हो रही हिंसा पर बौद्ध बहुमत वाले म्यांमार के लिए सिद्धार्थ गौतम की यह बात कितनी सटीक बैठती है कि निर्दोष तो उनके अपने समुदाय से संबंधित शाक्य लोग भी नहीं थे. म्यांमार में तो साफ़ दिख रहा है कि किसकी तरफ़ से हिंसा ज़्यादा है.
वैसे बात को थोड़ा आगे बढ़ाया जाए तो भारत भी इस पर ग़ौर कर सकता है. बुद्ध के जन्मस्थान के रूप में वह अनगिनत बार दुनिया को शांति का संदेश दे चुका है. आगे भी देगा. अब तो म्यांमार के हिंदू भी भारत से उम्मीद लगा रहे हैं.
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