बुधवार, 20 सितंबर 2017

सत्ता ही अब भाजपा का आदर्श, सिद्धांत, लक्ष्य और ईमान है

   
   
     ‘लोकतंत्र और संसद कोई रोडवेज बस की सीट नहीं है, जिसने रूमाल रख दिया, उसकी हो जाएगी.’ 28 मई, 1996 को लोक सभा में यह बात तत्कालीन वाजपेयी सरकार में संसदीय कार्य मंत्री प्रमोद महाजन ने कही थी. हालांकि इसके दो साल, 10 महीने बाद (17 अप्रैल, 1999) भाजपा को एक ऐसे शख्स की वजह से केंद्र की सत्ता छोड़नी पड़ी जो दूसरी ‘बस’ में बैठा हुआ था. वे ओडिशा के कोरापुट से कांग्रेसी सांसद और तत्कालीन मुख्यमंत्री गिरधर गमांग थे. उन्होंने 17 फरवरी, 1999 को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी. लेकिन इसके दो महीने बाद मुख्यमंत्री होते हुए भी उन्होंने लोकसभा में विश्वास प्रस्ताव के दिन इसके खिलाफ वोट दिया था. उस दिन भाजपा संसद में पहली बड़ी परीक्षा केवल एक वोट से हार गई थी. भाजपा को जहां 269 मत मिले वहीं विपक्ष के खाते में 270 वोट पड़े थे.
यही वजह है कि भारतीय राजनीतिक इतिहास में केवल 13 महीनों की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के जाने के पीछे की वजह गिरधर गमांग को माना जाता रहा है. राजनीतिक जानकारों ने गमांग के इस कदम को असंवैधानिक न होते हुए भी नैतिक रूप से गलत माना था. भाजपा ने भी गमांग के इस कदम की सख्त आलोचना की थी. यह अलग बात है कि उस ऐतिहासिक घटना के 16 साल बाद गमांग ने जून, 2015 में भाजपा का दामन थाम लिया. तब उन्होंने कांग्रेस पर जमकर निशाना साधा था. उनका कहना था, ‘1999 से मुझे वाजपेयी सरकार को गिराने के लिए सार्वजनिक रूप से जिम्मेदार ठहराया जाता रहा है. आज तक न तो मेरी पार्टी (कांग्रेस) और न ही हमारे नेताओं ने सच सामने रखकर आलोचना से मेरा बचाव नहीं किया.’ गमांग का आगे अपनी सफाई में कहना था कि तब उन्होंने केवल पार्टी द्वारा जारी व्हिप (एक तरह का आदेश) का पालन किया था.’
गिरधर गमांग को पार्टी में शामिल करने के दो साल बाद अब भाजपा उस 18 साल पुरानी गमांग की उस गलत परंपरा को भी अपनाती हुई दिखती है जिसकी पार्टी ने कभी आलोचना की थी. इस साल उत्तर प्रदेश में बड़ी जीत हासिल करने के बाद भाजपा नेतृत्व ने सबको चौंकाते हुए किसी विधायक को मुख्यमंत्री पद के लिए न चुनकर गोरखपुर से पार्टी सांसद आदित्यनाथ को इसकी जिम्मेदारी सौंपी थी. साथ ही इलाहाबाद के फूलपुर से सांसद केशव प्रसाद मौर्य को उप-मुख्यमंत्री बनाया गया. संवैधानिक मामलों के जानकारों के मुताबिक आदर्श स्थिति यह होती है कि विधायकों में से इन पदों के लिए चयन किया जाता. लेकिन खुद को सैद्धांतिक मामलों में दूसरी पार्टियों से अलग बताने वाली भाजपा ने इनके लिए न केवल निवर्तमान सांसदों को चुना बल्कि, उनसे राष्ट्रपति चुनाव (जुलाई, 2017) तक सांसद बने रहने के लिए कहा गया. जानकारों के मुताबिक यह उस अनैतिक परंपरा को आगे बढ़ाने जैसा ही था जो गमांग या कहें तो कांग्रेस ने स्थापित की थी. राष्ट्रपति चुनाव में एक सांसद के वोट का मान विधानसभा के सदस्य से अधिक होता है जबकि, विधान परिषद के सदस्य इस चुनाव में हिस्सा लेने के अयोग्य होते हैं. जानकारों के मुताबिक यही वजह है कि प्रदेश में संवैधानिक पदों पर रहते हुए भी आदित्यनाथ और केशव प्रसाद मौर्य ने राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति चुनाव तक सांसदी नहीं छोड़ी.
आदित्यनाथ और केशव प्रसाद मौर्य का मामला केवल राज्य में संवैधानिक पदों पर रहते हुए राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति चुनाव में हिस्सा लेने तक ही सीमित नहीं है. मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने अपनी सरकार में शामिल चार अन्य मंत्रियों के साथ जिस तरह विधान परिषद के जरिए चुने जाने का रास्ता चुना उसे एक लोकतांत्रिक देश में सैद्धांतिक रूप से गलत उदाहरण स्थापित करने वाला कहा जा सकता है. उत्तर प्रदेश की आदित्यनाथ सरकार ने 19 मार्च को पद और गोपनीयता की शपथ ली थी. इस लिहाज से संवैधानिक प्रावधानों के मुताबिक इन सभी मंत्रियों को छह महीने के भीतर यानी 19 सितंबर तक विधानमंडल के दो सदन- विधानसभा और विधानमंडल में से किसी का सदस्य बनना जरूरी था. ऐसा न होने पर इन्हें मंत्रिपरिषद से इस्तीफा देना पड़ता. इसके लिए भाजपा नेतृत्व ने सीधे चुनाव में लोगों के सामने न जाकर विधान परिषद के रूप में पीछे का रास्ता चुना. जानकारों का मानना है कि इसकी योजना पहले तैयार कर ली गई थी और इसी के तहत बसपा के एक और सपा के चार विधान परिषद सदस्यों ने सदन से इस्तीफा देकर मुख्यमंत्री आदित्यनाथ सहित अन्य मंत्रियों की राह आसान की. बाद में ये सारे राजनेता भाजपा में शाामिल हो गए.
हालांकि ऐसा नहीं है कि आदित्यनाथ विधान परिषद के जरिए विधानमंडल का सदस्य बनने वाले इकलौते मुख्यमंत्री हैं. इससे पहले बसपा सुप्रीमो मायावती और सपा के अखिलेश यादव ने भी चुनाव में उतरने की जगह विधान परिषद का रास्ता चुना था. राजनीतिक जानकारों का मानना है कि भाजपा नेतृत्व फिलहाल राज्य में किसी भी चुनाव से बचना चाहता है. उनके मुताबिक बीते विधानसभा चुनाव में करारी मात खाने वाले विपक्ष (सपा, बसपा और कांग्रेस) के बारे में भाजपा को लग रहा था कि वह एकजुट होकर भाजपा उम्मीदवार को टक्कर दे सकता है. इसलिए ‘भाजपा ने हींग लगे न फिटकरी, रंग चोखा होय’ वाला रास्ता चुना.
28 मई, 1996 को लोक सभा में पहली बार मौका मिलने के बाद भी बहुमत हासिल न कर पाने पर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था, ‘पार्टी तोड़कर सत्ता के लिए नया गठबंधन करके अगर सत्ता हाथ में आती है तो मैं ऐसी सत्ता को चिमटे से भी छूना पसंद नहीं करूंगा.’ उन्होंने यह बात विपक्षी सांसदों के इस कटाक्ष पर कही थी कि वे सरकार बनाने के लिए जरूरी समर्थन हासिल नहीं कर पाए.
लेकिन ऐसा लगता है कि भाजपा नेतृत्व ने उनकी यह बात बिसरा दी है. इसका उदाहरण सिर्फ उत्तर प्रदेश ही नहीं है. इस साल मणिपुर और गोवा चुनाव में दूसरे नंबर पर रहने के बावजूद भाजपा दूसरी पार्टियों को तोड़कर सत्ता हासिल करने में सफल रही. इसके अलावा बीते साल अरुणाचल प्रदेश में मुख्यमंत्री पेमा खांडू अपनी पीपुल्स पार्टी ऑफ अरुणाचल प्रदेश (पीपीए) के 33 विधायकों के साथ भाजपा में शामिल हो गए थे. इस तरह भाजपा राज्य में पहली बार अपनी सरकार बनाने में कामयाब रही.

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