शुक्रवार, 29 सितंबर 2017

आइये इस विजयादशमी में, हम राम को अपने अंदर महसूस करें

    राम’ भारतीय परंपरा में एक प्यारा नाम है. वह ब्रह्मवादियों का ब्रह्म है. निर्गुणवादी संतों का आत्मराम है. ईश्वरवादियों का ईश्वर है. अवतारवादियों का अवतार है. वह वैदिक साहित्य में एक रूप में आया है, तो बौद्ध जातक कथाओं में किसी दूसरे रूप में. एक ही ऋषि वाल्मीकि के ‘रामायण’ नाम के ग्रंथ में एक रूप में आया है, तो उन्हीं के लिखे ‘योगवसिष्ठ’ में दूसरे रूप में. ‘कम्ब रामायणम’ में वह दक्षिण भारतीय जनमानस को भावविभोर कर देता है, तो तुलसीदास के रामचरितमानस तक आते-आते वह उत्तर भारत में घर-घर का बड़ा और आज्ञाकारी बेटा, आदर्श राजा और सौम्य पति तक बन जाता है.
लेकिन इस लंबे कालक्रम में रामायण और रामकथा जैसे 1000 से अधिक ग्रंथ लिखे जाते हैं. तिब्बती और खोतानी से लेकर सिंहली और फारसी तक में रामायण लिखी जाती है. 1800 ईसवी के आस-पास उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर के मुल्ला मसीह फारसी भाषा के करीब 5000 छंदों में रामायण को छंदबद्ध करते हैं. लेकिन इसी क्रम में पुराणों में यहां-वहां राम की अलग-अलग कथाएं ठूंस दी जाती हैं. प्राचीन पाठ में शंबूक वध और राम की रासलीला जैसे विचित्र-विचित्र प्रकार के क्षेपक जोड़ दिए जाते हैं. श्रद्धातिरेक में आनंद रामायण (1600 ईसवी) और संगीत रघुनन्दन जैसी कितनी ही रामकथाएं अस्तित्व में आती हैं जिनमें विवाह के पूर्व ही राम रासलीला हुए करते दिखाई देते हैं. जैन संप्रदाय के ग्रंथ ‘पउमचरियं’ में तो ऐसी रामकथा आती है जहां राम की आठ हज़ार और लक्ष्मण की 16000 पत्नियां बताई जाती हैं. लक्ष्मणाध्वरि जैसे 17वीं सदी के श्रृंगारिक कवि ‘रामविहारकाव्यम्’ के 11वें सर्ग में राम-सीता की जलक्रीड़ा और मदिरापान तक का वर्णन करने लगते हैं.
और आधुनिक भारत में आते-आते पौराणिक कथाओं के अंधानुकरण, ऐतिहासीकरण और राजनीतिकरण का ऐसा दौर शुरू होता है कि राम और रामकथा का पूरा स्वरूप ही गड्ड-मड्ड हो जाता है. सीता की अग्निपरीक्षा लेने और लोकोपवाद के चलते उनका त्याग करने वाला राम नारीवादियों को खटकने लगता है. हमारे वामपंथी मित्रों और दलित चिंतकों के लिए वह शंबूक शूद्र का कथित वध करनेवाला सवर्ण क्षत्रिय बन जाता है. और हिंदूवादी राजनीति करनेवालों तक आते-आते वह अचानक ही कथित ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ का राजनीतिक प्रतीक बन जाता है. इन तमाम विरोधाभासों के बावजूद यह तो है ही कि वह आज तक भारतीय लोकमानस में एक मेटा-नैरेटिव के रूप में मौजूद दिखता है. टीवी, सिनेमा और आधुनिक साहित्य तक उसे अपने-अपने तरीके से भुनाता है. इसलिए राम हमारे अवचेतन से कहीं जाता नहीं है. वह बना रहता है, क्योंकि उसे अलग-अलग रूपों में बनाकर रखने वाले लोग हैं हम. वह बना रहता है, क्योंकि हम ही ऐसा चाहते हैं.
लेकिन फिर भी टकराव है. टकराव इसलिए नहीं है कि राम अपने आप में कैसा है. बल्कि टकराव इसलिए है कि उसे अलग-अलग स्वरूपों में बनाकर रखने वाले हम जैसे लोगों के बीच इस पर सहमति नहीं है. लेकिन सवाल है कि जब हम उसे अलग-अलग विरोधाभासी रूपों में बनाकर रखना ही चाहते हैं, तो नई पीढ़ियां उस राम को कैसे समझें. धर्म, भक्ति, श्रद्धा और साहित्य से लेकर इतिहास और राजनीति तक को चटपटे प्रोडक्ट के रूप में परोसनेवाला यह दौर हमारी तुरंता पीढ़ी को राम का कौन सा स्वरूप परोसेगा?

पूछा जा सकता है कि मानवता और विज्ञान के स्वाभाविक विकास के क्रम में यह चिंता ही क्यों होनी चाहिए? चिंता इसलिए कि यह विकास शायद इतना स्वाभाविक और सहज भी नहीं रह गया है. नई पीढ़ियां जिस राम को जानेंगी वह तुलसी का राम होगा, या कबीर का? या फिर वह सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का राम होगा या रामानंद सागर वाला राम होगा? या फिर इस सबसे अलग एक ठेठ राजनीतिक राम होगा? जो चाहेगा कि अयोध्या की कथित पुश्तैनी जमीन उसे वापस दे दी जाए? इसके लिए वह कोर्ट-कचहरी से लेकर राजनीतिक दलों के कार्यालयों तक के चक्कर लगानेवाला राम होगा? क्या वह शंबूक-वध के लगातार आरोपों से अवसादग्रस्त या प्रतिक्रियावादी हो जानेवाला राम होगा? क्या वह लड़ाकू तेवर में जोर-जोर से अपने जयकारे लगवाने वाला हिंदू हृदय सम्राट राम होगा, जो नवपीढ़ियों के हाथों में लाठी, तलवार और त्रिशूल देखकर प्रसन्न होगा? असल बेचैनी की वजह यही प्रश्न होने चाहिए.

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