शनिवार, 30 सितंबर 2017

बाबरी ढांचे से आस्था का उपहास: विक्रम राव

   आज ही के दिन सात साल पहले उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ ने हिंदुओं के अकीदे का मजाक उडाया था। राम जन्मभूमि के तीन टुकडे कर डाले थे । आज दशहरा है। उस युग मे इसी दिन राम लंका जीते थे |  हिन्दुओं को अब याद आया 6 दिसंबर 1992, जब नेक सुन्नी, जनवादी राष्ट्रपति, अमरीकी साम्राज्यवाद का शत्रु, रोजाना पांच बार नमाज अदा करने वाले, सेक्युलर राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन अलटिकरीती ( Saddam Hussein ) जिस ने कहा था “कोई पुराना ढांचा गिरा हैं”। समाजवादी बगदाद मे तब दंगे नही हुये थे । 
 तो अब कोर्ट तय करेगा क्या कि राम का जन्म अयोध्या में हुआ था ? यह बड़ा अटपटा, असंगत लगता है। जैसा लोहिया ने कहा था कि करोड़ों के जनमानस में युगों से रमे राम की बाबत ऐसी सतही चर्चा होनी ही नहीं चाहिए। फिर भी उच्च न्यायालय (लखनऊ खंडपीठ) के तीन विद्वान न्यायमूर्तियों ने ऐसा निर्णय दे ही दिया। मगर कानून के बजाय आस्था को पुख्ता किया है। अतः आस्था बनाम कानून पर चर्चा तो देश में चलनी चाहिए।
 अयोध्या-निर्णय पर चली उद्दाम बहस का सार यही है कि 30 सितम्बर 2010 की कानून तथा आस्था में घालमेल से कोर्ट को बचना चाहिए था। विशेषकर इसलिए कि भारत इस्लामी राष्ट्रों जैसा नहीं है, जो न सेक्युलर हैं और न समाजवादी ही। अतः इस न्यायिक खल्तमल्त के कारण कुछ प्रगतिशील हिन्दुओं तथा अकीदतमन्द ईमामों और मुल्लाओं के सुविचारित सुवाच्य की अभिधा की सम्यक मीमांसा होनी चाहिए, ताकि सेक्युलरवाद की ओट में इस बहस को अवांछनीयजन हाईजैक न कर लें। पिछले महीने मे सर्वोच्य न्यायालयने तीन तलाक को अवैध करार दिया। इस क्रम में याद कर लें कि सड़सठ वर्ष पहले संविधान निर्माताओं ने न्याय प्रक्रिया की हिफाजत तथा निष्पक्षता हेतु उसे निर्वाचित संसद और विधान मण्डल के ऊपर रखा था। खासकर मूलाधिकारों की व्याख्या और पालन के काम में न्यायालयों को शिखाग्र का स्थान दिया गया था। अतः अयोध्या वाले फैसले के सिलसिले में विचारणीय बिन्दु यह है कि राष्ट्र के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों और निर्देशों को क्यों नकारा जाता रहा ? मसलन दो दशक पूर्व अदालते-आलिया ने एक मजलूम परित्यक्ता शाह बानो को अपने शौहर से जीवन निर्वाह हेतु मुआवजा पाने का हक दिलवाया। अब यह विधिसम्मत निर्णय तो था मगर मान्य मज़हबी आस्था के अनुकूल नहीं था। राजनैतिक बवाल मचा। घबड़ाकर राजीव गाँधी ( Rajive Gandhi )ने संसद से कानून बनवा दिया और सर्वोच्च न्यायालय के नारीसमर्थक निर्णय को नकारा बना दिया। सेक्युलरवाद के पक्षधर आरिफ मोहम्मद खान ने विरोध किया। काबीना से त्यागपत्र दिया। कहाँ हैं मिल्लत में आज आरिॅफ मोहम्मद खान ? 
 अयोध्या निर्णय पर फिर गौर करें। आस्था, आदर्श, नैतिकता के बजाय कोर्ट को तर्क, साक्ष्य, तथ्य आदि पर निर्भर रहना चाहिए। यही अभिमत है कई प्रगतिशील लोगों का। अयोध्या पर हाईकोर्ट के फैसले की भर्त्सना में उनकी टिप्पणी बड़ी सटीक थी। वकील राजीव धवन ने कहा कि भावनात्मकता को अदालती जामा पहनाया गया है। पूर्व प्रधान न्यायाधीश ए.एम. अहमदी ने कहा कि इतिहास पर से यकीन उठ गया है। अहमदी साहब उस खण्डपीठ के न्यायमूर्ति थे जब 1994 में राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा ने सर्वोच्च न्यायालय से जानना चाहा था कि जाँच करके बतायें कि अयोध्या में क्या मन्दिर था, जिस पर मस्जिद बनाई गई ? खण्डपीठ ने राष्ट्रपति के प्रस्ताव को खारिज कर दिया। (अहमदी साहब मशहूर हुए जब भोपाल गैस त्रासदी के अभियुक्त के अपराध की गंभीरता को उन्होंने कमतर आंका था।) हालांकि शायद कोर्ट का यह भी कारण हो सकता था कि न्यायालय का यह काम नहीं है कि वह पड़ताल करे कि चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य अथवा जहीरूद्दीन बाबर द्वारा निर्माण किस सदी में हुए हैं ? तो अब अपील का निस्तारण करते समय क्या उसी 1994 वाली बात पर सर्वोच्च न्यायालय विचार करेगा ? अथवा पुरातत्व निष्णातों की खोज को कानूनी प्रमाण मानेगा क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने ही कहा था कि विशेषज्ञों की राय को न्यायालय को लाजिमी तौर पर स्वीकार करना चाहिए। तब न्यायालय का निर्देश था कि डीएनए परीक्षण पर शक नहीं किया जा सकता। उस मुकदमें में पितृत्व निर्धारित करने का प्रश्न था।
 यदि सर्वोच्च न्यायालय आस्था की बात को खारिज कर कानून का साक्ष्य मांगे। कहे कि राम एक मिथक थे। अतः रामलला की मूर्ति हटाई जाय, मस्जिद निर्मित हो और पूरी जमीन जो मुगल लुटेरों ने हिन्दुओं से छीनी थी, सुन्नी वक्फ बोर्ड को दे दी जाय। कानून के मुताबिक शायद ऐसा ही हो। पर क्या वह क्रियान्वित हो सकता है ? मान भी लें कि जलसेना सरयू नदी में, थलसेना फैजाबाद में और वायुसेना उत्तर प्रदेश की पुलिस की मदद में आ जाय तो भी ऐसा निर्णय लागू हो सकेगा ?
 मनमोहन सिंह सरकार ने रामसेतु वाले मुकदमें में हलफनामे में सर्वोच्च न्यायालय में दावा किया था कि राम के नाम का पुरूष काल्पनिक है। हालांकि जनाक्रोश के चलते हलफनामा बदला गया था। गमनीय बिन्दु वही है कि कानून के सामने आस्था के मायने क्या है ? अतः यदि राम का अवतरण ही कानूनी तौर पर सिद्ध नहीं हो सकता है तो आस्था की संदिग्धता वाली बात अन्य धार्मिक विश्वासों तक भी जाएगी। अविवाहिता मेरी के पुत्र यीशू मसीह का जन्म, अलअक्सा मस्जिद से नबी का सशरीर स्वर्ग तक जाना, येरूशलम में यहूदी पैगम्बर का समुद्र के मध्य से अपने अनुयायियों को सड़क दिलवाना। युगों से चली आ रही इन आस्थाओं को अदालत में साबित करने का साक्ष्य कहां मिलेगा ?
 फिर भी इन प्रगतिशील हिन्दुओं तथा अकीदतमन्द ईमामों और मुल्लाओं के दावे और आलोचना का मान रखते हुए सेक्युलर भारतीय गणराज्य में कानून को ही सर्वोपरि स्थान देना होगा। आस्था दोयम दर्जे पर है। अर्थात् फिर कानूनी कार्रवाही करनी पड़ेगी कुछ विपरीत आस्था के मुद्दों पर। मसलन पोलियों बिन्दु को पिलाने पर मनाही जिस आस्था में है वह भ्रामक है। तीन बार ईमेल से तलाक संप्रेषित करने से विवाह संबंध का विच्छेद नहीं हो सकता। बच्चन की मधुशाला पढ़ने मात्र से शराबखोरी समझा जानेवाला फतवा अमान्य होगा। सानिया मिर्जा की स्कर्ट जितनी भी लम्बी हो वह आस्था के दायरे में नहीं परखी जाएगी। गांधीवादी शिक्षा संस्थान जामिया मिलिया के बहुलतावादी सेक्युलर रूप को विकृत कर सम्प्रदाय विशेष के लिए आरक्षित नहीं किया जाएगा। 
 इसी क्रम में गतसदी के इतिहास के पृष्ट भी पलट लें। लेनिनवादी सोवियत संघ ने मध्येशियाई मुस्लिम राष्ट्रों को सैन्यबल के जरिये अनीश्वरवादी बना डाला था। वहाँ की मस्जिदों को जानबूझकर जोसेफ़े स्टालिन ने संगीत सभागार मे परिवर्तित कर दिया था। तब कानून को आस्था के ऊपर रखने वाली नीति के घातक तथा विकराल नजारे भी दिखे। उजबेक, किरगीजिया, कजाक, तुर्कमेंनिस्तान, ताजिकिस्तान आदि सोवियत मुस्लिम प्रदेशों के शहरों में बोल्शेविक संसद और लाल सेना ने मार्क्सवादी नास्तिकता थोपी थी। आस्था कुचली गई। मगर जैसे ही सोवियत कानून शिथिल पड़ा, इस्लाम फिर सिर उठाकर उभरा। कश्मीर के पड़ोस के उईगर प्रदेश में जनवादी चीन ने नमाज पर पाबन्दी आयद कर दी। मस्जिदों के सामने ही घेंटे के गोश्त के विक्रय केन्द्र खोलने के लाइसेन्स जारी कर दिये थे। लगा कि इस प्रगतिशील जनवादी कम्युनिस्ट राज में आस्था केवल म्यूजियम की चीज हैं। पुनीत मक्का के समीपवर्ती राज्यमार्गों पर सड़क चौड़ी करने के वक्त ऐतिहासिक मस्जिदों को सऊदी शासन ने ध्वस्त किया ताकि आवागमन के नियम तेजी से लागू हो सकें। तो ये वाकये विधिवेत्ता की दृष्टि में नागरिक सुविधाओं को मजहबी सोच से ऊपर उठाने की अपरिहार्यता कहलाएगी।
 आज अयोध्या विवाद को धारधार बनानेवालों को याद होगा कि जब आस्था पर आधारित नये राष्ट्र पाकिस्तान के लिए रायशुमारी हुई थी तो उत्तरपश्चिमी मुस्लिम बहुल प्रदेशों में पृथक राष्ट्र की मांग को समर्थन नहीं मिला था। हिन्दीभाषी प्रदेशों के नब्बे फीसदी मुसलमानों ने विभाजन का समर्थन किया था। उस युग के क्षेष्ठतम हिन्दु महात्मा गांधी ने कहा था कि आस्था के नाम पर कौम का बटवारा अमान्य है, मानवताविरोधी है। मगर कमान सेक्युलरवादी पंडित जवाहरलाल नेहरू के हाथ थी। वे जिन्ना से सहमत थे। आस्था की क्रूर विजय हूई। इन्सानी मूल्य तिरस्कृत हुए। तभी का एक किस्सा था। ब्रिटिश राज द्वारा पाकिस्तान की स्थापना की घोषणा पर नवनियुक्त गवर्नर जनरल मोहम्मद अली जिन्ना ने 13 अगस्त 1947 को कराची में शानदार लंच दिया। इतिहास में आस्था की जीत पर यह उत्सव था। तभी उनके परिसहायक ने उनके कान में फुसफुसाया कि मुकद्दस रमजान महीने की अन्तिम जुमेरात है और रोजा अभी चालू है। तो ऐसी इब्तिदा थी इस्लामी पाकिस्तान की आस्थाभरी यात्रा की। तुलनात्मक रूप से भारत में अकीदे को पर्याप्त श्रद्धा, मर्यादा और सम्मान प्राप्त होता रहा है, क्योंकि जहां कानून की इति होती है, वहीं से आस्था का आगाज़ होता है। आस्था का राजनीति में बदल जाने में समय नहींे लगता। आज भारत में ऐसा ही गेम खेला जा रहा है। अम्पायर (अदालत) की मानी नहीं जा रहीं है। डालर और दीनार का इतना जोर ?

                       K Vikram Rao
     Email: k.vikramrao@gmail.com
                    फोनः 9415000909

आइये जानें क्यों विश्व विख्यात है मैसूर का दशहरा

   
 
   कर्नाटक में मैसूर में दशहरा का शाही अंदाज आज भी बरकरार है। यहां की 406 साल पुरानी परंपरा पूरे दुनिया में मशहूर है। दशहरे पर पैलेस में खास लाइटिंग होती है। मैसूरू के दशहरे में न तो राम होते हैं और न ही रावण, राक्षस महिषासुर का वध करने पर देवी चामुंडा की पूजा के तौर पर यहां दशहरा मनाया जाता है। 
   विजयदशमी के दिन मैसूर की सड़कों पर जुलूस निकलता है. इस जुलूस की खासियत यह होती है कि इसमें सजे-धजे हाथी के ऊपर एक हौदे में चामुंडेश्वरी माता की मूर्ति रखी जाती है. सबसे पहले इस मूर्ति की पूजा मैसूर के रॉयल कपल करते हैं उसके बाद इसका जुलूस निकाला जाता है. यह मूर्ति सोने की बनी होती है साथ ही हौदा भी सोने का ही होता है। 
 
   इस जुलूस के साथ म्यूजिक बैंड, डांस ग्रुप, आर्मड फोर्सेज, हाथी, घोड़े और ऊंट चलते हैं. यह जुलूस मैसूर महल से शुरू होकर बनीमन्टप पर खत्म होती है. वहां लोग बनी के पेड़ की पूजा करते हैं. माना जाता है कि पांडव अपने एक साल के गुप्तवास के दौरान अपने हथियार इस पेड़ के पीछे छुपाते थे और कोई भी युद्ध करने से पहले इस पेड़ की पूजा करते थे।

शुक्रवार, 29 सितंबर 2017

यशवंत सिन्हा के स्वर का मतलब

   
    यशवंत सिन्हा ने मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों की बखिया उधेड़ कर दो बातों की ओर इशारा किया है। पहली नजर में यह पार्टी के नेतृत्व और सरकार की रीति-नीति की आलोचना है और आर्थिक मोर्चे पर आ रहे गतिरोध की ओर इशारा। पर यह सामान्य ध्यानाकर्षण नहीं है। इसके पीछे गहरी वेदना को भी हमें समझना होगा। आलोचना के लिए उन्होंने पार्टी का मंच नहीं चुना। अख़बार चुना, जहाँ पी चिदंबरम हर हफ्ते अपना कॉलम लिखते हैं। सरकार की आलोचना के साथ प्रकारांतर से उन्होंने यूपीए सरकार की तारीफ भी की है।

पार्टी-इनसाइडरों का कहना है कि यह आलोचना दिक्कत-तलब जरूर है, पर पार्टी इसे अनुशासनहीनता का मामला नहीं मानती। इसका जवाब देकर मामले की अनदेखी की जाएगी। उन्हें पहला जवाब रेलमंत्री पीयूष गोयल ने दिया है। उन्होंने कहा कि नोटबंदी और जीएसटी जैसे कदम देश की अर्थ-व्यवस्था में सुधार के चरण हैं। ऐसे में कुछ दिक्कतें आती हैं, पर हालात न तो खराब हैं और न उनपर चिंता करने की कोई वजह है। इन कदमों से अर्थ-व्यवस्था में अनुशासन आएगा और गति भी बढ़ेगी। स्वाभाविक रूप से यह देश की आर्थिक दशा-दिशा की आलोचना है। उनके लेख के जवाब में उनके बेटे जयंत सिन्हा ने भी एक लेख लिखा है, जो उनके लिए बदमज़गी पैदा करने वाला है।


सरकार मानती है कि आर्थिक संवृद्धि की दर में गिरावट है। यह गिरावट पिछले साल नोटबंदी के भी तिमाही पहले से शुरू हो गई थी। पूँजी निवेश की स्थिति अच्छी नहीं है। देश के बैंकों की स्थिति खराब है। सरकार ने नोटबंदी और जीएसटी जैसे दो बड़े फैसले किए हैं। इनकी वजह से अर्थ-व्यवस्था की गति धीमी पड़ी जरूर है, पर इसका दूरगामी लाभ भी मिलेगा। केवल संवृद्धि की दर में कुछ अंकों की गिरावट का मतलब यह नहीं है कि अर्थ-व्यवस्था डूब रही है। डूब रही होती तो राजस्व में वृद्धि कैसे होती?

अरुण जेटली के अनुसार प्रत्यक्ष करों में 15.7 फीसदी की वृद्धि मामूली बात नहीं है। जुलाई और अगस्त के महीनों में जीएसटी कलेक्शन 90,000 करोड़ के ऊपर आया है। देश लगातार रिकॉर्ड प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश प्राप्त कर रहा है। 400 अरब डॉलर के ऊपर हमारा विदेशी मुद्रा भंडार है। रुपये की स्थिति मजबूत है। हालांकि इस वित्त वर्ष की पहली तिमाही में संवृद्धि दर 5.7 फीसदी रही है, फिर भी इस साल की दर 7.00 फीसदी के आसपास रहने की आशा है।

यशवंत सिन्हा की बातों से विपक्ष को स्वर मिले हैं। ये स्वर अभी तीखे होंगे। कुछ महीनों के भीतर गुजरात और हिमाचल प्रदेश में विधान सभा चुनाव होने वाले हैं। राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ भी चुनाव की लाइन में हैं। इन राज्यों में सरकार को जनता के पास जाना है। हाल में सरकार की इस बात के लिए आलोचना हो रही थी कि जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में पेट्रोल महंगा था, तब जो खुदरा भाव थे वही खुदरा भाव आज हैं। सरकार के पास इस बात का जवाब है। आज सब्सिडी का स्तर वही नहीं है, जो तब था। यही नहीं आज राज्य सरकारों की आर्थिक स्थिति भी बेहतर है।

अरुण जेटली ने जो जवाब दिया है उसमें पलटवार है। उन्होंने यशवंत सिन्हा के साथ-साथ पी चिदंबरम पर भी तंज किया। इन दिनों पी चिदंबरम एक दैनिक अख़बार के अपने साप्ताहिक स्तंभ में आर्थिक नीतियों की आलोचना करते हैं। यशवंत सिन्हा के स्वर चिदंबरम के स्वरों से मिलते हुए हैं। जेटली ने यशवंत सिन्हा और चिदंबरम के कार्यकाल की नीतियों की ओर भी इशारा किया है। यशवंत सिन्हा ने अपनी टिप्पणियों में न केवल चिदंबरम और मनमोहन सिंह का नाम लिया, बल्कि यूपीए सरकार की तरफदारी भी की। उन्होंने अरुण जेटली को लोकसभा चुनाव में मिली हार को भी निशाने पर लिया। इस बात से उनके भीतर की ईर्ष्या भी खुलकर सामने आई है।

यह पहला मौका नहीं, जब यशवंत सिन्हा की बातों से पार्टी की फज़ीहत हुई है। वे धारा के खिलाफ चलते रहे हैं। नवम्बर 2012 में उन्होंने एक कारोबारी संस्था की शिकायतें मिलने पर पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी को हटाने की माँग कर दी थी। यूपीए के दौर में जब बीजेपी जीएसटी के खिलाफ थी, तब यशवंत सिन्हा उसका समर्थन कर रहे थे। और आज जब बीजेपी ने उसे लागू किया है तो वे उसके विरोध में हैं। उनके बारे में करीबी जानकारी रखने वाले मानते हैं कि वे अपनी उपयोगिता बनाए रखने के लिए भी विवाद खड़े करते हैं। उनका विवाद मोदी या अरुण जेटली के साथ ही खड़ा नहीं हुआ है। कर्पूरी ठाकुर, वीपी सिंह, चंद्रशेखर और आडवाणी तक उनके रिश्तों में खटास और मिठास का मिश्रण रहा है।

नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनाने के विरोध में बीजेपी के जो वरिष्ठ नेता खड़े थे उनमें यशवंत सिन्हा भी थे। गोवा में जून 2013 में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में नरेन्द्र मोदी को महत्वपूर्ण जिम्मेदारी देने के बारे में फैसला होना था। उस बैठक में लालकृष्ण आडवाणी नहीं आए। यशवंत सिन्हा भी नहीं आए। आडवाणी जी ने तबीयत ठीक न होने का बहाना किया, पर यशवंत सिन्हा ने कहा, मैं कुछ और कारणों से नहीं गया। बाद में उन्होंने कहा, मीडिया ने मेरी अनुपस्थिति को ग़लत तरीक़े से पेश किया है। मैं तो मोदी का समर्थक हूँ।

सन 2014 के चुनाव में टिकट कटने से भी उन्हें धक्का लगा। सन 2015 में नवगठित ब्रिक्स बैंक के अध्यक्ष का पद भारत को मिला। इस पद के लिए यशवंत सिन्हा के नाम की अटकलें भी लगीं। आईसीआईसीआई बैंक के गैर-कार्यकारी चेयरमैन केवी कामथ को यह पद मिल गया। बताते हैं इस फैसले के पीछे नरेन्द्र मोदी का हाथ था। इधर वे कश्मीर मामले के समाधान में जुटे थे। इस सिलसिले में वे प्रधानमंत्री से मिलना चाहते थे, पर उन्हें समय नहीं मिला। ये सब बातें भी इस विवाद के पीछे कहीं न कहीं हैं।
प्रमोद जोशी, प्रख्यात स्तंभकार

मिटा नहीं क्यों दम्भ तुम्हारा?

रावण तू कब गया न मारा?
राम से तू है कब न हारा?
असत् पर क्यों सब तूने वारा?
मिटा नहीं क्यों दम्भ तुम्हारा?
    हाज़िर है तू आज भी लगता
    तेरा ही है राज भी लगता
    सीता जब तेरी मौत का कारण
    तो फिर क्यों तू सीता हरता?
जब तक राम नहीं तेरी सत्ता
मिटनी ही है तेरी महत्ता
"राजन" तू कैसा रे ज्ञानी
क्यों करता फिरता मनमानी?






आइये इस विजयादशमी में, हम राम को अपने अंदर महसूस करें

    राम’ भारतीय परंपरा में एक प्यारा नाम है. वह ब्रह्मवादियों का ब्रह्म है. निर्गुणवादी संतों का आत्मराम है. ईश्वरवादियों का ईश्वर है. अवतारवादियों का अवतार है. वह वैदिक साहित्य में एक रूप में आया है, तो बौद्ध जातक कथाओं में किसी दूसरे रूप में. एक ही ऋषि वाल्मीकि के ‘रामायण’ नाम के ग्रंथ में एक रूप में आया है, तो उन्हीं के लिखे ‘योगवसिष्ठ’ में दूसरे रूप में. ‘कम्ब रामायणम’ में वह दक्षिण भारतीय जनमानस को भावविभोर कर देता है, तो तुलसीदास के रामचरितमानस तक आते-आते वह उत्तर भारत में घर-घर का बड़ा और आज्ञाकारी बेटा, आदर्श राजा और सौम्य पति तक बन जाता है.
लेकिन इस लंबे कालक्रम में रामायण और रामकथा जैसे 1000 से अधिक ग्रंथ लिखे जाते हैं. तिब्बती और खोतानी से लेकर सिंहली और फारसी तक में रामायण लिखी जाती है. 1800 ईसवी के आस-पास उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर के मुल्ला मसीह फारसी भाषा के करीब 5000 छंदों में रामायण को छंदबद्ध करते हैं. लेकिन इसी क्रम में पुराणों में यहां-वहां राम की अलग-अलग कथाएं ठूंस दी जाती हैं. प्राचीन पाठ में शंबूक वध और राम की रासलीला जैसे विचित्र-विचित्र प्रकार के क्षेपक जोड़ दिए जाते हैं. श्रद्धातिरेक में आनंद रामायण (1600 ईसवी) और संगीत रघुनन्दन जैसी कितनी ही रामकथाएं अस्तित्व में आती हैं जिनमें विवाह के पूर्व ही राम रासलीला हुए करते दिखाई देते हैं. जैन संप्रदाय के ग्रंथ ‘पउमचरियं’ में तो ऐसी रामकथा आती है जहां राम की आठ हज़ार और लक्ष्मण की 16000 पत्नियां बताई जाती हैं. लक्ष्मणाध्वरि जैसे 17वीं सदी के श्रृंगारिक कवि ‘रामविहारकाव्यम्’ के 11वें सर्ग में राम-सीता की जलक्रीड़ा और मदिरापान तक का वर्णन करने लगते हैं.
और आधुनिक भारत में आते-आते पौराणिक कथाओं के अंधानुकरण, ऐतिहासीकरण और राजनीतिकरण का ऐसा दौर शुरू होता है कि राम और रामकथा का पूरा स्वरूप ही गड्ड-मड्ड हो जाता है. सीता की अग्निपरीक्षा लेने और लोकोपवाद के चलते उनका त्याग करने वाला राम नारीवादियों को खटकने लगता है. हमारे वामपंथी मित्रों और दलित चिंतकों के लिए वह शंबूक शूद्र का कथित वध करनेवाला सवर्ण क्षत्रिय बन जाता है. और हिंदूवादी राजनीति करनेवालों तक आते-आते वह अचानक ही कथित ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ का राजनीतिक प्रतीक बन जाता है. इन तमाम विरोधाभासों के बावजूद यह तो है ही कि वह आज तक भारतीय लोकमानस में एक मेटा-नैरेटिव के रूप में मौजूद दिखता है. टीवी, सिनेमा और आधुनिक साहित्य तक उसे अपने-अपने तरीके से भुनाता है. इसलिए राम हमारे अवचेतन से कहीं जाता नहीं है. वह बना रहता है, क्योंकि उसे अलग-अलग रूपों में बनाकर रखने वाले लोग हैं हम. वह बना रहता है, क्योंकि हम ही ऐसा चाहते हैं.
लेकिन फिर भी टकराव है. टकराव इसलिए नहीं है कि राम अपने आप में कैसा है. बल्कि टकराव इसलिए है कि उसे अलग-अलग स्वरूपों में बनाकर रखने वाले हम जैसे लोगों के बीच इस पर सहमति नहीं है. लेकिन सवाल है कि जब हम उसे अलग-अलग विरोधाभासी रूपों में बनाकर रखना ही चाहते हैं, तो नई पीढ़ियां उस राम को कैसे समझें. धर्म, भक्ति, श्रद्धा और साहित्य से लेकर इतिहास और राजनीति तक को चटपटे प्रोडक्ट के रूप में परोसनेवाला यह दौर हमारी तुरंता पीढ़ी को राम का कौन सा स्वरूप परोसेगा?

पूछा जा सकता है कि मानवता और विज्ञान के स्वाभाविक विकास के क्रम में यह चिंता ही क्यों होनी चाहिए? चिंता इसलिए कि यह विकास शायद इतना स्वाभाविक और सहज भी नहीं रह गया है. नई पीढ़ियां जिस राम को जानेंगी वह तुलसी का राम होगा, या कबीर का? या फिर वह सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का राम होगा या रामानंद सागर वाला राम होगा? या फिर इस सबसे अलग एक ठेठ राजनीतिक राम होगा? जो चाहेगा कि अयोध्या की कथित पुश्तैनी जमीन उसे वापस दे दी जाए? इसके लिए वह कोर्ट-कचहरी से लेकर राजनीतिक दलों के कार्यालयों तक के चक्कर लगानेवाला राम होगा? क्या वह शंबूक-वध के लगातार आरोपों से अवसादग्रस्त या प्रतिक्रियावादी हो जानेवाला राम होगा? क्या वह लड़ाकू तेवर में जोर-जोर से अपने जयकारे लगवाने वाला हिंदू हृदय सम्राट राम होगा, जो नवपीढ़ियों के हाथों में लाठी, तलवार और त्रिशूल देखकर प्रसन्न होगा? असल बेचैनी की वजह यही प्रश्न होने चाहिए.

गुरुवार, 28 सितंबर 2017

भगत तुम सदा याद आते रहोगे

 
   जब भी कोई भगत सिंह की हथियारबंद तस्वीर शेयर कर उनका गलत चरितार्थ करने की कोशिश करता है मुझे बहुत ही कुल्हन होती है। ऐसा वहीं लोग करते है जो भगत सिंह को या तो नहीं जानते या फिर उनके माध्यम से अपनी कट्टर राजनीति को चमकाना चाहते है।

भगत सिंह ने खुद लिखा था कि 'ज़रूरी नहीं था की क्रांति में अभिशप्त संघर्ष शामिल हो। यह बम और पिस्तौल का पंथ नहीं था।' आप कैसे उस व्यक्ति का हिंसक चरितार्थ कर सकते हो जिसने 116 दिन का भूख हड़ताल सिर्फ इसलिए किया क्योंकि जेल में कैदियों के साथ भेदभाव हो रहा था।

भगत सिंह बहुत पढ़ते और खूब लिखते थे। उन्होंने बलवंत, रंजीत और विद्रोही के नाम से अखबारों के लिए कई उर्दू और पंजाबी में लेख लिखे है। इसके अलावा वो डायरी भी लिखते थे जो बाद में जेल डायरी के नाम से प्रसिद्ध हुई।

भगत सिंह अपने फांसी वाले दिन भी किताब पढ़ रहे थे। फांसी पर जाने से पहले वे लेनिन की जीवनी ही पढ़ रहे थे। जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनकी फांसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा था- "ठहरिये! पहले एक क्रान्तिकारी दूसरे से मिल तो ले।"

क्यों हमारी सरकारें भगत सिंह का ये रूप बच्चों को नहीं बताती? ये तो याद ही होगा कि स्कूल में हमने भगत सिंह के बारे में क्या-क्या पढ़ा है। सिलेबस में जिस तरह से भगत सिंह को पेश किया गया उससे बच्चों को बस इतना ही समझ आएगा कि भगत सिंह एक हिंसक व्यक्ति थें, उससे ज्यादा कुछ नहीं।

पता नहीं क्यों हमारे हुक्मरान भगत सिंह के विचारों से डरते हैं। चाहे कोई भी सरकार रही वो देश में किसी ने भी भगत सिंह के लिखे लेखों को बच्चों तक नहीं पहुंचने दिया। क्योंकि हमारे फिरकापरस्त नेताओं को पता है जिस दिन देश का युवा 'मैं नास्तिक क्यों हूं' पढ़े लेगा, उस दिन से वो जाति और धर्म के नाम सत्ता का सुख भोगने वालों से सवाल पूछना शुरू कर देगा।  

नित्य रामायण: ईश्वर के अनुसार चलो, ईश्वर को अपने अनुसार न चलाओ

 

बहुबिधि बिनय कीन्हि तेहि काला। प्रगटेउ प्रभु कौतुकी कृपाला॥
प्रभु बिलोकि मुनि नयन जुड़ाने। होइहि काजु हिएँ हरषाने॥2॥
भावार्थ:-उस समय नारदजी ने भगवान की बहुत प्रकार से विनती की। तब लीलामय कृपालु प्रभु (वहीं) प्रकट हो गए। स्वामी को देखकर नारदजी के नेत्र शीतल हो गए और वे मन में बड़े ही हर्षित हुए कि अब तो काम बन ही जाएगा॥2॥
* अति आरति कहि कथा सुनाई। करहु कृपा करि होहु सहाई॥
आपन रूप देहु प्रभु मोहीं। आन भाँति नहिं पावौं ओही॥3॥
भावार्थ:-नारदजी ने बहुत आर्त (दीन) होकर सब कथा कह सुनाई (और प्रार्थना की कि) कृपा कीजिए और कृपा करके मेरे सहायक बनिए। हे प्रभो! आप अपना रूप मुझको दीजिए और किसी प्रकार मैं उस (राजकन्या) को नहीं पा सकता॥3॥
* जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा। करहु सो बेगि दास मैं तोरा॥
निज माया बल देखि बिसाला। हियँ हँसि बोले दीनदयाला॥4॥
भावार्थ:-हे नाथ! जिस तरह मेरा हित हो, आप वही शीघ्र कीजिए। मैं आपका दास हूँ। अपनी माया का विशाल बल देख दीनदयालु भगवान मन ही मन हँसकर बोले-॥4॥
दोहा :
* जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार।
सोइ हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार॥132॥
भावार्थ:-हे नारदजी! सुनो, जिस प्रकार आपका परम हित होगा, हम वही करेंगे, दूसरा कुछ नहीं। हमारा वचन असत्य नहीं होता॥132॥
चौपाई :
* कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी। बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी॥
एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ। कहि अस अंतरहित प्रभु भयऊ॥1॥
भावार्थ:-हे योगी मुनि! सुनिए, रोग से व्याकुल रोगी कुपथ्य माँगे तो वैद्य उसे नहीं देता। इसी प्रकार मैंने भी तुम्हारा हित करने की ठान ली है। ऐसा कहकर भगवान अन्तर्धान हो गए॥1॥
* माया बिबस भए मुनि मूढ़ा। समुझी नहिं हरि गिरा निगूढ़ा॥
गवने तुरत तहाँ रिषिराई। जहाँ स्वयंबर भूमि बनाई॥2॥
भावार्थ:-(भगवान की) माया के वशीभूत हुए मुनि ऐसे मूढ़ हो गए कि वे भगवान की अगूढ़ (स्पष्ट) वाणी को भी न समझ सके। ऋषिराज नारदजी तुरंत वहाँ गए जहाँ स्वयंवर की भूमि बनाई गई थी॥2॥

हाँ हम नारी की पूजा करते हैं, लेकिन वो शेर पर सवार हो तब

   
   नवरात्र चल रहा पुण्यभूमि भारत में. नारी शक्ति की आराधना उत्कर्ष पर है. एक ऐसे देश में जहां शाम ढलने के बाद बाहर निकलने में महिलाओं को डर लगता है.
भारत विडंबनाओं और विरोधाभासों का देश है, इसकी सबसे अच्छी मिसाल नवरात्र में देखने को मिलती है जब लोग हाथ जोड़कर माता की प्रतिमा को प्रणाम करते हैं और हाथ खुलते ही पूजा पंडाल की भीड़ का फ़ायदा उठाने में व्यस्त हो जाते हैं.
भारत का कमाल हमेशा से यही रहा है कि संदर्भ, आदर्श, दर्शन, विचार, संस्कार सब भुला दो लेकिन प्रतीकों को कभी मत भुलाओ. जिस देश की अधिसंख्य जनता नारीशक्ति की इतनी भक्तिभाव से अर्चना करती है उसी देश में कन्या संतान को पैदा होने से पहले ही दोबारा भगवान के पास बैरंग वापस भेज दिया जाता है, ‘हमें नहीं चाहिए यह लड़की, कोई गोपाल भेजो, कन्हैया भेजो, ठुमक चलने वाले रामचंद्र भेजो, लक्ष्मी जी को अपने पास ही रखो’.
अदभुत देश है जहां ‘जय माता की’ और ‘तेरी मां की’...एक जैसे उत्साह के साथ उच्चारे जाते हैं. माता का यूनिवर्सल सम्मान भी है, यूनिवर्सल अपमान भी. नौ दिन तक जगराते होंगे, पूजा होगी, हवन होंगे, मदिरापान-मांस भक्षण तज दिया जाएगा और देवी प्रतिमा की भक्ति होगी, मगर साक्षात नारी के सामने आते ही प्रौढ़ देवीभक्त की आंखें भी वहीं टिक जाएंगी जहां पैदा होते ही टिकी थीं.
भारत में पूजा करने का अर्थ यही होता है कि रोज़मर्रा के जीवन से उस देवी-देवता का कोई वास्ता नहीं है, हमारे यहां सरस्वती पूजा में वही नौजवान सबसे उत्साह से चंदा उगाहते रहे हैं जिनका विद्यार्जन से कोई रिश्ता नहीं होता.
स्त्रीस्वरूप की पूजा तभी हो सकती है जब वह शेर पर सवार हो, उसके हाथों में तलवार-कृपाण-धनुष-बाण हो या फिर उसे जीते-जी जलाकर सती कर दिया गया हो, दफ़्तर जाने वाली, घर चलाने वाली, बच्चे पालने वाली, मोपेड चलाने वाली औरतें तो बस सीटी सुनने या कुहनी खाने के योग्य हैं. भक्तिभाव से नवरात्र की पूजा में संलग्न कितने लाख लोग हैं जिन्होंने अपनी पत्नी को पीटा है, अपनी बेटी और बहन को जकड़ा है, अपनी मां को अपने बाप की जागीर माना है. वे लोग न जाने किस देवी की पूजा कर रहे हैं.
भवानी प्रकृति हैं और शिव पुरूष हैं, यह हिंदू धर्म की आधारभूत अवधारणा है. दोनों बराबर के साझीदार हैं इस सृष्टि को रचने और चलाने में. मगर पुरुष का अहंकार पशुपतिनाथ को पशु बनाए रखता है इसका ध्यान कितने भक्तों को है.
जिस दिन पंडाल में बैठी प्रतिमा का नहीं, दफ़्तर में बैठी सांस लेती औरत का सच्चा सम्मान होगा, जिस दिन शेर पर बैठी दुर्गा को नहीं, साइकिल पर जा रही मोहल्ले की लड़की को भविष्य की गरिमामयी मां के रूप में देखा जाएगा, उस दिन भारत में नवरात्र के उत्सव में भक्ति के अलावा सार्थकता का भी रंग होगा.
फ़िलहाल यह उत्सव है जो नारी शक्ति की आराधना के नाम पर पुरुष मना रहे हैं.

बुधवार, 27 सितंबर 2017

नित्य रामायण

मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर।
अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर॥130 क॥
भावार्थ:-हे श्री रघुवीर! मेरे समान कोई दीन नहीं है और आपके समान कोई दीनों का हित करने वाला नहीं है। ऐसा विचार कर हे रघुवंशमणि! मेरे जन्म-मरण के भयानक दुःख का हरण कर लीजिए॥130 (क)॥
* कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम॥130 ख॥
भावार्थ:-जैसे कामी को स्त्री प्रिय लगती है और लोभी को जैसे धन प्यारा लगता है, वैसे ही हे रघुनाथजी। हे रामजी! आप निरंतर मुझे प्रिय लगिए॥130 (ख)॥

नित्य रामायण


  
   राम नाम अवलंब बिनु, परमारथ की आस।
   बरषत बारिद बूँद गहि, चाहत चढ़न अकास।।

       भावार्थ-   जो मनुष्य राम नाम का सहारा लिए विना ही परमार्थ अर्थात मोक्ष की आशा करता है, वह मानो बरसते हुए बादल की बूँद को पकड़कर आकाश में चढ़ना चाहता है।अर्थात् जैसे वर्षा की बूँद को पकड़कर आकाश पर चढ़ना असम्भव है,  वैसे ही राम नाम का जप किये विना परमार्थ की प्राप्ति असम्भव है ।

जरीना उस्मानी के बहाने भाजपा को नसीहत

   
   
   आज मैं उत्तर प्रदेश राज्य महिला आयोग गया था। अध्यक्ष श्रीमती जरीना उस्मानी जी से मुलाकात हुई। वो एक अच्छी और समझदार महिला हैं, इसमें कोई शक नही है, परंतु वो अभी भी महिला आयोग की अध्यक्ष हैं, ये जानकर मुझे ताज़्ज़ुब जरूर हुआ। क्योंकि यूपी में योगी सरकार आये करीब -करीव 6 महीने का अच्छा खासा वक्त गुजर चुका है। 
   असल में जरीना उस्मानी को पूर्ववर्ती अखिलेश सरकार ने महिला आयोग का अध्यक्ष नामित किया था। उससे पहले बसपा सरकार में सतीश चंद्र मिश्र की बहन आभा अग्निहोत्री इस पद रही हैं। अर्थात जो भी सरकार आती है वो अपने पुराने समर्पित और वरिष्ठ कार्यकर्ताओं और नेताओं को ही आयोगों और निगमों के अध्यक्षों और उपाध्यक्षों के पदों पर नियुक्त कर उनकी सम्मान वृद्धि करती है, अभी तक यही परंपरा रही है।
   अब सवाल यह उठता है कि क्या योगी सरकार इस परंपरा को तोड़ना चाहती है। भाजपा सरकार की भला यह कैसी सियासी मज़बूरी है जो अपने कार्यकर्ताओं और नेताओं को सम्मानित करने की जगह, वह समाजवादी पार्टी के लोगों को ही बी कांटीन्यू कह रही है?
   असल में भाजपा की रणनीति यह है कि पार्टी में शांति कायम रखी जाय। क्योंकि यहां पुराने समर्पित और अनुभवी कार्यकर्ताओं की भरमार है। सभी को समायोजित किया जा सके इतने पद भी नही हैं। ऐसे में कुछ कार्यकर्ताओं को पद देने का मतलब पार्टी में अशांति का माहौल बनाना है। या इस तरह कहा जाय कि ठहरे हुए पानी में कंकड़ न मार....।
    अगर गंभीरता से विचार किया जाय तो देखने में यह आता है कि इससे पार्टी के गरीब, कमजोर और छोटे कार्यकर्ताओं का ही नुकसान हो रहा है। अपने लोगों का फायदा न हो भले ही दूसरे और पराये लोग कितना भी फायदा उठा ले जाएं। जबकि चुनाव के समय दल बदलकर स्वार्थ के वशीभूत जो बड़े लोग भाजपाई बने थे, जिनका पार्टी के उत्थान में कोई योगदान नही रहा, भाजपा का शीर्ष नेतृत्व उनके हितों के लिए पूरी तरह से सजग रहा। ऐसे अधिकांश बड़े दल बदालुओ को योगी सरकार में कैबिनेट मंत्री बनाया गया।
   भाजपा की यह मतलबी रणनीति आज भले ही उसे मुफीद लग रही हो, परंतु मैं दावे से कहता हूं कि यह एक दिन आत्मघाती साबित होगी। सरकार सिर्फ योगी मोदी शाह या फिर कुछ मुट्ठीभर दल बदलुओं की वजह से नही बनी है। इस सरकार के निर्माण या अस्तित्व में आम कार्यकर्ता का खून पसीना भी शामिल है। यह बात भाजपा का शीर्ष नेतृत्व कहता तो है, लेकिन अब उसे अपने कर्म से इसे साबित भी करना होगा, अन्यथा अगर पार्टी का समर्पित कार्यकर्ता बतौर नींव का पत्थर हिला तो फिर भाजपा के मजबूत दुर्ग को दरकनें से कोई नही रोक पायेगा। दल बदलुए तो फिर अपने लिए कोई न कोई मुफीद नई जगह तलाश ही लेंगे, लेकिन भाजपा का क्या होगा?

मंगलवार, 26 सितंबर 2017

भरे चौराहे ये कैसा महिला सम्मान ? देखिए मात्र 23 सेकेंड का वीडियो

    जो भी लोग लखनऊ को जानते हैं, वो 1090 चौराहे से वाकिफ होंगे। लोहिया पथ पर गोमती नदी या रिवर फ्रंट के किनारे है। महिला सशक्तिकरण के प्रतीक के तौर पर इसका नाम वीमन पॉवर लाइन चौराहा रखा गया।
   
  योगी बाबा की सरकार ने यहां एक जनसंख्या गणना की डिजिटल घड़ी भी लगवा दी है, जो प्रति सेकेंड प्रदेश की जनसंख्या वृद्धि को दर्शाती रहती है। मसखरे लोग उस घड़ी की ओर इशारा कर कहते हैं कि वो देखो वीमन पावर। उनका आशय होता है कि योगी बाबा की सरकार महिलाओं को सिर्फ बच्चा पैदा करने की मशीन भर समझती है, और इसीलिए इस चौराहे पर डिजिटल घड़ी लगाकर अपनी सोंच प्रदर्शित कर रही है। ये घड़ी किसी और जगह क्यों नही लगाई?
   
   अब इसे क्या कहा जाय? मसखरे लोगों का मानसिक दिवालिया पन या फिर सरकारी मशीनरी की संवेदनहीनता? इस वीमन पावर लाइन की थीम  से महिलाओं का सम्मान किया जा रहा या अपमान?

सोमवार, 25 सितंबर 2017

"हरामखोरी" एक विचार कथा

   
हरामखोरी शब्द से हम सभी वाकिफ है। एक तरह से गाली है ये वर्ड। अधिकतर किसी से नाराजगी या गुस्से की स्थिति में ही हम उसके खिलाफ इसका इस्तेमाल करते है। 
  अब गौर से अपने आस-पास देखिए तो पाएंगे कि हरामखोरी एक बड़ी मुकम्मल प्रवृत्ति और विचारधारा बन चुकी है। वो अलग बात है कि इतनी प्रबल और सशक्त विचारधारा की रहनुमाई कोई पार्टी खुल्ले तौर पर नहीं कर रही है। परंतु परोक्ष रूप से इस विचार को प्रोत्साहन देने में कोई पार्टी पीछे नही है।
   कांग्रेस जो देश की सबसे पुरानी पार्टी है। उसके बारे में लोगों में यह आम धारणा है कि इसने आज़ादी के बाद से अब तक हरामखोरी और हरामखोरों के लिए अतुलनीय कार्य किया है। कहा जाता है कि देश की जनता में हरामखोरी जैसे गुण के सर्वतोमुखी विकास के लिए ही उसने नरेगा जैसी खर्चीली योजनाओं को धरातल पर उतारा था। जिसे जनता ने हांथों-हाँथ लिया।

 कहते हैं सिर्फ नरेंद्र भाई ही कांग्रेस के इस आभिनव प्रयोग के मर्म को समझ पाए। उन्होंने देश के अधिकांश हरामखोरों को एक कूट संदेश दिया कि नरेगा में भी आपको कुछ न कुछ तो करना ही पड़ता है, जैसे प्रधान को पटाना और कमीशन बाज़ी का परसेंट तय करना आदि आदि, तब जाके आपके अकाउंट में कुछ रुपया देखने को मिलता है। मैं एक ऐसी योजना लांच करूँगा, जिससे कि आपके अकाउंट में बगैर कुछ किये धरे ही 15 लाख दिख जाएंगे। फिर क्या था, इसी विचारक्रांति नें उन्हें भी देश का शहंशाह बना दिया।
 
 माना जाता है कि देश का अभिजात्य वर्ग पैदाइशी हरामखोर होता है। जैसे कि माल्या और ललित मोदी। ये हरामखोरों के खुल्लमखुल्ला आदर्श महापुरुष देश के गरीब और मेहनतकशों का खरबों रुपया पीकर देश छोङ गए। देेश का एनपीए घाटा अगर आज 9 लाख करोड़ के पार पहुंच गया है तो इसमें इन हरामखोरों की अतुलनीय भूमिका है। अपार खुशी तब होती है, जब हमारी चुनी गई सरकारें भी इस विचारक्रांति में अपना गुप्त सहयोग देती हैं।
देश की रीढ़ किसान में भी ये पार्टियां इस बीज का रोपण करने के लिए उनका कर्ज़ माफ करती हैं। बस अब तो सिर्फ उस दिन का सुशील अवस्थी बेशब्री से इंतज़ार कर रहा है, जब इस विचारक्रांति की संवाहक बनने के लिए कोई पार्टी अपना नाम रखे और खुले तौर पर काम भी करती दिखे। जैसे भारतीय हरामखोर पार्टी, दल, मंच, महासंघ आदि आदि।



दक्षिण भारत का शिमला है, तमिलनाडु का "ऊटी" हिलस्टेशन

 
   जब भी देश में पर्यटन के लिए हिल स्टेशन की बात की जाती है तो ऊटी का नाम लिए बगैर यह चर्चा पूरी नही होती। इसी महीने की एक तारीख को मुझे भी ऊटी जाने का मौका मिला। तमिलनाडू प्रान्त में स्थित करीब 1 लाख की आबादी वाला यह छोटा सा कस्बा जो कि उदगमण्डलं के सरकारी नाम से जिला मुख्यालय भी है, बेहद खूबसूरत है। चारों तरफ दूर-दूर तक बादलों से बातें करती पहाड़ों की चोटियों के बीच स्थित यह कस्बा अपने बेहतरीन प्राकृतिक नज़ारों के लिए सिर्फ हिंदुस्तान ही नही बल्कि सारी दुनिया में क्यों जाना जाता है, यह सिर्फ यहां पहुंचकर ही जाना जा सकता है।
   
मैं कर्नाटक की राजधानी बंगलुरु से यहां के लिए निकला था, इसलिए ऊटी से करीब 50 किमी पहले मुदमलइ अभ्यारण्य रास्ते में ही पड़ा। मुदमलाई अभ्यारण्य सांभर, चीतल, हिरण, बाघ, और हथियो के लिए प्रसिद्ध है। जंगली जानवरों को उनके घर जंगल में खुला और आज़ाद होकर विचरण करते हुए देखना अपने आप में मेरे लिए एक अनोखा अनुभव था।
   
ऊटी जाना और डोडाबीटा न देखना यह नही हो सकता। डोडा बीटा असल में ऊटी के सबसे ऊंचे पहाड़ की चोटी है। जहां से न सिर्फ पूरे ऊटी के दिलकश नज़ारों को देखा जा सकता है, बल्कि कोयम्बटूर के मैदानी इलाकों का भी दृश्यावलोकन हो जाता है।
   
वापसी टीपू सुल्तान के पैतृक नगर मैसूर से हुई। उनकी कब्र को देखना उन लोगों के लिए टीपू सुल्तान के दीदार सरीखा ही है, जो उनके इतिहास से वाकिफ है। मैसूर पैलेस की सुंदरता का तो शब्दों से वर्णन नही किया जा सकता। इसीलिए इसके कुछ नज़ारे आप सबको दे रहा हूँ।
फिर जाम और दुनियाभर का झाम भरा शहर बंगलुरु और वहां से दिल्ली की फ्लाइट, फिर वहां से लखनऊ, लेकिन ऊटी अब भी मेरे जेहन में रोज़ अपनी सुंदर स्मृतियों के रूप में दस्तक देता रहता है। इन स्मृतियों के हम सफर श्री राजेश मििश्र।


ममता का साथ छोंड़ेंगे मुकुल रॉय, दुर्गा पूजा के बाद करेंगे घोषणा

   पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री को ममता बनर्जी को सोमवार को बड़ा झटका लगा है. उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस के कद्दावर नेता मुकुल रॉय ने पार्टी कार्यसमिति से इस्तीफा दे दिया है. द इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक पार्टी के संस्थापक सदस्यों में शामिल रहे मुकुल रॉय ने दुर्गा पूजा के बाद पार्टी और राज्यसभा की सदस्यता छोड़ने की भी घोषणा की है.
कोलकाता में मीडिया से बातचीत करते हुए मुकुल रॉय ने कहा, ‘जब 17 दिसंबर 1997 को तृणमूल कांग्रेस का गठन हुआ तो मैं पहला व्यक्ति था जिसने उस प्रस्ताव पर दस्तख़त किए थे. इसीलिए आज जब मैं ख़ुद को पार्टी से अलग करने की घोषणा कर रहा हूं तो मेरा दिल भारी है. मेरे इस फैसले के पीछे ठाेस कारण हैं. मैं इनके बारे मे दुर्गा पूजा के बाद बताऊंगा. मैंने कार्यसमिति की सदस्यता छोड़ने के फैसले के बारे में ईमेल की ज़रिए (पार्टी नेतृत्व को) सूचना भेज दी है.’
उन्होंने कहा, ‘राज्य सभा के सदस्य के तौर पर मेरा आठ महीने का कार्यकाल बचा है. लेकिन दुर्गा पूजा के बाद मैं वह भी छोड़ रहा हूं. साथ ही पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से भी इस्तीफा देने जा रहा हूं.’ ग़ौरतलब है कि मुकुल रॉय के बारे में बीते कई महीनों से ये अटकलें चल रही थीं कि पार्टी प्रमुख ममता बजर्नी के साथ उनके संबंध लगातार ख़राब होते जा रहे हैं. कुछ ख़बरों में उनके भाजपा में शामिल होने की बात भी कही जा रही है.
हालांकि एक वक़्त ऐसा भी था जब मुकुल रॉय को तृणमूल कांग्रेस में ममता बनर्जी के बाद निर्विवाद रूप से दूसरे नंबर का नेता माना जाता था. बंगाल और उसके बाहर पार्टी संगठन का विस्तार करने और उसके प्रबंधन की ज़िम्मेदारी उनके ऊपर थी. चुनाव के दौरान पार्टी की रणनीति को भी वही अंतिम रूप देते थे. लोकसभा के पिछले चुनाव में भी पार्टी की रणनीति उन्होंने तय की थी. उन्हें पार्टी का संकटमोचक माना जाता था. यहां तक कि ममता ने जब पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए रेल मंत्री के तौर पर इस्तीफा दिया तो उन्होंने ख़ुद अपनी जगह लेने के लिए मुकुल को चुना. इसके बाद वे मार्च से सितंबर 2012 तक रेल मंत्री रहे भी. हालांकि 2014 के लोकसभा चुनाव के कुछ समय बाद दोनों के बीच संबंध लगातार बिगड़ते गए और आज मुकुल अलग राह पर चल दिए हैं.

रविवार, 24 सितंबर 2017

नवरात्रि में सिर्फ देवी के 32 नाम श्रद्धा पूर्वक जपें, मनोकामना होगी पूरी

   
     देवी के 32 नाम है.. हर एक नाम अपने आप में ही एक सिद्ध मंत्र है... मात्र इन नाम का उच्चारण करने से ही देवी की पूजा और दुर्गा सप्तशती पाठ का फल भी आपको प्राप्त होगा ....इन नाम को जब आप कह लेते हैं एक-एक नाम अच्छे से , देवी का स्मरण कर लेते हैं ,उसके बाद ही आप अपनी प्रार्थना कहे तब आपकी पूजा संपन्न होगी..

वह 32 नाम कौन से हैं आइए जानते हैं...
🌹 दुर्गा, 
🌹दुर्गातिशमनी, 
🌹दुर्गापद्धिनिवारिणी, 
🌹दुर्गमच्छेदनी, 
🌹दुर्गसाधिनी, 
🌹दुर्गनाशिनी, 
🌹दुर्गतोद्धारिणी, 
🌹दुर्गनिहन्त्री, 
🌹दुर्गमापहा, 
🌹दुर्गमज्ञानदा, 
🌹दुर्गदैत्यलोकदवानला, 
🌹दुर्गमा, 
🌹दुर्गमालोका, 
🌹दुर्गमात्मस्वरूपिणी, 
🌹दुर्गमार्गप्रदा, 
🌹दुर्गम विद्या, 
🌹दुर्गमाश्रिता, 
🌹दुर्गमज्ञानसंस्थाना, 
🌹दुर्गमध्यानभासिनी, 
🌹दुर्गमोहा, 
🌹दुर्गमगा, 
🌹दुर्गमार्थस्वरूपिणी, 
🌹दुर्गमांसुरहंत्रि, 
🌹दुर्गमायुधधारिणी, 
🌹दुर्गमांगी, 
🌹दुर्गमाता, 
🌹दुर्गम्या, 
🌹दुर्गमेश्वरी, 
🌹दुर्गभीमा, 
🌹दुर्गभामा, 
🌹दुर्गभा, 
🌹दुर्गदारिणी।
😊

भारत के कद से छोटा था संयुक्त राष्ट्र में दिया गया सुषमा स्वराज का भाषण

     
    अपनी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में जबरदस्त भाषण किया। हिंदी में दिए गए उनके भाषण की भारत में खूब प्रशंसा हुई। माना जा रहा है कि उनके भाषण से दुनिया के सामने पाकिस्तान बेनकाब हुआ है।
     माफ करियेगा मेरा मानना आप सबसे एकदम जुदा है। मेरा मानना है कि सुषमा का यह भाषण भारत की औक़ात औऱ कद से छोटा था। भाषण की भाषा हिंदी बताती है कि वो दुनिया के सबसे बड़े मंच से दुनिया को नहीं बल्कि भारत के तथाकथित राष्ट्रवादियों को संबोधित कर रहीं थी, जो कि उनकी अपनी पार्टी भाजपा के प्रतिबद्ध वोटर हैं।
  भारत दुनिया की तीन बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शामिल है। ब्रिक्स देशों में शामिल है, और संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद की स्थायी सीट का स्वाभाविक दावेदार। लेकिन उसका भाषण गली मोहल्ले की आपसी लड़ाई से ऊपर न उठ सका। पाक पीएम ने जहां इंग्लिश में भाषण देकर दुनिया को संबोधित किया वहीं हिंदी में भाषण देकर सुषमा दुनिया की जगह भारत को ही संबोधित करती रही।
  अब जब दुनिया में अमरीका की स्वीकार्यता घट रही है। चीन की साम्राज्यवादी नीतियों से पूरी दुनिया परिचित है। रूस की कमजोर अर्थव्यवस्था और घटती साख विश्व फलक पर एक नए नेतृत्वकर्ता राष्ट्र के लिए सुनहरा अवसर उपलब्ध करा रहे हैं, तब भारत जैसे सामर्थ्यवान देश का भारतीय उपमहाद्वीप के पिद्दी जैसे देश पाकिस्तान की घेराबंदी में ही इतने बड़े मंचों का इस्तेमाल चूतियापे से ज्यादा कुछ नही है।
   बेहतर होता कि सुषमा के भाषण का नजरिया वैश्विक होता। भारत दुनिया में बढ़ रहे चरमपंथ और जलवायु परिवर्तन पर अगर कोई कार्यक्रम या रणनीति दुनिया के सामने रखता तो वो इस क्षेत्रीय चूतियापे से ज्यादा उचित होता। ये तो वही बात हुई कि अगर कोई शिकारी जिसके पास हर तरह के हथियार हों और वो चिड़िया मारने के लिए बम का इस्तेमाल कर बैठे।
सुशील अवस्थी "राजन"
9454699011

शनिवार, 23 सितंबर 2017

खबर और विज्ञापन के बीच फंसी पत्रकारिता


     खबर और विज्ञापन का चोली-दामन का साथ है। विज्ञापन कभी-कभी खबरों पर हावी हो जाता है। हर मीडिया समूह को चलाने के लिए विज्ञापन जरूरी है, परंतु विज्ञापन जगह तो खबरों की ही खाता है। यानी विज्ञापन खबरों की जमीन पर अवैध कब्जेदार है। जहां टीवी चैनल एकाएक एक छोटा सा ब्रेक कहकर हमें विज्ञापनों के अनचाहे बियाबान जंगल में तन्हा छोङ जाते हैं, तो वहीं नामी-गिरामी अखबार भी सिर्फ विज्ञापनों को सजाने के लिए अब कई-कई मुखपृष्ठ छापने लगे हैं। यानी सभी मीडिया संस्थान खबरों की हमारी चाहत पर अपनी विज्ञापनी जिद लादते हैं। विज्ञापन किसी भी पाठक या दर्शक की पसंदीदा चाहत नहीं बल्कि अनचाही मज़बूरी है।
    ये विज्ञापनों के प्रति बड़े-बड़े मीडिया समूहों की चाहत का ही नतीजा है कि जन मानस में अलग-अलग मीडिया समूहों को लेकर पक्षपात पूर्ण धारणाएं दिन ब दिन मज़बूत होती जा रही हैं। एक पत्रकार होने के नाते मैने काफी नजदीक से देखा है कि मीडिया समूह कुछ एक लाख रुपयों के लिए किस तरह सरकारों की आलोचना की जगह यशगान करने लगते हैं। मैं इस तरह के कृत्यों को देश की जनता और संविधान के साथ धोखा मानता हूं।
    गूगल जैसे प्रोडक्ट कुछ हद तक पोर्टल न्यूज़ को यह आज़ादी देते हैं कि अगर वो चाहें तो कुछ पैसों के लिए सरकारों और औद्योगिक घरानों के सामने अपनी निष्पक्षता को गिरवी न रखें। उनके लिए विज्ञापनों की व्यवस्था खुद गूगल करता है। पोर्टलों को सिर्फ पेज हिट के लिए बेहतरीन और निष्पक्ष आर्टिकल की व्यवस्था का ही जिम्मा होता है। लेकिन भारत जैसे देश में न्यूज़ पोर्टलों पर अभी जन मानस का वह विश्वास नहीं कायम हो सका है, जो कि अखबारों और टीवी चैनलों के प्रति है। थोड़ा वक्त लगेगा और लोग पोर्टल न्यूज़ों को भी अहमियत देंगे, ऐसा मेरा अपना विश्वास है।
    इन्हीं सब बातों के मद्देनजर मैंने भी ब्लॉगिंग पर भरोसा कर अपने ब्लॉग "काल" kaaall.blogspot.com को तेजी से प्रमोट किया। आज हालत यह है कि करीब 500 पेज हिट इसे प्रतिदिन के औसत से हासिल हो रहे हैं, और करीब .50 डॉलर प्रतिदिन की औसत आय भी मिल रही है। आय तभी प्राप्त होती है, जब पेज पर आए पाठक किसी विज्ञापन को भी क्लिक करते हैं। अभी इससे हासिल होने वाली आय बहुत कम है, लेकिन वृद्धि की संभावनाएं प्रबल हैं। इससे यह फायदा होगा कि विज्ञापन के लिए मुझे किसी का बेवजह यशगान नहीं करना पड़ेगा।
सुशील अवस्थी "राजन"
पत्रकार
9454699011

आतंकवाद पर पाक के अड़ियल रुख की वजह से फिर टल सकता है सार्क शिखर सम्मेलन

  सार्क (दक्षिण एशियाई सहयोग संगठन) शिखर सम्मेलन लगातार दूसरे साल टलने की आशंका ज़ताई जा रही है. और पिछली बार की तरह इस बार भी इसकी वज़ह पाकिस्तान ही है. द टाइम्स ऑफ इंडिया के मुताबिक आतंकवाद के मसले पर पाकिस्तान के असहयोगी रवैए की वज़ह से यह आशंका बनी है.
ख़बर के मुताबिक न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र की साधारण सभा की बैठक से इतर भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज सार्क देशाें के अपने समकक्षों से मिली हैं. इस दौरान उन्होंने साफ तौर पर कहा, ‘सार्क अपने उद्देश्यों को हासिल करने में विपल रहा है. संगठन के सदस्य देशों के बीच अब तक मुक्त व्यापार की कोई प्रभावी व्यवस्था नहीं बन पाई है. इसीलिए दक्षिण एशिया क्षेत्र दुनिया में सबसे कम आपसी संपर्क वाले क्षेत्रों में शुमार किया जा रहा है.’
हालांकि उन्होंने इसके साथ ही सार्क को मज़बूत करने के लिए भारत की ओर से किए जा रहे प्रयासों को भी गिनाया. इनमें सार्क उपग्रह का प्रक्षेपण सबसे अहम था. उन्होंने कहा, ‘यह परियोजना क्षेत्र के लोगों के जीवन पर सकारात्मक रूप से असर डालेगी.’ लेकिन गौर करने लायक बात यह रही कि उन्होंने इन बैठकों के दौरान हर साल अमूमन नवंबर में होने वाले सार्क सम्मेलन के बारे में एक शब्द भी नहीं कहा. किसी अन्य देश ने भी इसका ज़िक्र नहीं किया.
यहां बता दें कि साल 2016 में इस्लामाबाद में आयोजित होने वाला सार्क शिखर सम्मेलन भी टल गया था. आतंकवाद के मुद्दे पर ही उस वक़्त भारत सहित बांग्लादेश और अफग़ानिस्तान ने इसमें शामिल होने से इंकार कर दिया था. तीनों देश पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के शिकार हैं. और यहीं पर ग़ौरतलब यह भी है कि संयुक्त राष्ट्र में अभी एक दिन पहले ही भारत और पाकिस्तान के बीच आतंकवाद के मुद्दे पर तीखी बहस हुई है.
सूत्र बताते हैं कि भारत अब पाकिस्तान को किनारे कर सार्क के भीतर ही बने बीबीआईएन (बांग्लादेश, भूटान, इंडिया, नेपाल) समूह को मज़बूत करने के मूड में है. इन देशों के बीच रेल, सड़क और ऊर्जा संपर्क बढ़ाने की कोशिशें की जा रही हैं. इसके अलावा बिम्सटेक (बांग्लादेश, भूटान, इंडिया, म्यांमार, श्रीलंका, थाईलैंड और नेपाल का तकनीकी एवं आर्थिक सहयोग संगठन) को मज़बूती देने की कोशिश भी भारत की ओर से की जा रही है.

शुक्रवार, 22 सितंबर 2017

रोहिंग्या समस्या: यदि बुद्ध होते तो क्या करते?

    म्यांमार में हो रहे नरसंहार से रोहिंग्या मुसलमानों की स्थिति दयनीय के साथ-साथ जटिल भी हो गई है. अपने देश वे जा नहीं सकते, जहां वे सुरक्षित रह सकते हैं वहां से उन्हें निकालने की तैयारी हो रही है, और जो उन्हें आने दे रहा है उसकी क्षमता सीमित है. उनकी हालत ‘न ज़मीं अपनी न आसमां अपना’ वाली है. ऐसे में उनके प्रति सहानुभूति रखने वाला व्यक्ति अच्छी कल्पना से ज़्यादा क्या ही कर सकता है!
बौद्ध धर्म गुरु दलाई लामा ने यही किया. कुछ दिन पहले जब उनसे रोहिंग्या मुद्दे पर सवाल किया गया तो उन्होंने कहा कि अगर बुद्ध होते तो निश्चित ही रोहिंग्या मुसलमानों की मदद करते. आगे उनका कहना था कि जो लोग रोहिंग्याओं को सता रहे हैं उन्हें याद रखना चाहिए ऐसे हालात में बुद्ध निश्चित ही उन कमज़ोर मुसलमानों की मदद करते.
वैसे तो म्यांमार समेत अन्य देशों के पास रोहिंग्या मुद्दे पर दलाई लामा की बुद्ध वाली बात से आंखें फेरने के कई ‘जायज़ बहाने’ हैं, लेकिन बुद्ध अपने आप में ऐसा विचार हैं जिससे आंखें तो फेरी जा सकती हैं, लेकिन मन नहीं. दलाई लामा का यह कहना कि ‘बुद्ध निश्चित ही मदद करते’, उनके जीवन से जुड़ी एक बेहद अहम घटना की याद दिलाता है. यह तब की बात है जब बुद्ध, बुद्ध नहीं थे. उस समय वे सिद्धार्थ थे. यह कम चर्चित घटना बुद्ध के गृह त्याग को लेकर चली आ रही कहानी पर भी सवाल उठाती है, जिसके मुताबिक़ ज्ञान प्राप्ति के लिए राजकुमार सिद्धार्थ आधी रात को सोती पत्नी और पुत्र को छोड़कर चले गए थे.
भारत में बुद्ध और उनके विचारों के विषय में जिन लोगों ने काफ़ी अध्ययन किया उनमें ओशो, राहुल सांकृत्यायन और डॉ बीआर अंबेडकर प्रमुख नाम माने जाते हैं. डॉ अंबेडकर द्वारा लिखे गए ग्रंथ ‘भगवान और उनका धम्म’ में जिक्र है कि कैसे रोहिणी नदी के पानी के उपयोग को लेकर शाक्य और कोलिय राज्य में युद्ध की स्थितियां बन गईं और उस संभावित हिंसा को टालने के प्रयास के चलते बुद्ध को अपना घर तक त्यागना पड़ा.
‘भगवान और उनका धम्म’ में यह वाकया कुछ यूं दिया गया है. शाक्यों के राज्य के पड़ोस में कोलियों का राज्य था. रोहिणी नदी इन दोनों राज्यों को बांटते हुए बहती थी. खेती के लिए दोनों राज्य नदी के पानी का इस्तेमाल करते थे. लेकिन इस पर आए दिन विवाद होता रहता था और जो अक्सर हिंसक हो जाता था. राजकुमार सिद्धार्थ जब 28 साल के थे तो नदी के पानी को लेकर शाक्यों और कोलियों के बीच ऐसा ही एक विवाद हुआ और इसके चलते दोनों पक्षों के कुछ लोग घायल हो गए. इस बार दोनों पक्षों ने सोचा कि इस विवाद को हमेशा के लिए ख़त्म कर दिया जाना चाहिए. उनके सामने इसका सिर्फ एक जरिया था - युद्ध.
उस समय शाक्यों का अपना संघ होता था. सिद्धार्थ इस संघ के सदस्य थे. नई परिस्थितियों के बीच शाक्यों के सेनापति ने युद्ध के सवाल पर चर्चा करने के लिए संघ का एक अधिवेशन बुलाया. यहां उसने सदस्यों से कहा, ‘हमारे लोगों पर कोलियों ने आक्रमण किया. इसलिए हमें पीछे हटना पड़ा. कोलियों ने इससे पहले भी अनेक बार ऐसी आक्रामक कार्रवाइयां की हैं. हमने अब तक उन्हें सहन किया है, लेकिन ऐसा हमेशा नहीं चल सकता. इसे रोका जाना चाहिए और इसे रोकने का एक ही रास्ता है कि कोलियों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की जाए.’
युद्ध में क्या होता है, यह वहां मौजूद सभी व्यक्ति जानते थे. इसके बावजूद ज्यादातर लोग इसके पक्ष में थे. वहीं जो युद्ध के विरुद्ध थे वे सेनापति के सामने अपनी बात रखने का साहस नहीं जुटा पाए. तभी राजकुमार सिद्धार्थ गौतम उठे. उन्होंने कहा, ‘मैं इस प्रस्ताव का विरोध करता हूं. युद्ध से किसी प्रश्न का समाधान नहीं होता. इससे हमारे उद्देश्य की पूर्ति नहीं होगी.’ सिद्धार्थ का कहना था, ‘किसी की हत्या करने वाले को कोई दूसरा हत्या करने वाला मिल ही जाता है. जो किसी को जीतता है उसे कोई दूसरा जीतने वाला मिल ही जाता है. जो आदमी किसी को लूटता है उसे कोई और लूटने वाला मिल ही जाता है.’ सिद्धार्थ ने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा कि शाक्यों को युद्ध को लेकर जल्दबाज़ी नहीं करनी चाहिए. उन्होंने पूरी निष्पक्षता के साथ कहा कि पहले इस बात की जांच हो कि जो भी हिंसा हुई उसमें वास्तव में दोषी कौन था. उन्होंने आगे कहा, ‘मैंने सुना है कि हमारे आदमी भी आक्रामक रहे हैं. अगर ऐसा है तो साफ़ तौर पर हम भी निर्दोष नहीं हैं.’
मामले की संवेदनशीलता को देखते हुए सिद्धार्थ ने एक प्रस्ताव रखा. उन्होंने कहा कि घटना की जांच के लिए पांच सदस्यीय समिति बनाई जाए जिसमें दो शाक्य और दो कोलिय मिलकर पांचवें सदस्य को चुनें और फिर ये सभी मिलकर झगड़े का समाधान करें. सिद्धार्थ के इस प्रस्ताव का समर्थन तो हुआ लेकिन सेनापति युद्ध पर उतारू था. इसलिए प्रस्ताव को मतदान के लिए रखा गया.
सेनापति का विरोध सफल रहा. प्रस्ताव अमान्य हो गया. इसके बाद सेनापति ने अपने युद्ध के प्रस्ताव पर मत मांगे. सिद्धार्थ ने फिर इसका विरोध किया. इस पर सेनापति ने सिद्धार्थ को क्षत्रिय धर्म याद दिलाते हुए कहा कि युद्ध में अपना-पराया नहीं होता और राज्य के हित के लिए सगे भाइयों से भी लड़ना पड़ता है. सिद्धार्थ ने जवाब देते हुए कहा, ‘जहां तक मैं समझता हूं, धर्म तो इस बात को मानने में है कि वैर से वैर कभी शांत नहीं होता. यह केवल अवैर (यानी प्रेम) से ही शांत हो सकता है.’ अब सेनापति का सब्र टूट गया. सिद्धार्थ से दार्शनिक शास्त्रार्थ में उलझने के बजाय उसने सीधे मत की मांग की. उसका प्रस्ताव भारी बहुमत से पारित हो गया.
अगले दिन युद्ध में शामिल होने के लिए सेना में भर्ती को लेकर फिर बैठक बुलाई गई. इसमें प्रस्ताव रखा गया कि 20 से 50 वर्ष के प्रत्येक शाक्य को कोलियों के विरुद्ध युद्ध करने के लिए सेना में भर्ती होना होगा. सभा में सिद्धार्थ के प्रस्ताव को स्वीकार करने वाले अल्पमत सदस्य भी मौजूद थे. बहुमत का विरोध करने का परिणाम जानने के चलते उनमें से किसी में कुछ कहने का साहस नहीं बचा. समर्थकों को मौन देखकर सिद्धार्थ एकबार फिर खड़े हुए. उन्होंने कहा कि न तो वे सेना में भर्ती होंगे और न ही कोलियों से युद्ध करेंगे.
सेनापति ने सिद्धार्थ से संघ का सदस्य बनते समय ली शपथ याद करने की बात कहते हुए कहा कि अगर उन्होंने इसका पालन नहीं किया तो वे सार्वजनिक निंदा के पात्र बनेंगे. इस पर सिद्धार्थ ने उत्तर दिया, ‘हां, मैंने अपने तन, मन और धन से शाक्यों के हितों की रक्षा करने का वचन दिया है. लेकिन मैं नहीं समझता कि यह युद्ध शाक्यों के हित में है. शाक्यों के हित की अपेक्षा सार्वजनिक निंदा का मेरे लिए कोई मूल्य नहीं.’
अब सेनापति ने सिद्धार्थ को सीधे धमकी दी कि अगर उन्होंने संघ के पारित प्रस्ताव को नहीं माना तो उनके परिवार का बहिष्कार और उनके खेतों को ज़ब्त भी किया जा सकता है. सिद्धार्थ को युद्ध का विरोध करते ही रहना था इसलिए वे समझ गए थे कि परिणाम क्या होने वाला है. अब उनके सामने तीन विकल्प थे. एक, युद्ध करें. दो, मृत्युदंड या देश निकाला स्वीकार करें. तीन, परिवार का सामाजिक बहिष्कार स्वीकार करें. पहला और तीसरा उन्हें स्वीकार नहीं था सो उन्होंने कहा कि उन्हें मृत्युदंड (फांसी) या देश निकाला में से जो भी मिले, स्वीकार होगा. लेकिन कोसलराज राज्य के प्रभाव के चलते सिद्धार्थ को इन दोनों विकल्पों में से कुछ भी देना संभव नहीं था.
इसलिए इस समस्या के समाधान के रूप में सिद्धार्थ ने कहा कि वे परिव्राजक (भ्रमण करनेवाला संन्यासी) बन जाएंगे. उनका तर्क था कि यह भी एक तरह का ‘देश निकाला’ ही है. उन्होंने वचन दिया कि वे इसके लिए अपने माता-पिता से भी अनुमति ले लेंगे. हिंसा को किसी भी क़ीमत पर स्वीकार नहीं करने वाले उस 28 साल के ‘विद्रोही’ ने तब घोषणा की, ‘मैं वचन देता हूं कि अनुमति मिले या ना मिले, मैं तुरंत यह देश छोड़ दूंगा.’ इस तरह सिद्धार्थ ने देश निकाला स्वीकार किया और इसी से उनके गृह त्याग का आधार तैयार हुआ.
इस पूरे प्रसंग में म्यांमार के बौद्धों और शांति का नोबेल पुरस्कार जीत चुकीं आंग सान सू की के लिए कई सबक़ हो सकते हैं. जैसे कि सिद्धार्थ शाक्य संघ के सदस्य थे, इसके बावजूद वे अहिंसा के प्रति संवेदनशील और न्याय के प्रति विवेकशील बने रहे. इसके साथ ही निर्दोष रोहिंग्या मुसलमानों के ख़िलाफ़ हो रही हिंसा पर बौद्ध बहुमत वाले म्यांमार के लिए सिद्धार्थ गौतम की यह बात कितनी सटीक बैठती है कि निर्दोष तो उनके अपने समुदाय से संबंधित शाक्य लोग भी नहीं थे. म्यांमार में तो साफ़ दिख रहा है कि किसकी तरफ़ से हिंसा ज़्यादा है.
वैसे बात को थोड़ा आगे बढ़ाया जाए तो भारत भी इस पर ग़ौर कर सकता है. बुद्ध के जन्मस्थान के रूप में वह अनगिनत बार दुनिया को शांति का संदेश दे चुका है. आगे भी देगा. अब तो म्यांमार के हिंदू भी भारत से उम्मीद लगा रहे हैं.

योगी का एक मंत्री.. जिसे निपटाने के लिए रचा गया बड़ा षडयंत्र हुआ नाकाम

  सुशील अवस्थी 'राजन' चित्र में एक पेशेंट है जिसे एक सज्जन कुछ पिला रहे हैं। दरसल ये चित्र आगरा के एक निजी अस्पताल का है। पेशेंट है ...