आज ही के दिन सात साल पहले उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ ने हिंदुओं के अकीदे का मजाक उडाया था। राम जन्मभूमि के तीन टुकडे कर डाले थे । आज दशहरा है। उस युग मे इसी दिन राम लंका जीते थे | हिन्दुओं को अब याद आया 6 दिसंबर 1992, जब नेक सुन्नी, जनवादी राष्ट्रपति, अमरीकी साम्राज्यवाद का शत्रु, रोजाना पांच बार नमाज अदा करने वाले, सेक्युलर राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन अलटिकरीती ( Saddam Hussein ) जिस ने कहा था “कोई पुराना ढांचा गिरा हैं”। समाजवादी बगदाद मे तब दंगे नही हुये थे ।
तो अब कोर्ट तय करेगा क्या कि राम का जन्म अयोध्या में हुआ था ? यह बड़ा अटपटा, असंगत लगता है। जैसा लोहिया ने कहा था कि करोड़ों के जनमानस में युगों से रमे राम की बाबत ऐसी सतही चर्चा होनी ही नहीं चाहिए। फिर भी उच्च न्यायालय (लखनऊ खंडपीठ) के तीन विद्वान न्यायमूर्तियों ने ऐसा निर्णय दे ही दिया। मगर कानून के बजाय आस्था को पुख्ता किया है। अतः आस्था बनाम कानून पर चर्चा तो देश में चलनी चाहिए।
अयोध्या-निर्णय पर चली उद्दाम बहस का सार यही है कि 30 सितम्बर 2010 की कानून तथा आस्था में घालमेल से कोर्ट को बचना चाहिए था। विशेषकर इसलिए कि भारत इस्लामी राष्ट्रों जैसा नहीं है, जो न सेक्युलर हैं और न समाजवादी ही। अतः इस न्यायिक खल्तमल्त के कारण कुछ प्रगतिशील हिन्दुओं तथा अकीदतमन्द ईमामों और मुल्लाओं के सुविचारित सुवाच्य की अभिधा की सम्यक मीमांसा होनी चाहिए, ताकि सेक्युलरवाद की ओट में इस बहस को अवांछनीयजन हाईजैक न कर लें। पिछले महीने मे सर्वोच्य न्यायालयने तीन तलाक को अवैध करार दिया। इस क्रम में याद कर लें कि सड़सठ वर्ष पहले संविधान निर्माताओं ने न्याय प्रक्रिया की हिफाजत तथा निष्पक्षता हेतु उसे निर्वाचित संसद और विधान मण्डल के ऊपर रखा था। खासकर मूलाधिकारों की व्याख्या और पालन के काम में न्यायालयों को शिखाग्र का स्थान दिया गया था। अतः अयोध्या वाले फैसले के सिलसिले में विचारणीय बिन्दु यह है कि राष्ट्र के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों और निर्देशों को क्यों नकारा जाता रहा ? मसलन दो दशक पूर्व अदालते-आलिया ने एक मजलूम परित्यक्ता शाह बानो को अपने शौहर से जीवन निर्वाह हेतु मुआवजा पाने का हक दिलवाया। अब यह विधिसम्मत निर्णय तो था मगर मान्य मज़हबी आस्था के अनुकूल नहीं था। राजनैतिक बवाल मचा। घबड़ाकर राजीव गाँधी ( Rajive Gandhi )ने संसद से कानून बनवा दिया और सर्वोच्च न्यायालय के नारीसमर्थक निर्णय को नकारा बना दिया। सेक्युलरवाद के पक्षधर आरिफ मोहम्मद खान ने विरोध किया। काबीना से त्यागपत्र दिया। कहाँ हैं मिल्लत में आज आरिॅफ मोहम्मद खान ?
अयोध्या निर्णय पर फिर गौर करें। आस्था, आदर्श, नैतिकता के बजाय कोर्ट को तर्क, साक्ष्य, तथ्य आदि पर निर्भर रहना चाहिए। यही अभिमत है कई प्रगतिशील लोगों का। अयोध्या पर हाईकोर्ट के फैसले की भर्त्सना में उनकी टिप्पणी बड़ी सटीक थी। वकील राजीव धवन ने कहा कि भावनात्मकता को अदालती जामा पहनाया गया है। पूर्व प्रधान न्यायाधीश ए.एम. अहमदी ने कहा कि इतिहास पर से यकीन उठ गया है। अहमदी साहब उस खण्डपीठ के न्यायमूर्ति थे जब 1994 में राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा ने सर्वोच्च न्यायालय से जानना चाहा था कि जाँच करके बतायें कि अयोध्या में क्या मन्दिर था, जिस पर मस्जिद बनाई गई ? खण्डपीठ ने राष्ट्रपति के प्रस्ताव को खारिज कर दिया। (अहमदी साहब मशहूर हुए जब भोपाल गैस त्रासदी के अभियुक्त के अपराध की गंभीरता को उन्होंने कमतर आंका था।) हालांकि शायद कोर्ट का यह भी कारण हो सकता था कि न्यायालय का यह काम नहीं है कि वह पड़ताल करे कि चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य अथवा जहीरूद्दीन बाबर द्वारा निर्माण किस सदी में हुए हैं ? तो अब अपील का निस्तारण करते समय क्या उसी 1994 वाली बात पर सर्वोच्च न्यायालय विचार करेगा ? अथवा पुरातत्व निष्णातों की खोज को कानूनी प्रमाण मानेगा क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने ही कहा था कि विशेषज्ञों की राय को न्यायालय को लाजिमी तौर पर स्वीकार करना चाहिए। तब न्यायालय का निर्देश था कि डीएनए परीक्षण पर शक नहीं किया जा सकता। उस मुकदमें में पितृत्व निर्धारित करने का प्रश्न था।
यदि सर्वोच्च न्यायालय आस्था की बात को खारिज कर कानून का साक्ष्य मांगे। कहे कि राम एक मिथक थे। अतः रामलला की मूर्ति हटाई जाय, मस्जिद निर्मित हो और पूरी जमीन जो मुगल लुटेरों ने हिन्दुओं से छीनी थी, सुन्नी वक्फ बोर्ड को दे दी जाय। कानून के मुताबिक शायद ऐसा ही हो। पर क्या वह क्रियान्वित हो सकता है ? मान भी लें कि जलसेना सरयू नदी में, थलसेना फैजाबाद में और वायुसेना उत्तर प्रदेश की पुलिस की मदद में आ जाय तो भी ऐसा निर्णय लागू हो सकेगा ?
मनमोहन सिंह सरकार ने रामसेतु वाले मुकदमें में हलफनामे में सर्वोच्च न्यायालय में दावा किया था कि राम के नाम का पुरूष काल्पनिक है। हालांकि जनाक्रोश के चलते हलफनामा बदला गया था। गमनीय बिन्दु वही है कि कानून के सामने आस्था के मायने क्या है ? अतः यदि राम का अवतरण ही कानूनी तौर पर सिद्ध नहीं हो सकता है तो आस्था की संदिग्धता वाली बात अन्य धार्मिक विश्वासों तक भी जाएगी। अविवाहिता मेरी के पुत्र यीशू मसीह का जन्म, अलअक्सा मस्जिद से नबी का सशरीर स्वर्ग तक जाना, येरूशलम में यहूदी पैगम्बर का समुद्र के मध्य से अपने अनुयायियों को सड़क दिलवाना। युगों से चली आ रही इन आस्थाओं को अदालत में साबित करने का साक्ष्य कहां मिलेगा ?
फिर भी इन प्रगतिशील हिन्दुओं तथा अकीदतमन्द ईमामों और मुल्लाओं के दावे और आलोचना का मान रखते हुए सेक्युलर भारतीय गणराज्य में कानून को ही सर्वोपरि स्थान देना होगा। आस्था दोयम दर्जे पर है। अर्थात् फिर कानूनी कार्रवाही करनी पड़ेगी कुछ विपरीत आस्था के मुद्दों पर। मसलन पोलियों बिन्दु को पिलाने पर मनाही जिस आस्था में है वह भ्रामक है। तीन बार ईमेल से तलाक संप्रेषित करने से विवाह संबंध का विच्छेद नहीं हो सकता। बच्चन की मधुशाला पढ़ने मात्र से शराबखोरी समझा जानेवाला फतवा अमान्य होगा। सानिया मिर्जा की स्कर्ट जितनी भी लम्बी हो वह आस्था के दायरे में नहीं परखी जाएगी। गांधीवादी शिक्षा संस्थान जामिया मिलिया के बहुलतावादी सेक्युलर रूप को विकृत कर सम्प्रदाय विशेष के लिए आरक्षित नहीं किया जाएगा।
इसी क्रम में गतसदी के इतिहास के पृष्ट भी पलट लें। लेनिनवादी सोवियत संघ ने मध्येशियाई मुस्लिम राष्ट्रों को सैन्यबल के जरिये अनीश्वरवादी बना डाला था। वहाँ की मस्जिदों को जानबूझकर जोसेफ़े स्टालिन ने संगीत सभागार मे परिवर्तित कर दिया था। तब कानून को आस्था के ऊपर रखने वाली नीति के घातक तथा विकराल नजारे भी दिखे। उजबेक, किरगीजिया, कजाक, तुर्कमेंनिस्तान, ताजिकिस्तान आदि सोवियत मुस्लिम प्रदेशों के शहरों में बोल्शेविक संसद और लाल सेना ने मार्क्सवादी नास्तिकता थोपी थी। आस्था कुचली गई। मगर जैसे ही सोवियत कानून शिथिल पड़ा, इस्लाम फिर सिर उठाकर उभरा। कश्मीर के पड़ोस के उईगर प्रदेश में जनवादी चीन ने नमाज पर पाबन्दी आयद कर दी। मस्जिदों के सामने ही घेंटे के गोश्त के विक्रय केन्द्र खोलने के लाइसेन्स जारी कर दिये थे। लगा कि इस प्रगतिशील जनवादी कम्युनिस्ट राज में आस्था केवल म्यूजियम की चीज हैं। पुनीत मक्का के समीपवर्ती राज्यमार्गों पर सड़क चौड़ी करने के वक्त ऐतिहासिक मस्जिदों को सऊदी शासन ने ध्वस्त किया ताकि आवागमन के नियम तेजी से लागू हो सकें। तो ये वाकये विधिवेत्ता की दृष्टि में नागरिक सुविधाओं को मजहबी सोच से ऊपर उठाने की अपरिहार्यता कहलाएगी।
आज अयोध्या विवाद को धारधार बनानेवालों को याद होगा कि जब आस्था पर आधारित नये राष्ट्र पाकिस्तान के लिए रायशुमारी हुई थी तो उत्तरपश्चिमी मुस्लिम बहुल प्रदेशों में पृथक राष्ट्र की मांग को समर्थन नहीं मिला था। हिन्दीभाषी प्रदेशों के नब्बे फीसदी मुसलमानों ने विभाजन का समर्थन किया था। उस युग के क्षेष्ठतम हिन्दु महात्मा गांधी ने कहा था कि आस्था के नाम पर कौम का बटवारा अमान्य है, मानवताविरोधी है। मगर कमान सेक्युलरवादी पंडित जवाहरलाल नेहरू के हाथ थी। वे जिन्ना से सहमत थे। आस्था की क्रूर विजय हूई। इन्सानी मूल्य तिरस्कृत हुए। तभी का एक किस्सा था। ब्रिटिश राज द्वारा पाकिस्तान की स्थापना की घोषणा पर नवनियुक्त गवर्नर जनरल मोहम्मद अली जिन्ना ने 13 अगस्त 1947 को कराची में शानदार लंच दिया। इतिहास में आस्था की जीत पर यह उत्सव था। तभी उनके परिसहायक ने उनके कान में फुसफुसाया कि मुकद्दस रमजान महीने की अन्तिम जुमेरात है और रोजा अभी चालू है। तो ऐसी इब्तिदा थी इस्लामी पाकिस्तान की आस्थाभरी यात्रा की। तुलनात्मक रूप से भारत में अकीदे को पर्याप्त श्रद्धा, मर्यादा और सम्मान प्राप्त होता रहा है, क्योंकि जहां कानून की इति होती है, वहीं से आस्था का आगाज़ होता है। आस्था का राजनीति में बदल जाने में समय नहींे लगता। आज भारत में ऐसा ही गेम खेला जा रहा है। अम्पायर (अदालत) की मानी नहीं जा रहीं है। डालर और दीनार का इतना जोर ?
K Vikram Rao
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