गुरुवार, 22 जून 2017

आखिर कब तक बजेगी दलितवाद की पीपड़ी?

हिंदुस्तान के लोकतंत्र का एक और महा मुकाबला अब देश और दुनिया देखेगी। दुनिया में सामाजिक न्याय का पितामह देश भारत अब दुनिया को अपने राष्ट्रपति चुनाव में दलित वॉर के दर्शन करायेगा। एक तरफ एनडीए के रामनाथ कोविन्द प्रत्याशी होंगे तो दूसरी तरफ यूपीए की मीरा कुमार। इस राष्ट्रपति चुनाव में दलितवाद की पहली पीपड़ी भाजपा नें तब बजायी, जब उसने रामनाथ कोविन्द को अपना प्रत्याशी बनाया, जबकि उसके पास और बेहतरीन विकल्प मौजूद थे। दरसल 2019 में होने वाला आम चुनाव भाजपा के निशाने पर है। विकासवाद की राष्ट्रीय फ्रेंचाइजी सँभालने वाली भाजपा जानती है कि अच्छे दिन का वादा करके एक बार सत्ता हासिल की जा चुकी है, फिर से वह राग अब देश की जनता कहाँ सुनेगी? कांग्रेस भी दलित दलित चिल्लाकर रोना चाहती है ताकि राहुल बाबा द्वारा की गयी कांग्रेस की सत्यानाशी से लोगों का ध्यान हट जाये।
मीरा कुमार जैसी बड़ी नेता का अब भी दलित ही बने रहना, क्या उन दलितों के साथ घोर मज़ाक नहीं है, जो आजतक आरक्षण का सक्षम फायदा न उठा सके हों। अब आरक्षण जैसी बीमारी से देश को मुक्त होना चाहिए। वास्तव में यह सामाजिक न्याय के नाम पर भारतीय संविधान का सबसे बड़ा अन्याय है। सबको समानता देने का दावा करने वाला हमारा संविधान ही असमानता को बढ़ावा देता है। अब अगर देश का सबसे बड़ा मुखिया और राष्ट्राध्यक्ष भी दलितवाद की भट्टी से निकलेगा, तो फिर देश का राम ही मालिक है।

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