लो कल्लो बात। अबू आज़मी जो कि महाराष्ट्र में सपा के मुख्य कर्ता-धर्ता हैं, कह रहे हैं कि वो किसी भी कीमत पर वंदे मातरम नही गाएंगे। अमां न गाओ भाई। इनके गाने या न गाने से वंदे मातरम की महानता या महत्व थोड़े कम हो जाएगा? लेकिन कुछ जिद्दी और जाहिल लोग आज़मी साहब से भी ज्यादा वहशियाना हो चुके हैं, वो उन्हीं के मुंह से वंदे मातरम सुनना चाहते हैं। अरे भाई जिसे वंदे मातरम अच्छा लगता वो दिन रात गाये न..... दूसरे से गवाने से क्या फायदा। मुझे राम नाम प्यारा लगता है तो मैं तो दिन रात रटता हूँ, लेकिन दूसरा कोई अगर न रटे तो क्या मैं अपना राम राम जपना छोंड़कर दूसरे को बाध्य करूँ क्या? आजकल सिनेमा हॉल में राष्ट्रगान बजता है तो हर कोई अपनी सीट से खड़ा होकर उसका आदर करता है। लेकिन अगर कोई चिल्लाने लगे कि जो नही खड़ा होगा ठीक नहीं होगा, तो मैं दावे से कहता हूं कि कुछ लोग अपनी सीट से नही खड़े होंगे। दोष उनका ज्यादा है, जो कह रहे है कि हिंदुस्तान में रहना है......कहना है। सिर्फ वंदे मातरम गाने या न गाने से किसी की देशभक्ति का मूल्यांकन करना ठीक बात नही है।
मुझे तो हिंदुस्तान के मुसलमान की देशभक्ति पर कभी शक नही रहा, लेकिन कुछ लोग उसकी देशभक्ति पर कीचड़ उछालकर ही खुद को देशभक्त साबित करते है, जो गलत है। इस देश के मुसलमान का रहनुमा कभी कोई मुसलमान नही रहा है, उसने हमेशा किसी न किसी हिन्दू को ही अपनी रहनुमाई दी है। वह कभी जवाहर, कभी इंदिरा, तो कभी मुलायम के पीछे खड़ा रहा है। क्या कभी इस देश के हिन्दू नें ऐसी दरियादिली दिखाई क्या? ओवेशी, नसीमुद्दीन, आज़मी और आज़म इस देश के मुसलमानों के रहनुमा नही है। बस यही तो इनकी पीड़ा है। ये आपनी ओछी बातों और हरकतों से इस देश के मुसलमानों के रहनुमा बनना चाहते हैं। लेकिन इस देश का मुसलमान उन्हें ये ओहदा कभी देगा, मुझे तो नहीं लगता।
यूपी के सीएम पद पर यदि कोई जालीदार टोपी वाला मुफ़्ती, मौलाना या काज़ी अगर काबिज़ होता तो मैं खुद उसे न स्वीकारता, लेकिन वो हमारे भगवाधारी योगी को स्वीकार रहे हैं। कितने सबूत चाहिए हमें अपने देश के मुसलमान से उसकी देशभक्ति के? तुम जिस वतन की मिट्टी को दिन में एक बार भी अपने हाँथ से नही स्पर्श करते हो सुशील, उसपर वह बार बार और कई बार अपना मस्तक झुकाता और चूमता है। उसके तो अपने खुदा की इबादत से ही देशभक्ति हो जाती है।
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