आज माया को देखा
सदन में चीखते चिल्लाते
झल्लाते हुए कागज़ और पैर पटकते।
सोंचा हूँ सारा दिन
आखिर ऐसा क्यों?
ये भाजपाई मुरटटों की
टोकी टाकी का असर है
या उनकी खुद पर झुंझलाहट?
माया दलितों की नेता नहीं देवी थी
इन दलितों को उन पर विश्वास नहीं आस्था थी
लोग कार्यकर्त्ता नहीं उनके भक्त होते थे
वो फूलों की नहीं नोटों की माला पहनती थी
वो लोगों की नहीं,लोग उनकी सुनते थे
वो भाषण देती नहीं पढ़ती थी
वो टिकट बाँटती नहीं बेंचती थी
वो लख़नऊ में रहती नहीं, बल्कि सत्ता चलाने आती थी
उन्हें विपक्ष धर्म नहीं, बल्कि सत्ता धर्म बखूबी भाता था
नौकरशाह उनकी इज़्ज़त नहीं, बल्कि डरते थे
सबको उनसे और उन्हें सबसे खतरा था
लोग उन्हें जानते गए
ठीक से पहचानते गए
पर अफ़सोस
वो लोगों को न तो जान पायी
और न पहचान
जमाना और लोग धीरे धीरे
बदल रहे थे
पर वो न बदली
क्योंकि उन्हें मुगालता था कि
वो लोगों और ज़माने
दोनों को बदलने में सक्षम हैं
आज की ये घटना "राजन"
उनके मुगालते के
नेस्तनाबूत होने की बानगी है
चलो माया तो अपने नक्शेकदम बदल दीं
पर उनका क्या
जो आज
कल वाली माया के
नक्शेकदम पर चल रहे हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें