शनिवार, 5 अगस्त 2017

कृष्णम वंदे जगतगुरूम !



    यूं तो कृष्ण पर किताबें अनगिनत हैं, अतः पाठक भी उन्हें अपनी विवेक के अनुसार समझता है, मानता है। इसीलिए लेखक और वक्ता दीप त्रिवेदी की नवीन रचना “आई एम कृष्णा” (मैं कृष्ण हूं) मुझे अद्भुत लगी। दिलचस्प भी। आध्यात्मिक विषय को मनोवैज्ञानिक शब्दावलि में सुबोध तर्ज पर प्रस्तुत करना उनकी विशिष्ठता लगी। यह 370 पृष्ठोंवाली किताब (पहला भाग: जेल में जन्म से कंस के वध तक का) पढ़ने के बाद कई समाधान तो मिल जाते है। किन्तु तीन प्रश्न अभी भी कौंधते रहते हैं। शायद अगले भाग में उनका जिक्र हो। पहला तो यही कि एक ग्रामीण ग्वालबाल में द्वारकाधीश बनने की संभावना कब तथा कैसे दिखी और आई। दूसरा महात्मा गांधी ने अपने पड़ोसी लीला पुरूषोत्तम से अधिक दूर (उत्तर प्रदेश) के मर्यादा पुरूषोत्तम को हृदय के निकट पाया। बापू की जन्मस्थली सागरतटीय पोरबंदर द्वारिका से केवल सौ किलोमीटर है। उसी तरह टांडा में जन्में राममनोहर लोहिया के लिए पड़ोस वाली राम जन्मभूमि सत्रह सौ से किलोमीटर दूर वाले द्वारका के कृष्ण अधिक करीब रहे। तीसरा प्रश्न है कि सम्पूर्ण अवतार पुरूष कृष्ण के आराधकों की संख्या श्री राम से कही अधिक क्यों है ? क्या त्रेता और द्वापर के युगधर्मों में विषमता के कारण ?
   फिलवक्त यह तो निस्संदेह है कि संगीत, दर्शन, कूटनीति, जातिगत समरसता (ग्वालिन सुभद्रा का राजपूत अर्जुन से विवाह), सूतपुत्रों विदुर तथा कर्ण की प्रतिष्ठा, प्रजावाणी का सम्मान कानून की कद्र आदि के कारक और आधार कृष्ण ही थे। अपनी पहुंच में आमजन गोकुल के वासुदेव को स्वयं के समीप पाता है। तुलनात्मक रूप से अयोध्यापति राजा राम काफी ऊंचाई पर स्थित हैं। पहुंच से दूर। यह बहस की बात हो सकती है।
   लेखक दीप त्रिवेदी ने भी सर्वगुणवान कृष्ण को गरीब नवाज के रोल में रखा है। इसीलिए उनके तो गिरधर गोपाल ही हैं। दूसरा न कोई। गौर कर लें।
   विरोधाभास की प्रतिमूर्ति हैं कृष्ण। महायुद्ध का संचालन करते हैं पर रहते निहत्थे ही। माखनचोर है किन्तु सेमंतकमणि चुराने के झूठे जुर्म में लोकापवाद भुगतते हैं। राधा से शादी नही करते हालांकि तीन पत्नियां रखते हैं। जामवंत पुत्री मिलाकर। जरासंघ की सोलह हजार बन्दिनियों का पाणिग्रहण कर महिला उद्धार का बेहतरीन उदाहरण पेश करते हैं। सत्यमेव जयते मानते हैं पर युधिष्ठिर के झूठ को दबा जाते हैं।
   इनके अलावा भी वासुदेव के आयाम हैं। स्त्री-पुरुष के संबन्धों का समाजशास्त्रीय विश्लेषण करें तो द्वापर युग में राधावल्ल्भ से जुड़े हुए कई कृष्ण और कृष्णा (द्रौपदी) के प्रकरण उसे बेहतरीन आकार देते हैं। भले ही एक पत्नीव्रती मर्यादापुरूषोत्तम की तुलना में तीन पत्नियों के पति, राधा के प्रेमी, गोपिकाओं के सखा लीला पुरूषोत्तम का पाण्डव-पत्नी से नाता समझने के लिए साफ नीयत और ईमानदार सोच चाहिए। युगों से विकृतियां तो पनपाई गई हैं मगर द्रौपदी को आदर्श नारी का रोल माडल कृष्ण ने ही दिया। हालांकि आज भी स्कूली बच्चों को यही बताया जाता है कि यमराज से भिड़कर सधवा बने रहनेवाली सावित्री और चित्तौड़ में जौहर में प्राणोत्सर्ग करनेवाली पदमिनि ही भारतीय नारी के आदर्श हैं। यह सोच लीक पर घिसटनेवाली है, बदलनी चाहिए। कृष्णा के कृष्ण मित्र थे जिन्होंने उसके जुवारी पतियों के अशक्त हो जाने पर उसे बचाया, उसके अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए महाभारत रचा। उस अबला के भ्राता-पिता, पति-पुत्र भी से बढ़कर कृष्ण ने मदद की। ऐसे कई प्रसंग है जो कृष्ण को आज के परिवेश में अत्याधुनिक पुरुष के तौर पर पेश करते हैं। उन्हें न युग बांध सकता हैं और न कलम बींध सकती है।
   विश्वरूपधारी होने के बावजूद कृष्ण के जीवन का सबसे दिलचस्प पक्ष यही है कि वे आम आदमी जैसे ही रहे। वैभवी राजा थे, किन्तु अकिंचन प्रजा (सुदामा) से परहेज नही किया। गोकुल के बाढ़पीड़ितों को गिरधारी ने ही राहत दी। (आज के राजनेता इसे सुनें)। कृष्ण अमर थे मगर दिखना नहीं चाहते थे। इसीलिए बहेलिये के तीर का स्वागत किया और जता दिया कि मृत्यु सारी गैरबराबरी मिटा देती है, वर्गजनित हो अथवा गुणवर्ण पर आधारित हो। यदि यह यथार्थ आज के हस्तिनापुर की संसद को कब्जियाने पर पिले धरतीपुत्रों को, खासकर कृष्णवंशियों की, समझ में न आये, तो जरुर उनकी सोच खोटी है। असली कृष्णभक्त तो राजनीतिक होड़ में रहेगा, मगर निस्पृहता से। 
  इसी सदी के परिवेश में, स्वाधीन भारत में कृष्णनीति पर विचार करने के पूर्व उनके द्वापरयुगीय दो प्रसंग गौरतलब होंगे। यह इस सिलसिले में भी प्रासंगिक है, क्योंकि कृष्ण के प्राण तजने के दिन से ही कलयुग का आरम्भ हुआ था। प्रथम प्रकरण यह कि जमुना किनारे वाला अहीर का छोरा सुदूर पश्चिम के प्रभास (सरस्वती) नदी के तट पर (सोमनाथ के समीप) अग्नि समर्पित हो; तो उसी नदी के पास जन्मे काठियावाड़ के वैष्णव कर्मयोगी मोहनदास करमचंद गांधी का यमुना तट के राजघाट पर दाह-संस्कार हो। लोहिया ने इसे एक ऐतिहासिक संयोग कहा था। उत्तर तथा पश्चिम ने आपसी हिसाब चुकता किया था। दूसरी बात समकालीन है। द्वापर के बाद पहली बार (पोखरण में) परमाणु अस्त्र से लैस होकर देश एक नये महाभारत की ओर चल निकला है। परिणाम कैसा होगा ? चीन जाने।
आधुनिक संदर्भ में लोग राजनीति में कुटिलता, क्रूरता और प्रवंचना को महाभारत की घटनाओं के आधार पर सही ठहराने का नासमझ प्रयास करते है। अर्थात कृष्ण झूठ बोलते रहे, असमय वार कराते रहे, कभी-कभी फरेब भी करते रहे। मायने यही कि लक्ष्य प्राप्ति के लिए साधन और माध्यम को शुचिता पर वे ध्यान नहीं देते थे। यथार्थ यह है कि महाभारत युद्ध मे कौरव सरीखे शत्रुओं से उन्हीं की रणनीति और नियमों से लड़ा जा सकता था। जब अन्नदोष के कारण दुर्योंधन की कृपा पर आश्रित गुरू द्रोण, पितामह भीष्म, सूर्यपुत्र कर्ण, कुलगुरू कृपाचार्य आदि अन्याय के साथ जुड़े हों तो फिर उनका नीर-क्षीर विवेक ही समाप्त हो गया था। अश्वत्थामा नामक हाथी को मारकर द्रोणाचार्य को भ्रम में डालना, शंख फूंककर कुंजर शब्द का युधिष्ठिर द्वारा उच्चारण को दबा जाना, फिर धृष्टह्मुम्न द्वारा द्रोणाचार्य का सर काटना अपरिहार्य कारण थे। वरना धनुष लिये द्रोणाचार्य को स्वयं विष्णु नहीं हरा सकते थे।
शिखण्डी को ढाल के रूप में प्रयुक्त न कराते तो महाभारत के दसवें दिन भीष्म के रौद्ररूप से सारी पाण्डव सेना ही मटियामेट हो जाती। युधिष्ठिर को पितामह भीष्म के युद्ध शिविर में भेजकर उनको हराने का रहस्य जानने की बात केवल कृष्ण ही सोच सकते थे। फिर वीर कर्ण से अपने साथी अर्जुन को कैसे बचाया ? उसके अमोध अस्त्र से तय था अर्जुन मर जाता। कृष्ण ने घटोत्कच की मदद ली। भतीजे के प्राण से चाचा के प्राण बचे। यह स्पष्ट है कि यदि दुर्योधन बजाय यादव सेना के कृष्ण को कौरवों के लिए मांग लेता तो महाभारत का नज़ारा अलग होता। पर वाह रे कृष्ण! अहंकारी दुर्योधन सिरहाने बैठा, विनम्र अर्जुन पैंताने पर। उठकर सीधे अर्जुन को ही पहले देखा और उसके साथ हो लिये। उसी अर्जुन को जयद्रथ-वध के पहले सूरज को चक्र से ढक कर बचा लिया। वरना सूर्यास्त के पूर्व अपने पुत्रहन्ता को मारने की कसम खाने वाले अर्जुन का अन्त उसी दिन हो जाता। 
 
कूटनीति और युद्ध-संरचना का लाजवाब सम्मिश्रण कर कृष्ण ने जो किया वह यदि पृथ्वीराज चैहान ओर राणा सांगा कर पाते तो भारत का इतिहास ही कुछ और होता। लक्ष्य प्राप्ति के लिए कंस का वध होता है तथा मथुरा राज्य स्वाधीन हो जाता है। राम-रावण युद्ध यदि प्रथम महासमर था तो कंसवध से कृष्ण ने द्वितीय महासमर का प्रारम्भ कर दिया था। धरती पर क्रूर शासक बोझ बन गये थे। (कुछ हिटलर, तोजो, मुसोलिनी की भांति)। कंस शीर्ष खलनायक था। दामाद के वध का बदला लेने में श्वसुर जरासंघ द्वारा आक्रमण स्वाभाविक कार्यवाही थी। जरासंध ने अपनी तेईस अक्षैहिणी सेना (आज की भारतीय सेना से तिगुनी) लेकर अठारह बारह धावा बोला और हर बार पराजित होकर लौटा। फिर बाद में जैसे देशी राजाओं ने मुहम्मद गोरी और जहीरूद्दीन बाबर को भारत पर आक्रमण के लिए आमंत्रित किया था, मगध नरेश जरासंध ने कश्मीर नरेश कालयवन को मथुरा को ध्वस्त करने का निमंत्रण दिया। अपनी अपार म्लेच्छ और शक सेना को लेकर कालयवन ने चढ़ाई की। कृष्ण कमजोरी महसूस करते थे। किन्तु जिस तरकीब से कृष्ण ने मथुरा बचाया और शत्रु का नाश किया, वह राजकौशल का नायाब उदाहरण है। कृष्ण ने कालयवन को अपना पीछा करने के लिए उकसाया। भागते-भागते कृष्ण ने ढोलपुर के निकटस्थ पर्वतगुफा में शरण लिया। कालयवन भी वहां जा पहुंचा। कृष्ण ने अपना पीताम्बर वहां निन्द्रामग्न राजर्षि मुचुकुन्द को ओढ़ा दिया। उस मूर्ख कालयवन ने राजर्षि को कृष्ण समझकर झकझोरा। राजर्षि क्रुद्ध होकर उठे और कालयवन को घूरा। उन्हें वरदान था कि वे जिसे नाराजगी से देखेगे वह राख हो जाएगा। युक्ति से कृष्ण ने मुचुकुन्द द्वारा कालयवन को भस्म कराया। कश्मीर भी आजाद हो गया। 
   अब राष्ट्रनायक के रोल में कृष्ण पर उत्तरदायित्व और बढ़ गया था, क्योंकि गंगा किनारे (गढ़मुक्तेश्वर) पर बसा हस्तिनापुर अन्यायी और वंचकों के अधीन था। कौरव युवराज दुर्योधन भारत को न्यायप्रिय राष्ट्र बनने में बाधक था। पहले तो कृष्ण ने सहअस्तित्व के सिद्धांत के आधार पर गंगा से दूर यमुनातट पर इन्द्रप्रस्थ में ही कुरू पाण्डवों को स्थापित किया। मगर दुर्योधन ने बात बनने नहीं दी। तब कुरूक्षेत्र में फैसला हुआ और महाभारत रचा गया। धर्मराज युधिष्ठिर के अश्वमेघ से भारत फिर अखण्ड, सार्वभौम, प्रभुत्व सम्पन्न राष्ट्र-राज्य बना। कृष्ण इसके शिल्पी थे। कृष्ण गरीबनवाज थे। उनको हम आज एक सखा (कामरेड) के रूप पूजकर अपार ढांढस और राहत पा सकते है। संदीपन आश्रम में अपने सहपाठी सुदामा के चिथड़े कपड़ों के बावजूद उस विप्र को द्वारका सिंहासन पर बैठाकर उनका आवभगत करना कोई विशाल दिलवाला ही कर सकेगा। 
   एक विवाद भी उठ खड़ा होता है कि कृष्ण हुये भी हैं, या यह बस एक कल्पना है। राममनोहर लोहिया, जो अपने को नास्तिक कहते थे, एक बार लखनऊ में बहस के दौरान बोले, ऐसा विवाद फ़िजूल हैं। जो व्यक्ति जनमन में युगों से रमा हो, छा गया हो, उसके अन्य पक्ष को देखो। अब यदि इस मीमांसा में पड़े तो पाण्डित्यपूर्ण शोध हो सकता है, पर लालित्यपूर्ण मनन नहीं। ऋग्वेद में अनुक्रमणी पद्धति में कृष्ण अंगीरस का उल्लेख आता है। छान्दोग्य उपनिषद में देवकीपुत्र कृष्ण को वेदाध्यनशील साधु बताया गया है। पुराणों में वसुदेव पुत्र वासुदेव बताया है। बौद्धघट जातक कथा में कृष्ण को मथुरा के राजपरिवार का सदस्य दर्शाया गया है।
   कृष्ण को पूर्वाभास था कि उनका युग समाप्त होगा तो उन्हीं के यदुवंशी तानाशाही करने लगेगे। कृष्ण भी रौनाक्षी नद तट पर लेटकर वधक बहेलिये के बाण की प्रतीक्षा करते रहे। महाभारत युद्ध के बाद कृष्णवंशी गोपजनों ने मत्स्यदेश, कुरूप्रान्त, पांचाल, ब्रज, वत्सपाल क्षेत्र, महिष्मती, गोपराष्ट्र, राष्ट्रकूट, दो सुर्पाक आदि साम्राज्य का आधिपत्य ले लिया था। मिस्त्र, अफगानिस्तान और मध्येशिया तक यदुवंशी पहुंच गये थे, किन्तु उनके अहंकारपूर्ण साम्राज्य का ऋषि विश्वमित्र ने शाप देकर अन्त कर दिया। कृष्णकथा से दुबारा बोध होता है कि घमण्डी यदुवंशी अंत में गिरता ही है, तो फिर यह सियासी तीन-तेरह काहे के वास्ते ?
K Vikram Rao 
9415000909
k.vikramrao.@gmail.com

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