विश्व की जनसंख्या सांख्यिकी का आंकड़ा कहता है कि दुनिया में महिला-पुरुष अनुपात 100:102 है. पैदा होने वाले बच्चों का लिंग अनुपात देखें तो पलड़ा पुरुषों की तरफ और झुक जाता है क्योंकि यह अनुपात 100:107 है. दुनियाभर में महिलाओं को बराबर अधिकार दिलाने के लिए लड़ रहे फेमिनिस्ट कुदरत की इस गैर-बराबरी पर क्या कहेंगे, यह लंबी चर्चा का विषय है इसलिए इस पर कभी और बात करेंगे. फिलहाल सवाल यह है कि दुनिया में पुरुषों की संख्या महिलाओं से हमेशा ही ज्यादा क्यों और कैसे रहती है?
जीवविज्ञानियों का मत है कि आज हम जो असंतुलन देख रहे हैं, उसकी वजह भी संतुलन की कोशिश है. हजारों सालों के विकास के बाद हर बदलती हुई जीवनशैली में प्रकृति पुरुषों के अस्तित्व को लगातार संकट में पाती है. इसके साथ ही चिकित्सा विज्ञान मानता है कि किसी भी असामान्य परिस्थिति में मादा भ्रूणों की तुलना में नर भ्रूण के गर्भपात की संभावना ज्यादा होती है. वहीं जन्म के बाद पुरुषों का जीवन भी महिलाओं की तुलना में ज्यादा जोखिमभरा होता है. युद्ध, बीमारी या किसी बुरी आदत का शिकार होने से उनके जीवन पर हमेशा संकट बना रहता है. यह निश्चित रूप से उनकी संख्या को भी प्रभावित करता है.
इसके उलट महिलाओं का जीवन अपेक्षाकृत सुरक्षित और आसान होता है. साथ ही महिलाओं में सर्वाइव करने की क्षमता भी ज्यादा होती है. ऐसे में प्रकृति यह मानकर चलती है कि जितनी महिलाएं पैदा की गई हैं उनमें से एक बड़ी संख्या अपना जीवन बचाने में सफल होगी, जबकि पुरुष ऐसा नहीं कर पाएंगे. इसलिए प्रकृति ज्यादा पुरुषों को पैदा कर अपना संतुलन साधने का प्रयास बनाए रखती है. प्रकृति में यह क्रम निरंतर चलने वाला है. जीवविज्ञान इसे फिशर सिद्धांत के नाम से जानता है. इसके अनुसार हर प्रजाति समय के साथ समान लैंगिक अनुपात की तरफ बढ़ती है. इस हिसाब से प्रकृति की यह व्यवस्था तब तक जारी रह सकती है, जब तक कि उस तक यह संदेश न पहुंचे कि पुरुष अब सुरक्षित हैं.
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