(सुशील अवस्थी राजन)
यकीनन आपने एक था टाइगर और टाइगर
जिंदा है जैसी फिल्मों के संवाद और दृश्यों पर सिनेमाहाल में जमकर तालियां बजायी होंगी। ये फिल्में भारतीय खुफिया एजेंसी रॉ (RAW) के एजेंटों की जिंदगी पर आधारित थी। एक रॉ एजेंट की वास्तविक जिंदगी कितनी दुश्वारियों से घिरी होती है, अगर आप यह जानना चाहते हैं, तो आपको मनोज रंजन दीक्षित की जिंदगी की जद्दोजहद से वाकिफ होना पड़ेगा।
1985 में रॉ में भर्ती हुए मनोज कुछ माह की ट्रेनिंग के बाद सीधे पाकिस्तान भेज दिए गए। पाकिस्तान में रहकर उन्होंने तमाम खुफिया जानकारियां भारत भेजी। ब्राह्मण मनोज देश की सीमा लांघते ही पहले मुहम्मद यूनुस और फिर इमरान हो गए। शंख ध्वनि, माथे पर टीका, मंदिरों की घंटियां मानों मनोज के जीवन का सिर्फ अतीत सा बनकर रह गई। अब वो इमरान और यूनुस बनकर पाकिस्तानी मस्जिदों में नमाज़े अदा कर रहे थे।
जब उन्हें लगा कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई को उन पर कुछ शक हो रहा है, तब उनका शक दूर करने व अपनी जान की सलामती के लिए वे अफगानिस्तान में पाकिस्तानी मुजाहिद बनकर तत्कालीन सोवियत संघ (रूस) के खिलाफ लड़ने के लिए पाकिस्तान से सीधे अफगानिस्तान जाकर लड़ाई में भी शामिल हुए।
अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बॉर्डर पर अंततः उन्हें 23 जनवरी 1992 को पाकिस्तानी पुलिस और पकिस्तानी सेना की इंटेलिजेंस यूनिट द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया। जैसा कि रॉ की पूर्व शर्त होती है कि गिरफ्तारी के बाद एजेंसी अपने एजेंट से पल्ला झाड़ लेती है। मनोज के साथ भी वही हुआ। फिर पाकिस्तान में मनोज के साथ शुरू हुआ पाकिस्तानी शैतानों का हैवानियत भरा सुलूक। तमाम यातनाओं, प्रलोभनों को नकारते हुए मनोज ने इन शैतानों के सामने कभी घुटने नहीं टेके। देश के मान सम्मान के लिए मनोज ने इन राक्षसों के बेइंतहा जुल्मों को अपने शरीर और मन पर झेल लिया। करीब 14 वर्षों तक भारत माता का ये असली लाल पाकिस्तानी जेलों में नर्क से भी बदतर जिंदगी झेलता रहा।
अंत मे मार्च 2005 में पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर पाकिस्तानी सरकार को मनोज को 568 कैदियों के साथ रिहा करना पड़ा। बाघा बार्डर के रास्ते भारत में प्रवेश कर रहे मनोज करीब 21 वर्ष बाद भारत की पवित्र माटी को चूम सके। अब मनोज अपने शहर नजीबाबाद, बिजनौर की गलियों से भूल चुके थे।
पाकिस्तान से वापस आने पर अब उनकी नौकरी जा चुकी थी। तमाम स्पष्टी करणों के बाद भी मनोज रंजन दीक्षित वापस रॉ में न जा सके। इस दौरान उनकी जिंदगी में अब अल्मोड़ा की शोभा जोशी का आगमन हुआ। 2006 में मनोज शोभा के साथ परिणय सूत्र में बंध गए। लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। 2013 में शोभा कैंसर जैसे असाध्य रोग से ग्रस्त हो गई। इस दौरान मनोज को अपनी पत्नी के इलाज के लिए धन की सख्त जरूरत थी। तमाम नेताओं, मंत्रियों, समाजसेवियों से गुहार लगाने के बावजूद इस सच्चे देशभक्त को कहीं से कोई मदद नहीं मिली।
हम रॉ एजेंटों की जिंदगी की नकल करने वाले सलमान जैसे रील लाइफ के हीरो पर तो करोड़ों रुपयों की बौछार कर सकते हैं, परंतु जिनकी जिंदगी की ये अभिनेता नकल करते हैं, उन रियल लाइफ राष्ट्रभक्तों के प्रति बेपरवाह रहते हैं, यही अब हमारी नियति बन चुकी है। इस पर वास्तविक विमर्श और मनन की आवश्यकता है।
आखिरकार 2019 में शोभा ने इस मतलब परस्त दुनिया को अलविदा कह दिया। आज भी आर्थिक तंगी का सामना कर रहे मनोज एक कंस्ट्रक्शन कंपनी में बतौर स्टोर कीपर कार्यरत है। तनख्वाह के नाम पर सिर्फ उनके पल्ले इतने ही रुपये आते हैं, कि वो बमुश्किल गुजर बसर कर सकें। कोरोना काल मे अब उन्हें वह भी नहीं नसीब हो रही है।