गत दिनों में दो मीडिया रपट से प्रत्येक राष्ट्रवादी तथा उदारमना भारतीय को जुगुप्सा और आक्रोश होना चाहिए। एक खबर में अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी के समारोह में पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने इसके संस्थापक सर सय्यद अहमद खान को “भारतीय राष्ट्रीयता का उत्कृष्ट उदाहरण और स्वप्नदर्शी पुरोधा” बताया। इस वक्तव्य पर घिन आती है। दूसरी ओर अद्वितीय देशभक्त सम्राट टीपू सुल्तान को कुछ भाजपायीजन विप्रमर्दक और धर्मशत्रु मानते हैं। ये तंगदिल सनातनीजन बर्तानवी उपनिवेशवाद के विरूद्ध इस प्रथम स्वाधीनता सेनानी को कट्टर सुन्नी करार देते हैं। ऐसे दृष्टिकोण पर गुस्सा आना चाहिए। इन दोनों अवधारणाओं के संदर्भ में प्रमाणित ऐतिहासिक और अर्वाचीन तथ्य पेश हों तो अकाट्य तौर पर सत्य उजागर हो जायेगा।
सैय्यद अहमद खान (17 अक्टूबर 1817 से 27 मार्च 1898) एक सामन्ती कुटुम्ब में जन्मे थे। उन्होंने उन्तालिस साल की भरी जवानी में फिरंगियों का सक्रिय साथ दिया था। तब (मई 1857 में) समूचा भारत अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कम्पनी से जंग कर रहा था। इन विलायती फौजियों के हमदर्द और सहकर्मी सैय्यद अहमद बने और भारतीय सम्राट बहादुर शाह जफर को उखाड फेंकने में उन्होंने गोरों की मदद की। तब प्रथम भारतीय स्वाधीनता संग्राम हो रहा था। युवा अहमद हिन्दुस्तानियों को गुलाम बनानेवालों की तरफ थे। उन्हें मलका विकटोरिया ने “सर” की उपाधि से नवाजा। उनकी खिदमतों की श्लाघा की। तुलना कीजिए मुस्लिम युनिवर्सिटी के इस संस्थापक की पड़ोसी (सहारनपुर में) स्थापित देवबंद के दारूल उलूम के शेखुल हिन्द महमूद अल हसन से जिन्हें साम्राज्यवादियों ने सुदूर माल्टा द्वीप की जेल में कैद रखा। वहां मौलाना महमूद ने नेक अकीदतमन्द होने के नाते रमजान के रोजे रखे। ब्रिटिश गुलामी को मौलाना ने ठुकराया था। रिहाई पर भारत लौटे तो दारूल उलूम बनाया। अंगे्रजी राज उखाड़ने के लिए मुजाहिद तैयार किये। सैय्यद अहमद और महमूदुल हसन में भारतभक्त कौन कहलायेगा ?
सर सैय्यद अहमद खान के मानसपुत्र थे मोहम्मद अली जिन्ना। फिरंगियों की झण्डाबरदारी में भर्ती होने के अर्धसदी पूर्व ही सैय्यद अहमद घोषणा कर चुके थे कि मुसलमान और हिन्दू दो कौमें है। हिन्दू-मुस्लिम अलगावाद के मसीहा थे सैय्यद अहमद। उनकी नजर में पर्दा और बुर्का अनिवार्य था। उन्होंने बाईबिल पर टीका लिखी। अपनी किताब “तबियत-उल-कलम” लिखने में उनका मकसद था कि मसीही और मुसलमानों का भारतीयों के विरूद्ध महागठबंधन बने। सत्ता ईसाईयों की, उपयोग उसका इस्लामियों के लिए और दमन हिन्दुओं का। उनका प्रचार था कि सात सदियों के राज के बाद भी मुसलमानों को 1857 में खोई हुकूमत में फिर कुछ हिस्सा मिले। इससे अंगे्रजी शासकों को दृष्टि और नीति बदली। मुगल सलतनत के समय विलायती कम्पनी से भिड़ने के बावजूद ब्रितानी गवर्नर जनरलों ने मुसलमानों पर रहमोकरम और दरियादिली दर्शानी प्रारंभ का दी। परिणाम भारत के विभाजन में आया। इस ओर ठोस प्रक्रिया में सैय्यद अहमद ने मदरसातुल उलूम 1875 में स्थापना कर दी जो बाद में अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी के रूप में उभरी। इसे सर आगा खान ने पाकिस्तान के लिए “आयुधशाला” बताया था।
सैय्यद अहमद द्वारा शहर अलीगढ़ को मोहम्मडन-एंग्लो-ओरियन्टल“ मदरसा हेतु चुनने का ऐतिहासिक आधार था। अलीगढ़ का प्राचीन नाम कोल था। यह आज जनपद की एक तहसील मात्र है। जब दिल्ली में सर्वप्रथम इस्लामी सल्तनत (1210) कायम हुई थी तो पृथ्वीराज चैहान को हराकर मुहम्मद गोरी ने अपने तुर्की गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक को दिल्ली का साम्राज्य दे दिया। इस गुलाम सुल्तान के वंशज हिसामुद्दीन ऐबक ने सवा सौ किलोमीटर दूर कोल (अब अलीगढ़) पर कब्जा किया। उसने वहां की जनता को दो प्रस्ताव दिये। कलमा मानो अथवा शमशीरे इस्लाम से सर कलम कराओ। हिन्दू आतंकित होकर मुसलमान बन गये। रातों रात अकिलयत फिर अक्सरियत हो गई। तो इसी शहर अलीगढ़ में सैय्यद अहमद ने पृथक इस्लामी राष्ट्र के बीज बोये। कभी यही पर हरिदास का मन्दिर था। धरणीधर सरोवर था। मुनि विश्वामित्र की तपोभूमि थी।
गत सप्ताह पाकिस्तान ने सैय्यद अहमद की जयंती की दूसरी सदी पर डाक टिकट जारी किया। स्कूली पुस्तकों में उन पर पाठ शामिल किये। कई इमारतों के नाम भी उन पर हैं। मगर बादशाह अकबर के नाम पर पाकिस्तान में न एक सड़क, न एक गली, न एक पार्क है। अलबत्ता औरंगजेब के नाम पर कई स्मारक हैं। सैय्यद अहमद की भांति।
अब एक भिन्न इस्लामी शासक की (10 नवम्बर) जयंती मनाने पर कर्नाटक में चल रहे भाजपायी घमासान की चर्चा हो। गिरीश कर्नाड ने बढ़िया कहा कि यदि टीपू हिन्दू होता तो छत्रपति शिवाजी के सदृश आराध्य होता। चार पीठों में से एक श्रृंगेरी धाम के शंकराचार्य सच्चिदानन्द भारती (1753), के सेवारत टीपू द्वारा जगद्गुरू को लिखे पत्रों से स्पष्ट हो जाता है कि अंगे्रजी उपनिवेशवाद का घोर शत्रु टीपू सुल्तान फ्रांसिसी सेना की मदद से मैसूर के विजय के लिए जूझ रहा था। तब उसने शंकराचार्य से शिवस्तुति कर भारतीयों की जीत हेतु दैवी कृपा मांगी थी। तीनों युद्धों में तो मिली भी। मगर चौथे में हिन्दू राजाओं के असहयोग के कारण वह अंग्रेजों के छल से शहीद हो गया। भारतमाता की वेदी पर बलि चढ़ गया। देशभक्त राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने टीपू को भारतीय प्रक्षेपास्त्र का जनक बताया था। अपने ब्राह्मण प्रधानमंत्री आचार्य पूर्णय्या की सलाह पर टीपू ने कांची कामकोटी के शंकरपीठ में मन्दिर भवन मरम्मत हेतु दस हजार स्वर्ण मुद्राओं का योगदान किया। रामनामी अंगूठी भेंट में सुल्तान को मिली थी। श्रीरंगपत्तनम के मन्दिर की घंटी और किले के मस्जिद की अजान सुनकर टीपू की दिनचर्या शुरू होती थी। टीपू ने कई शत्रुओं को युद्ध के निर्ममता से मारा था। उसमे कर्नाटक के नवाब, हैदराबाद का निजाम, मलाबार के इस्लामी मोपला, पेशवाई मराठे, मलयाली नायर थे। इनको युद्ध में मारने का कारण टीपू सुल्तान के लिए केवल इतना था कि वे सब ब्रिटिष साम्राज्यवादियों के खेमे में थे। इतिहासकार जदुनाथ सरकार ने टीपू को स्वतंत्रता सेनानी कहा था।
टीपू ने तीन सदियों पूर्व ही विदेश नीति रची थी। तुर्की के आटोमन सुल्तान से उसने ब्रिटेन के विरूद्ध (1787) युद्ध की घोषणा करने की मांग की थी। फ्रांसीसी क्रान्ति के तीनों सूत्रों का प्रसार कराया था। ये थे स्वाधीनता, समानता तथा भ्रातृत्व। संकीर्णमना होता तो टीपू युद्ध के पूर्व ज्योतिर्लिंग के ब्राह्मण ज्योतिशाचार्य से मशविरा न करता। उसने सेना में शराबबंदी लगाई थी।
टीपू की जयंती का विरोध हास्यास्पद है। कर्नाटक के कांग्रेसी मुख्यमंत्री (पूर्व के लोहियावादी) सिद्धरामय्या इस जयंती से टीपू के सहधर्मियों को वोट बैंक बना सकते हैं, क्योंकि विधानसभा निर्वाचन आसन्न है। मगर कुछ वर्ष पूर्व भाजपायी मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टार और उपमुख्यमंत्री आर. अशोक टीपू की जयंती में सुल्तान की पगड़ी पहनकर शरीक हुये थे। तो चन्द वर्षों बाद वही टीपू अब कट्टर सुन्नी हो गया ? अध्यक्ष अमित शाह को अपने पार्टी जन को प्रशिक्षित करना चाहिए कि हिन्दू आस्था किसी कैलेण्डर का पन्ना नहीं जो हर महीने पलट दिया जाए।
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