शुक्रवार, 22 दिसंबर 2017

सीता का रामानुराग, जो सीखने योग्य है



पितु  बैभव  बिलास  मैं  डीठा।  
नृप  मनि  मुकुट  मिलित  पद  पीठा॥
सुखनिधान  अस  पितु  गृह  मोरें।  
पिय  बिहीन  मन  भाव  न  भोरें॥1॥

भावार्थ:-मैंने  पिताजी  के  ऐश्वर्य  की  छटा  देखी  है,  जिनके  चरण  रखने  की  चौकी  से  सर्वशिरोमणि  राजाओं  के  मुकुट  मिलते  हैं  (अर्थात  बड़े-बड़े  राजा  जिनके  चरणों  में  प्रणाम  करते  हैं)  ऐसे  पिता  का  घर  भी,  जो  सब  प्रकार  के  सुखों  का  भंडार  है,  पति  के  बिना  मेरे  मन  को  भूलकर  भी  नहीं  भाता॥1॥

*  ससुर  चक्कवइ  कोसल  राऊ।  भुवन  चारिदस  प्रगट  प्रभाऊ॥
आगें  होइ  जेहि  सुरपति  लेई।  अरध  सिंघासन  आसनु  देई॥2॥

भावार्थ:-मेरे  ससुर  कोसलराज  चक्रवर्ती  सम्राट  हैं,  जिनका  प्रभाव  चौदहों  लोकों  में  प्रकट  है,  इन्द्र  भी  आगे  होकर  जिनका  स्वागत  करता  है  और  अपने  आधे  सिंहासन  पर  बैठने  के  लिए  स्थान  देता  है,॥2॥ 

*  ससुरु  एतादृस  अवध  निवासू।  प्रिय  परिवारु  मातु  सम  सासू॥
बिनु  रघुपति  पद  पदुम  परागा।  मोहि  केउ  सपनेहुँ  सुखद  न  लागा॥3॥

भावार्थ:-ऐसे  (ऐश्वर्य  और  प्रभावशाली)  ससुर,  (उनकी  राजधानी)  अयोध्या  का  निवास,  प्रिय  कुटुम्बी  और  माता  के  समान  सासुएँ-  ये  कोई  भी  श्री  रघुनाथजी  के  चरण  कमलों  की  रज  के  बिना  मुझे  स्वप्न  में  भी  सुखदायक  नहीं  लगते॥3॥

*  अगम  पंथ  बनभूमि  पहारा।  करि  केहरि  सर  सरित  अपारा॥
कोल  किरात  कुरंग  बिहंगा।  मोहि  सब  सुखद  प्रानपति  संगा॥4॥

भावार्थ:-दुर्गम  रास्ते,  जंगली  धरती,  पहाड़,  हाथी,  सिंह,  अथाह  तालाब  एवं  नदियाँ,  कोल,  भील,  हिरन  और  पक्षी-  प्राणपति  (श्री  रघुनाथजी)  के  साथ  रहते  ये  सभी  मुझे  सुख  देने  वाले  होंगे॥4॥ 

दोहा  :
*  सासु  ससुर  सन  मोरि  हुँति  बिनय  करबि  परि  पायँ।
मोर  सोचु  जनि  करिअ  कछु  मैं  बन  सुखी  सुभायँ॥98॥

भावार्थ:-अतः  सास  और  ससुर  के  पाँव  पड़कर,  मेरी  ओर  से  विनती  कीजिएगा  कि  वे  मेरा  कुछ  भी  सोच  न  करें,  मैं  वन  में  स्वभाव  से  ही  सुखी  हूँ॥98॥ 

                                         शेष अगली पोस्ट में........

सोमवार, 18 दिसंबर 2017

हनुमान चालीसा का अदभुत रहस्य!

भगवान को अगर किसी युग में आसानी से प्राप्त किया जा सकता है तो वह युग है  कलियुग। इस कथन को सत्य करता एक दोहा रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने लिखा है

नहिं कलि करम न भगति बिबेकू,
राम नाम अवलंबन एकू॥
कालनेमि कलि कपट निधानू 
नाम सुमति समरथ हनुमानू॥

भावार्थ:-कलियुग में न कर्म है, न भक्ति है और न ज्ञान ही है, राम नाम ही एक आधार है। कपट की खान कलियुग रूपी कालनेमि के (मारने के) लिए राम नाम ही बुद्धिमान और समर्थ श्री हनुमान्‌जी हैं॥

जिसका अर्थ है की कलयुग में मोक्ष प्राप्त करने का एक ही लक्ष्य है वो है भगवान का नाम लेना। तुलसीदास ने अपने पूरे जीवन में कोई भी ऐसी बात नहीं लिखी जो गलत हो। उन्होंने अध्यात्म जगत को बहुत सुन्दर रचनाएँ दी हैं।

ऐसा माना जाता है कि कलयुग में हनुमान जी सबसे जल्दी प्रसन्न हो जाने वाले भगवान हैं। उन्होंने हनुमान जी की स्तुति में कई रचनाएँ रची जिनमें हनुमान बाहुक, हनुमानाष्टक और हनुमान चालीसा प्रमुख हैं।

हनुमान चालीसा की रचना के पीछे एक बहुत जी रोचक कहानी है जिसकी जानकारी शायद ही किसी को हो। आइये जानते हैं हनुमान चालीसा की रचना की कहानी :-

ये बात उस समय की है जब भारत पर मुग़ल सम्राट अकबर का राज्य था।  सुबह का समय था एक महिला ने पूजा से लौटते हुए तुलसीदास जी के पैर छुए। तुलसीदास जी ने  नियमानुसार उसे सौभाग्यशाली होने का आशीर्वाद दिया।

आशीर्वाद मिलते ही वो महिला फूट-फूट कर रोने लगी और रोते हुए उसने बताया कि अभी-अभी उसके पति की मृत्यु हो गई है। इस बात का पता चलने पर भी तुलसीदास जी जरा भी विचलित न हुए और वे अपने आशीर्वाद को लेकर पूरी तरह से आश्वस्त थे।

क्योंकि उन्हें इस बात का ज्ञान भली भाँति था कि भगवान राम बिगड़ी बात संभाल लेंगे और उनका आशीर्वाद खाली नहीं जाएगा। उन्होंने उस औरत सहित सभी को राम नाम का जाप करने को कहा। वहां उपस्थित सभी लोगों ने ऐसा ही किया और वह मरा हुआ व्यक्ति राम नाम के जाप आरंभ होते ही जीवित हो उठा।

यह बात पूरे राज्य में जंगल की आग की तरह फैल गयी। जब यह बात बादशाह अकबर के कानों तक पहुंची तो उसने अपने महल में तुलसीदास को बुलाया और भरी सभा में उनकी परीक्षा लेने के लिए कहा कि कोई चमत्कार दिखाएँ। ये सब सुन कर तुलसीदास जी ने अकबर से बिना डरे उसे बताया की वो कोई चमत्कारी बाबा नहीं हैं, सिर्फ श्री राम जी के भक्त हैं।

अकबर इतना सुनते ही क्रोध में आ गया और उसने उसी समय सिपाहियों से कह कर तुलसीदास जी को कारागार में डलवा दिया। तुलसीदास जी ने तनिक भी प्रतिक्रिया नहीं दी और राम का नाम जपते हुए कारागार में चले गए। उन्होंने कारागार में भी अपनी आस्था बनाए रखी और वहां रह कर ही हनुमान चालीसा की रचना की और लगातार 40 दिन तक उसका निरंतर पाठ किया।

चालीसवें दिन एक चमत्कार हुआ। हजारों बंदरों ने एक साथ अकबर के राज्य पर हमला बोल दिया। अचानक हुए इस हमले से सब अचंभित हो गए। अकबर एक सूझवान बादशाह था इसलिए इसका कारण समझते देर न लगी।  उसे भक्ति की महिमा समझ में आ गई। उसने उसी क्षण तुलसीदास जी से क्षमा मांग कर कारागार से मुक्त किया और आदर सहित उन्हें विदा किया। इतना ही नहीं अकबर ने उस दिन के बाद तुलसीदास जी से जीवनभर मित्रता निभाई।

इस तरह तुलसीदास जी ने एक व्यक्ति को कठिनाई की घड़ी से निकलने के लिए हनुमान चालीसा के रूप में एक ऐसा रास्ता दिया है। जिस पर चल कर हम किसी भी मंजिल को प्राप्त कर सकते हैं।

इस तरह हमें भी भगवान में अपनी आस्था को बरक़रार रखना चाहिए। ये दुनिया एक उम्मीद पर टिकी है। अगर विश्वास ही न हो तो हम दुनिया का कोई भी काम नहीं कर सकते।

बिनु बिस्वास भगति नहिं 
तेहि बिनु द्रवहिं न रामु।
राम कृपा बिनु सपनेहुँ 
जीव न लह बिश्रामु॥

भावार्थ:-बिना विश्वास के भक्ति नहीं होती, भक्ति के बिना श्री रामजी पिघलते (ढरते) नहीं और श्री रामजी की कृपा के बिना जीव स्वप्न में भी शांति नहीं पाता॥

।। राम सिया राम सिया राम जय जय राम ।।

रविवार, 10 दिसंबर 2017

उत्तर प्रदेश के जिलाधिकारियों (डीएम) के सीयूजी नंबर

उत्तर प्रदेश के जिलाधिकारियों (डीएम) के सीयूजी नंबर।
District Magistrate Uttar Pradesh CUG
No's
Sl.No District CUG No.
1 DM Agra 9454417509
3 DM Aligarh 9454415313
4 DM Allahabad 9454417517
5 DM Ambedkar Nagar 9454417539
6 DM Amroha 9454417571
7 DM Auraiya 9454417550
8 DM Azamgarh 9454417521
9 DM Badaun 9415908422
10 DM Baghpat 9454417562
11 DM Bahraich 9454417535
12 DM Ballia 9454417522
13 DM Balrampur 9454417536
14 DM Banda 9454417531
15 DM Barabanki 9454417540
16 DM Bareilly 9454417524
17 DM Basti 9454417528
18 DM Bijnor 9454417570
19 DM Budaun 9454417525
20 DM Bulandshahar 9454417563
21 DM Chandauli 9454417576
22 DM Chitrakoot 9454417532
23 DM CSJM Nagar 9454418891
24 DM Deoria 9454417543
25 DM Etah 9454417514
26 DM Etawah 9454417551
27 DM Faizabad 9454417541
28 DM Farrukhabad 9454417552
29 DM Fatehpur 9454417518
30 DM Firozabad 9454417510
31 DM Gautambudh Nagar 94544
32 DM Ghaziabad 9454417565
33 DM Ghazipur 9454417577
34 DM Gonda 9454417537
35 DM Gorakhpur 9454417544
36 DM Hamirpur 9454417533
37 DM Hapur 8449053158
38 DM Hardoi 9454417556
39 DM Hathras 9454417515
40 DM J.P.Nagar 5922262999
41 DM Jalaun 9454417548
42 DM Jaunpur 9454417578
43 DM Jhansi 9454417547
44 DM Kannauj 9454417555
45 DM Kanpur Nagar 9454417554
46 DM Kashiram Nagar 9454417516
47 DM Kaushambhi 9454417519
48 DM Kheri 9454417558
49 DM Kushinagar 9454417545
50 DM Lalitpur 9454417549
51 DM Lucknow 9454417557
52 DM Maharaj Ganj 9454417546
53 DM Mahoba 9454417534
54 DM Mainpuri 9454417511
55 DM Mathura 9454417512
56 DM Mau 9454417523
57 DM Meerut 9454417566
58 DM Mirzapur 9454417567
59 DM Moradabad9897897040
61 DM MRT 1212664133
62 DM Muzaffar Nagar 9454417574
63 DM Mzn 9454415445
64 DM PA Mujeeb 9415908159
65 DM Pilibhit 9454417526
66 DM Pratapgarh 9454417520
67 DM Raebareili 9454417559
68 DM Ramabai Nagar 9454417553
69 DM Rampur 9454417573
70 DM Saharanpur 9454417575
71 DM Sambhal 9454416890
72 DM Sant Kabir Nagar 9454417529
73 DM Sant Ravidaas Nagar
9454417568
74 DM Shahjhanpur 9454417527
75 DM Shamli 9454416996
76 DM Shrawasti 9454417538
77 DM Siddhathnagar 9454417530
78 DM Sitapur 9454417560
79 DM Sonbhadra 9454417569
80 DM Sultanpur 9454417542
81 DM Unnao 9454417561
82 DM Varansi 9454417579

ना जुर्म करे ना होने दे। करे सीधे अपने जिलाधिकारी से संपर्क। अपने परिचितों को भी भेजें।

सोमवार, 4 दिसंबर 2017

राजधानी लखनऊ में उमड़ा वित्तविहीन शिक्षकों का सैलाब

सुशील अवस्थी "राजन" 
लखनऊ, माध्यमिक वित्तविहीन शिक्षक महासभा के बैनर तले आज उत्तर प्रदेश के कोने-कोने से वित्तविहीन शिक्षक हज़ारों की संख्या में लखनऊ पहुचे। इसके पीछे महासभा के अध्यक्ष व शिक्षक एमएलसी उमेश द्विवेदी और संगठन पदाधिकारियों वह मेहनत साफ तौर पर झलक रही थी, जिसमें एमएलसी व उनके साथियों ने पूरे प्रदेश को मोटर साइकिल पर सवार होकर शिक्षक जागरण के लिए मथ डाला था। यह द्विवेदी व उनकी टीम के अथक परिश्रम का ही नतीजा है कि गोमती नदी के किनारे स्थित झूलेलाल वाटिका में आज प्रदेश के कोने-कोने से पहुचा वित्त विहीन शिक्षक इस बात को ठीक से समझ चुका है कि "संघे शक्ति कलियुगे"
   आज के इस प्रांतीय सम्मेलन में प्रदेश सरकार के कई बड़े चेहरे उपस्थित रहे। उनमें कैबिनेट मिनिस्टर डॉ रीता बहुगुणा जोशी की उपस्थिति उल्लेखनीय है, क्योंकि इन्होंने वित्तविहीन शिक्षकों की लड़ाई को नैतिक समर्थन भी देने की घोषणा की। यह नैतिकता इसलिए मायने रखती है, क्योंकि सरकारी तौर पर योगी सरकार कई दफा वित्तविहीन शिक्षकों से वायदा करके मुकर चुकी है। 
  वित्तविहीन शिक्षक वह शिक्षक है, जो प्रदेश के हज़ारों प्राइवेट विद्यालयों में शिक्षण करता है, लेकिन वह दो जून की रोटी ठीक से खा सके इस लायक भी मानदेय नही पाता है। पिछली अखिलेश सरकार ने इन शिक्षकों के लिए 900 रुपये प्रतिमाह का एक अपर्याप्त देना प्रारम्भ किया था। योगी सरकार ने सिंघासनारुढ़ होते ही पिछली सरकार के इस फैसले से खुद को अलग कर लिया था। जिससे इन शिक्षकों में योगी सरकार के प्रति खासा रोष पनप उठा था। शिक्षक एमएलसी उमेश द्विवेदी इन शिक्षकों और सरकार के बीच सेतु रूप में कार्य कर रहे हैं।
   आज कार्यक्रम स्थल पर मेरी महासभा के अध्यक्ष व एमएलसी उमेश द्विवेदी से एक छोटी सी मुलाकात और बातचीत हुई। जिसमें मुझे लगा कि एक बात अब वह ठीक से समझ चुके हैं कि योगी सरकार का खुला विरोध करके उससे कुछ भी हासिल नही होगा। क्योंकि पूर्ण बहुमत की सरकार पर उनके विरोध का कोई असर नही होगा। क्यों न सलीके और लोकतांत्रिक तरीके से इस सरकार को अपना संख्याबल दर्शा कर इन शिक्षकों के लिए उससे कुछ हासिल कर लिया जाय। इसके लिए सबसे ज्यादा जरूरी था कि इन शिक्षकों को संगठित व एक किया जाय। पूरे प्रदेश में मोटर साइकिल से घूम-घूमकर उनकी टीम इन शिक्षकों यह समझाने में सफल हुई कि एकजुट होकर ही इस सरकार को झुकाया जा सकता है, लड़ झगड़कर नही। 

शुक्रवार, 24 नवंबर 2017

एक विधायक ऐसा भी

फटा पायजामा ,पुरानी अम्बेस्डर कार जिसका पेंट जगह-जगह से उखड़ा हुआ , हाथ में 750 रूपये वाला चायना मोबाईल , सरकार द्वारा दिया गया एक पुलिस वाला जो ड्यूटी निभाने का बस, फर्ज अदा करता है उसे भी पता है, इस विधायक की तरफ कोई ऊँगली उठाना तो दूर ,ताकता भी नहीं , और एक ड्राईवर बस यही इनका काफिला होता है ।
रास्ते में चाय पीने का मन किया तो ,किसी झोपड़ी वाली दूकान के सामने गाडी खड़ी हो जाती है । जो चाहे मिल ले ,कभी समय लेने की जरुरत नहीं । सरकारी धन , मंदिर मस्जिद ,क्षेत्र के विकास में जाता है ,कोई कमीशन नहीं । खोजने पर भी इनका कोई दुश्मन नहीं मिलेंगा बिलकुल बिंदास जिंदगी ,भौतिकता से काफी दूर । अब आप सोच रहे है ,इनका जल्दी से नाम बता दो तो लो भाई किस बात की देर , ये है--- 73 वर्षीय निजामाबाद ,आजमगढ़ के सपा विधायक "श्री आलमबदी साहब" 1958 में साईंस मैथ्स से 12 वीं पास किए थे , तब से जन सेवा को ही इन्होंने अपना जीवन बना लिया है आज तक इनके ऊपर कोई दाग नहीं लगा है किसी भी प्रकार का कोई आपराधिक मुकदमें नहीं , एक बैंक खाता है 9 हजार रूपये उसमें जमा पूंजी बस ।

उत्तर प्रदेश की राजनीति में सादगी का पर्याय माने जाने वाले सपा विधायक आलमबदी मोदी लहर के बावजूद आजमगढ़ की निजामाबाद सीट से चुनाव जीते हैं। उन्होंने अपने निकटतम प्रतिद्वन्द्वि बसपा के चंद्रदेव राम को 18,529 वोटों से हरा दिया। आलमबदी को 67,274 वोट मिले जबकि चन्द्रदेव राम को 48,745 वोट। इस सीट पर भाजपा 43,786 वोट पाकर तीसरे स्थान पर रही थी।
अपनी सादगी के लिये मशहूर तीन बार से विधायक आलमबदी को इस बात का कभी कोई अभिमान नहीं रहा। वह टिनशेड के नीचे रहते हैं। अपनी फर्नीचर की पुरानी दुकान पर बैठते हैं। राजनीति में आने से पहले वह बिजली विभाग में जूनियर इंजीनियर थे। इन्होंने नौकरी छोड़कर सिविल लाइन में एक वेल्डिंग की दुकान खोल ली और वहीं से विधायक बनने की कहानी शुरू हुई। पहली बार 1996 में समाजवादी पार्टी से विधायक बने। 2002 में भी यह विधायक बने पर 2007 में इन्हें दूसरे नंबर से संतोष करना पड़ा। पर 2012 में इन्होंने फिर विजय पायी और अब 
2017 की मोदी लहर को भी परास्त कर दिया।

गुरुवार, 16 नवंबर 2017

बहुत कठिन है देश के लिए जासूसी जीवन


प्रभात रंजन दीन
छोटे से सीलन भरे कमरे से आने वाली चीख और सिसकियों की आवाजें किसकी हैं? दर्द से मुक्ति पाने की छटपटाहट के बेचैन स्वर किसके हैं? देर रात लोगों को परेशान करने वाले बेमानी शब्द-शोर से भरी पागल आवाजें किसकी हैं? किसकी सुनाई पड़ती हैं किसी बच्चे को फुसलाने जैसी कातर ध्वनियां? आप यह न समझें कि यह किसी खूंखार जेल के बंद सेल से आने वाली दुखी-प्रताड़ित कैदियों की आवाजें हैं. यह उन देशभक्तों का यथार्थ आर्तनाद है, जिन्होंने अपने देश के लिए पाकिस्तान में जासूसी करते हुए जीवन खपा दिया, लेकिन आज अपने देश में दिहाड़ी मजदूर या उससे भी गलीज हालत में हैं. उन्हें कोई ‘राष्ट्रभक्त’ पूछता नहीं. ‘राष्ट्रभक्त’ सरकार को देशभक्त जासूस की कोई चिंता नहीं. अब संकेत में नहीं, सीधी बात पर आते हैं. लखनऊ में एक शख्स मिले जो भारतीय खुफिया एजेंसी ‘रिसर्च एंड अनालिसिस विंग’ (‘रॉ’) के जासूस थे. उन्होंने अपने बेशकीमती 21 वर्ष पाकिस्तान के अलग-अलग इलाकों में सड़कों पर खोमचा घसीटते हुए, मुल्ला बन कर मस्जिद में नमाज पढ़ाते हुए, संवेदनशील सरकारी महकमों पर महीनों नजरें रखते हुए, पाकिस्तानी सेना द्वारा पोषित आतंकियों से दोस्ती गांठते हुए, जान की परवाह न कर वहां की सूचनाएं भारत भेजते हुए और आखिर में बर्बर यातनाओं के साथ जेल काटते हुए बिताए. बड़ी मुश्किल से पाकिस्तान की जेल से छूट कर भारत पहुंचे ‘रॉ’ एजेंट मनोज रंजन दीक्षित का जीवन अपने देश आकर और दुश्वार हो गया. उनकी पत्नी शोभा दीक्षित को कैंसर हो गया. कीमोथिरेपी और दुष्कर इलाज के क्रम में शोभा मां नहीं बन सकीं. वे मानसिक तौर पर विक्षिप्त हो गईं. रात-रात को उस छोटे से कमरे से आने वाली चीखें और सिसकियां उन्हीं की हैं. दर्द से छटपटाने की आवाजें उन्हीं की हैं. विक्षिप्तता में होने वाली हरकतें और पति को नोचने-खसोटने-मारने की आवाजें शोभा की ही हैं. पत्नी को बच्चे की तरह मनाने की कातर कोशिश करने वाले वही शख्स हैं... ‘रॉ’ एजेंट मनोज रंजन दीक्षित उर्फ मोहम्मद इमरान. 
दीक्षित की तरह ऐसे अनगिनत देशभक्त हैं, जिनका जीवन देश के लिए जासूसी करते हुए और जान को जोखिम में डालते हुए बीत गया. जब वे अपने वतन वापस लौटे तो अपना ही देश उन्हें भूल चुका था. सरकार को भी यह याद नहीं रहा कि भारत सरकार का प्रतिनिधि होने के नाते ही वह पाकिस्तान में प्रताड़नाएं झेल रहा था. कुलभूषण जाधव तो सुर्खियों में इसलिए हैं कि उनसे सरकार का राजनीतिक-स्वार्थ सध रहा है. यह सियासत क्या कुलभूषण के जिंदा रहने की गारंटी है? अगर गारंटी होती तो रवींद्र कौशिक, सरबजीत सिंह जैसे तमाम देशभक्त पाकिस्तान की जेलों में क्या सड़ कर मरते? फिर सरकार का उनसे क्या लेना-देना, जो देशभक्ति में खप चुके, पर आज भी जिंदा हैं! ऐसे खपे हुए देशभक्तों की लंबी फेहरिस्त है, जो अपनी बची हुई जिंदगी घसीट रहे हैं. इन्होंने देश की सेवा में खुद को मिटा दिया, पर सरकार ने उन्हें न नाम दिया न इनाम. पूर्व ‘रॉ’ एजेंट मनोज रंजन दीक्षित का प्रकरण सुनकर केंद्रीय खुफिया एजेंसी के एक आला अधिकारी ने कहा कि मोदी सरकार बदलाव की बातें तो करती है, लेकिन विदेशों में काम कर रहे ‘रॉ’ एजेंट्स को स्थायी गुमनामी के अंधेरे सुरंग में धकेल देती है. विदेशों में हर पल जान जोखिम में डाले काम कर रहे अपने ही जासूसों की हिफाजत और देश में रह रहे उनके परिवार के लिए आर्थिक संरक्षण का सरकार कोई उपाय नहीं करती. जबकि देश के अंदर काम करने वाले खुफिया अधिकारियों की बाकायदा सरकारी नौकरी होती है. वेतन और पेंशन उन्हें और उनके परिवार वालों को ठोस आर्थिक संरक्षण देता है. इसके ठीक विपरीत ‘रॉ’ के लिए जो एजेंट्स चुने जाते हैं, सरकार उनकी मूल पहचान ही मिटा देती है. उनका मूल शिक्षा प्रमाणपत्र रख लेती है और किसी भी सरकारी या कानूनी दस्तावेज से उसका नाम हटा देती है. मनोज रंजन दीक्षित इसकी पुष्टि करते हैं. दीक्षित कहते हैं कि नजीबाबाद स्थित एमडीएस इंटर कॉलेज से उन्होंने स्कूली शिक्षा प्राप्त की थी और रुहेलखंड विश्वविद्यालय के साहू-जैन कॉलेज से उन्होंने ग्रैजुएशन किया था. ‘रॉ’ के लिए चुने जाने के बाद उनसे स्कूल और कॉलेज के मूल प्रमाणपत्र ले लिए गए. जब वे 21 साल बाद अपने घर लौटे तो उनकी पूरी दुनिया बदल चुकी थी. उन्हें बताया गया कि सरकारी मुलाजिमों का एक दस्ता वर्षों पहले उनके घर से उनकी सारी तस्वीरें ले जा चुका था. राशनकार्ड से मनोज का नाम हट चुका था. सरकारी दस्तावेजों से मनोज का नाम ‘डिलीट’ किया जा चुका था. भारत सरकार ऐसी घिसी-पिटी लीक पर क्यों चलती है? भारतीय खुफिया एजेंसी के अधिकारी ही यह सवाल उठाते हैं और कहते हैं कि अमेरिका, चीन, इजराइल, रूस, ब्रिटेन, जर्मनी जैसे कई देश अपने जासूसों की हद से आगे बढ़ कर हिफाजत करते हैं और उनके परिवारों का ख्याल रखते हैं. यहां तक कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई तक अपने एजेंटों को सुरक्षा कवच और आर्थिक संरक्षण देती है, लेकिन भारत सरकार इस पर ध्यान नहीं देती, क्योंकि सत्ता-सियासतदानों को इसमें वोट का फायदा नहीं दिखता. 
वर्ष 1984 में ‘रॉ’ के टैलेंट हंट के जरिए चुने गए मनोज रंजन दीक्षित की अकेली आपबीती देश के युवकों को यह संदेश देने के लिए काफी है कि वे ‘रॉ’ जैसी खुफिया एजेंसी के लिए कभी काम नहीं करें. मेजर रवींद्र कौशिक से लेकर ऐसे तमाम ‘रॉ’ एजेंटों की बेमानी गुमनाम-शहादतों के उदाहरण भरे पड़े हैं. खुफिया एजेंसियों के अफसर ही यह कहते हैं कि पाकिस्तान या अन्य देशों में तैनात ‘रॉ’ एजेंट के प्रति आंखें मूंदने वाली सरकार भारत में रह रहे उनके परिवार वालों को लावारिस क्यों छोड़ देती है, यह बात समझ में नहीं आती. ऐसे में देश का कोई युवक ‘रॉ’ जैसी खुफिया एजेंसी के लिए काम करने के बारे में क्यों सोचे? मनोज रंजन दीक्षित को ‘रॉ’ के टैलेंट फाइंडर जीतेंद्रनाथ सिंह परिहार ने चुना था. एक साल की ट्रेनिंग के बाद दीक्षित को जनवरी 1985 में भारत-पाकिस्तान सीमा पर मोहनपुर पोस्ट से ‘लॉन्च’ किया गया. दीक्षित के साथ एक गाइड भी था जो उन्हें पाकिस्तान के पल्लो गांव होते हुए बम्बावली-रावी-बेदियान नहर पार करा कर लाहौर ले गया और उन्हें वहां छोड़ कर चला गया. उसके बाद से दीक्षित का जासूसी करने का सारा रोमांच त्रासद-कथा में तब्दील होता चला गया. 23 जनवरी 1992 को सिंध प्रांत के हैदराबाद शहर से गिरफ्तार किए जाने तक दीक्षित ने जासूसी के तमाम पापड़ बेले, खोमचे घसीटे, लाहौर, कराची, मुल्तान, हैदराबाद, पेशावर जैसे तमाम शहरों में आला सैन्य अफसरों से लेकर बड़े नेताओं की जासूसी की और दुबई, कुवैत, कतर, हॉन्गकॉन्ग, सिंगापुर जैसी जगहों पर बैठे ‘रॉ’ अफसरों के जरिए भारत तक सूचना पहुंचाई. ‘रॉ’ ने हैदराबाद के आमिर आलम के जरिए दीक्षित को अफगानिस्तान भी भेजा जहां जलालाबाद और कुनर में उन्हें अहले हदीस के चीफ शेख जमीलुर रहमान के साथ अटैच किया गया. वहां के सम्पर्कों के जरिए दीक्षित पेशावर में डेरा जमाए अरब मुजाहिदीन के सेंटर बैतुल अंसार पहुंच गए और जेहादी के रूप में ग्रुप में शामिल हो गए. दीक्षित बताते हैं कि बैतुल अंसार पर ओसामा बिन लादेन और शेख अब्दुर्रहमान जैसे आतंकी सरगना पहुंचते थे और सेंटर को काफी धन देते थे. 23 जनवरी 1992 को दीक्षित को सिंध प्रांत के हैदराबाद से गिरफ्तार कर लिया गया. गिरफ्तारी के बाद दीक्षित की यंत्रणा-यात्रा शुरू हुई. पहले उन्हें हैदराबाद में आईएसआई के लॉकअप में रखा गया फिर उन्हें मिलिट्री इंटेलिजेंस की 302वीं बटालियन में शिफ्ट कर दिया गया. हैदराबाद से उन्हें मिलिट्री इंटेलिजेंस की दूसरी कोर के कराची स्थित मुख्यालय भेजा गया. पूछताछ के दौरान दीक्षित को बर्बर यातनाएं दी जाती रहीं. पिटाई के अलावा उन्हें सीधा बांध कर नौ-नौ घंटे खड़ा रखा जाता था और कई-कई रात सोने नहीं दिया जाता था. करीब एक साल तक उन्हें इसी तरह अलग-अलग फौजी ठिकानों पर टॉर्चर किया जाता रहा और पूछताछ होती रही. इस दरम्यान दीक्षित के हबीब बैंक के हैदराबाद और मुल्तान ब्रांच के अकाउंट भी जब्त कर लिए गए और उसमें जमा होने वाले धन के स्रोतों की गहराई से छानबीन की गई. 21 दिसम्बर को उन्हें कराची जेल शिफ्ट कर दिया गया. पांच महीने बाद जून 1993 से दीक्षित पर पाकिस्तानी सेना की अदालत में मुकदमा शुरू हुआ और उन्हें कराची जेल से 85वीं एसएंडटी कोर (सप्लाई एंड ट्रांसपोर्ट कोर) को हैंड-ओवर कर दिया गया. इस दरम्यान दीक्षित को पाक सेना की 44वीं फ्रंटियर फोर्स (एफएफ) के क्वार्टर-गार्ड में बंद रखा गया. वर्ष 1994 में दीक्षित 21वीं आर्मर्ड ब्रिगेड के हवाले हुए और उन्हें 51-लांसर्स के क्वार्टर-गार्ड में शिफ्ट किया गया. इस बीच मेजर नसीम खान, मेजर सलीम खान, लेफ्टिनेंट कर्नल हमीदुल्ला खान और ब्रिगेडियर रुस्तम दारा की फौजी अदालतों में मुकदमा (कोर्ट मार्शल) चलता रहा. दीक्षित कहते हैं कि कोई कबूलदारी और सबूत न होने के कारण पाकिस्तान सेना ने उन्हें सिंध सरकार के सिविल प्रशासन के हवाले कर दिया. सिंध सरकार ने वर्ष 2001 में ही दीक्षित को भारत वापस भेजने (रिपैट्रिएट करने) का आदेश दे दिया था, लेकिन वह चार साल तक कानूनी चक्करों में फंसता-निकलता आखिरकार मार्च 2005 में तामील हो पाया. मनोज रंजन दीक्षित को 22 मार्च 2005 को बाघा बॉर्डर पर भारतीय सुरक्षा एजेंसियों के सुपुर्द कर दिया गया. ‘रॉ’ के मिशन पर पाकिस्तान में 21 वर्ष बिताने वाले मनोज रंजन दीक्षित 13 साल से अधिक समय तक जेल में बंद रहे. भारत लौटने पर भारत सरकार के एक नुमाइंदे ने उन्हें दो किश्तों में एक लाख 36 हजार रुपए दिए और उसके बाद फाइल क्लोज कर दी. पाकिस्तान की जेल से निकल कर दीक्षित भारत के अधर में फंस गए. जीने के लिए उन्हें ईंट भट्टे पर मजदूरी करनी पड़ी. फिलहाल वे लखनऊ की एक कंसट्रक्शन कंपनी में मामूली मुलाजिम हैं. पत्नी कैंसर से पीड़ित हैं. राम मनोहर लोहिया अस्पताल में कीमोथिरैपी और ऑपरेशन के बाद भी इलाज का क्रम जारी ही है. लखनऊ के ही नूर मंजिल मानसिक रोग चिकित्सालय में उनकी मानसिक विक्षिप्तता का इलाज चल रहा है. अल्पवेतन में बीमार पत्नी के साथ जिंदगी की गाड़ी खींचना दीक्षित को मुश्किलों भरा तो लगता है, लेकिन वे कहते हैं, ‘पाकिस्तान की यंत्रणाएं झेल लीं तो अपने देश की त्रासदी भी झेल ही लेंगे’. दीक्षित कभी प्रधानमंत्री को पत्र लिखते हैं तो कभी मुख्यमंत्री को. सारे पत्र वे अपने साथ संजो कर रखते हैं और उन्हें दिखा कर कहते हैं, ‘जिस सुबह की खातिर जुग-जुग से हम सब मर-मर के जीते हैं, वो सुबह कभी तो आएगी..!’

‘रॉ’ एजेंट्स की लंबी जमातः 
पाकिस्तान में हुए कुर्बान, भारत ने मिटा दी पहचान...
‘रॉ’ के लिए जासूसी करने के आरोप में पकड़े गए नौसेना कमांडर कुलभूषण जाधव का पहला मामला है जब केंद्र सरकार ने उनकी रिहाई के लिए पुरजोर तरीके से आवाज उठाई और अंतरराष्ट्रीय न्यायालय तक गुहार लगाई. लेकिन इसके पहले मेजर रवींद्र कौशिक से लेकर सरबजीत सिंह और सरबजीत से लेकर तमाम नाम, अनाम और गुमनाम जासूसों की हिफाजत के लिए भारत सरकार ने आज तक कोई कदम नहीं उठाया. कुलभूषण जाधव का मसला ही अलग है. उन्हें तो तालिबानों ने ईरान सीमा से अगवा किया और पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के हाथों बेच डाला. जर्मन राजनयिक गुंटर मुलैक अंतरराष्ट्रीय फोरम पर इसे उजागर कर चुके हैं. पाकिस्तान की कोट लखपत जेल में बंद सरबजीत की रिहाई के मसले में भी सामाजिक-राजनीतिक शोर तो खूब मचा लेकिन भारत सरकार ने कोई कारगर दबाव नहीं बनाया. आखिरकार, दूसरे पाकिस्तानी कैदियों को उकसा कर कोट लखपत जेल में ही सरबजीत सिंह की हत्या करा दी गई. 
पाकिस्तान में मिशन पूरा कर या जेल की सजा काट कर वापस लौटे कई ‘रॉ’ एजेंटों ने केंद्र सरकार से औपचारिक तौर पर आर्थिक संरक्षण देने की गुहार लगाई है, लेकिन उस पर कोई सुनवाई नहीं की गई. यहां तक कि भारत सरकार ने उन्हें सरकारी कर्मचारी मानने से ही इन्कार कर दिया. सरकार ने अपने पूर्व ‘रॉ’ एजेंटों को पहचाना ही नहीं. ऐसे ही ‘रॉ’ एजेंटों में गुरदासपुर के खैरा कलां गांव के रहने वाले करामत राही शामिल हैं, जिन्हें वर्ष 1980 में पाकिस्तान ‘लॉन्च’ किया गया था. पहली बार वे अपना मिशन पूरा कर वापस लौट आए, लेकिन ‘रॉ’ ने उन्हें 1983 में फिर पाकिस्तान भेज दिया. इस बार 1988 में वे मीनार ए पाकिस्तान के नजदीक गिरफ्तार कर लिए गए. करामत 18 साल जेल काटने के बाद वर्ष 2005 में वापस लौट पाए. करामत की रिहाई भी पंजाब के उस समय भी मुख्यमंत्री रहे कैप्टन अमरिंदर सिंह के हस्तक्षेप और अथक प्रयास से संभव हो पाई. देश वापस लौटने के बाद करामत ने ‘रॉ’ मुख्यालय से सम्पर्क साधा, लेकिन ‘रॉ’ मुख्यालय के आला अफसरों ने धमकी देकर करामत को खामोश कर दिया. भारत सरकार की इस आपराधिक अनदेखी के खिलाफ करामत ने सुप्रीम कोर्ट की शरण ली, लेकिन अदालत भी कहां ‘नीचा’ सुनती है! 
इन मामलों में सम्बन्धित राज्य सरकारें भी ‘रॉ’ एजेंटों के प्रति आपराधिक उपेक्षा का ही भाव रखती हैं. ‘रॉ’ एजेंट कश्मीर सिंह का मामला अपवाद की तरह सामने आया जब 35 साल पाकिस्तानी जेल की सजा काट कर लौटने के बाद पंजाब सरकार ने उन्हें जमीन दी और मुआवजा दिया. वर्ष 1962 से लेकर 1966 तक कश्मीर सिंह सेना की नौकरी में थे. उसके बाद ‘रॉ’ ने उन्हें अपने काम के लिए चुना और पाकिस्तान ‘लॉन्च’ कर दिया. 1973 में वे पाकिस्तान में गिरफ्तार कर लिए गए. उन्हें पाकिस्तान की विभिन्न जेलों में घुमाया जाता रहा और प्रताड़ित किया जाता रहा. 17 साल तक उन्हें एक एकांत सेल में बंद रखा गया. चार मार्च 2008 को वे रिहा होकर भारत आए, लेकिन इस लंबे अंतराल में कश्मीर सिंह जिंदगी से नहीं, पर उम्र से शहीद हो चुके थे. 
गुरदास के डडवाईँ गांव के रहने वाले सुनील मसीह दो फरवरी 1999 को पाकिस्तान के शकरगढ़ में गिरफ्तार किए गए थे. आठ साल के भीषण अत्याचार के बाद वर्ष 2006 में वे अत्यंत गंभीर हालत में भारत वापस लौटे, लेकिन केंद्र सरकार ने उनके बारे में कोई ख्याल नहीं किया. उन्हीं के गांव डडवाईं के डैनियल उर्फ बहादुर भी पाकिस्तानी रेंजरों द्वारा 1993 में गिरफ्तार किए गए थे. चार साल की सजा काट कर वापस लौटे. अब पूर्व ‘रॉ’ एजेंट डैनियल रिक्शा चला कर अपना गुजारा करते हैं. पाकिस्तान की जेल में तकरीबन तीन दशक काटने के बाद छूट कर भारत आने वाले पूर्व ‘रॉ’ एजेंटों में सुरजीत सिंह का नाम भी शामिल है. ‘रॉ’ ने सुरजीत सिंह को वर्ष 1981 में पाकिस्तान ‘लॉन्च’ किया था. वे 1985 में गिरफ्तार किए गए और पाकिस्तान के खिलाफ जासूसी करने के आरोप में उन्हें फांसी की सजा दी गई. 1989 में उनकी सजा आजीवन कारावास में बदल दी गई. वर्ष 2012 में पाकिस्तान की कोट लखपत जेल से सजा काटने के बाद सुरजीत रिहा हुए. सुरजीत ने भी ‘रॉ’ के अधिकारियों से सम्पर्क साधा लेकिन नाकाम रहे. सुरजीत अपनी पत्नी को यह बोल कर पाकिस्तान गए थे कि वे जल्दी लौटेंगे लेकिन 1981 के गए हुए 2012 में वापस लौटे. जब लौटे तब वे 70 साल के हो चुके थे. भारत सरकार ने उनके वजूद को इन्कार कर दिया, जबकि वापस लौटने पर सुरजीत ने पूछा कि भारत सरकार ने उन्हें पाकिस्तान नहीं भेजा तो वे अपनी मर्जी से पाकिस्तान कैसे और क्यों चले गए? सुरजीत मिशन के दरम्यान 85 बार पाकिस्तान गए और आए. पाकिस्तान में गिरफ्तार हो जाने के बाद भारतीय सेना की तरफ से उनके परिवार को हर महीने डेढ़ सौ रुपए दिए जाते थे. सुरजीत पूछते हैं कि अगर वे लावारिस ही थे तो सेना उनके घर पैसे क्यों भेज रही थी? सुरजीत ने भी न्याय के लिए सुप्रीम कोर्ट में शरण ले रखी है.
गुरदासपुर जिले के डडवाईं गांव के ही रहने वाले सतपाल को वर्ष 1999 में पाकिस्तान में गिरफ्तार किया गया था. तब भारत पाकिस्तान के बीच करगिल युद्ध चल रहा था. पाकिस्तान में सतपाल को भीषण यातनाएं दी गईं. पाकिस्तान की जेल में ही वर्ष 2000 में उनकी मौत हो गई. विडंबना यह है कि पाकिस्तान सरकार ने सतपाल का पार्थिव शरीर भारत को सौंपने की पेशकश की तो भारत सरकार ने शव लेने तक से मना कर दिया. सतपाल का शव लाहौर अस्पताल के शवगृह में पड़ा रहा. पंजाब में स्थानीय स्तर पर काफी बावेला मचने के बाद सतपाल का शव मंगवाया जा सका. शव पर प्रताड़ना के गहरे घाव और चोट के निशान मौजूद थे. तब भी भारत सरकार को उनकी शहादत की कीमत समझ में नहीं आई. सतपाल के बेटे सुरेंदर पाल आज भी अपने पिता के लिए न्याय की लड़ाई लड़ रहे हैं. पंजाब सरकार ने सतपाल के बेटे सुरेंदर पाल को सरकारी नौकरी का आश्वासन भी दिया, लेकिन यह आश्वासन भी ढाक के तीन पात ही साबित हुआ. 
विनोद साहनी को 1977 में पाकिस्तान भेजा गया था, लेकिन वे जल्दी ही पाकिस्तानी तंत्र के हाथों दबोच लिए गए. उन्हें 11 साल की सजा मिली. सजा काटने के बाद विनोद 1988 में वापस लौटे. ‘रॉ’ ने विनोद को सरकारी नौकरी देने और उनके परिवार को सुरक्षा प्रदान करने का आश्वासन दिया था, लेकिन लौटने के बाद ‘रॉ’ ने उन्हें पहचानने से भी इन्कार कर दिया. विनोद अब जम्मू में ‘पूर्व जासूस’ नामकी एक संस्था चलाते हैं और तमाम पूर्व जासूसों को जोड़ने का जतन करते रहते हैं. 
रामराज ने 18 साल तक भारतीय खुफिया एजेंसी ‘रॉ’  की सेवा की. 18 सितम्बर 2004 को उन्हें पाकिस्तान में गिरफ्तार किया गया. करीब आठ साल जेल काटने के बाद रिहा हुए रामराज को भारत आने पर उसी खुफिया एजेंसी ने पहचानने से इन्कार कर दिया. ऐसा ही हाल गुरबक्श राम का भी हुआ. एक साल की ट्रेनिंग देकर उन्हें वर्ष 1988 को पाकिस्तान भेजा गया था. उनका मिशन पाकिस्तान की सैन्य युनिट के आयुध भंडार की जानकारियां हासिल करना था. मिशन पूरा कर वापस लौट रहे गुरबक्श को पाकिस्तानी सेना के गोपनीय दस्तावेजों के साथ गिरफ्तार कर लिया गया. उन्हें सियालकोट की गोरा जेल में रखा गया. 14 साल की सजा काट कर वर्ष 2006 में वापस अपने देश लौटे गुरबक्श को अब सरकार नहीं पहचानती. रामप्रकाश को प्रोफेशनल फोटोग्राफर के रूप में ‘रॉ’ ने वर्ष 1994 में पाकिस्तान में ‘प्लांट’ किया था. 13 जून 1997 को भारत वापस आते समय रामप्रकाश को गिरफ्तार कर लिया गया. सियालकोट की जेल में नजरबंद रख कर उनसे एक साल तक पूछताछ की जाती रही. वर्ष 1998 में उन्हें 10 साल की सजा सुनाई गई. सजा काटने के बाद सात जुलाई 2008 को उन्हें भारत भेज दिया गया. सूरम सिंह तो 1974 में सीमा पार करते समय ही धर लिए गए थे. उनसे भी सियालकोट की गोरा जेल में चार महीने तक पूछताछ होती रही और 13 साल सात महीने पाकिस्तान की विभिन्न जेलों में प्रताड़ित होने के बाद आखिरकार वे 1988 में रिहा होकर भारत आए. बलबीर सिंह को 1971 में पकिस्तान भेजा गया था. 1974 में बलबीर गिरफ्तार कर लिए गए और 12 साल की जेल की सजा काटने के बाद 1986 में भारत वापस लौटे. भारत आने के बाद उन्हें जब ‘रॉ’ से कोई मदद नहीं मिली तो उन्होंने अदालत का दरवाजा खटखटाया. दिल्ली हाईकोर्ट ने मुआवजा देने का आदेश दिया, लेकिन ‘रॉ’ ने हाईकोर्ट के आदेश पर भी कोई कार्रवाई नहीं की. 
‘रॉ’ एजेंट देवुत को पाकिस्तान की जेल में इतना प्रताड़ित किया गया कि वे लकवाग्रस्त हो गए. देवुत को 1990 में पाकिस्तान भेजा गया था. जेल की सजा काटने के बाद वे 23 दिसम्बर 2006 को लकवाग्रस्त हालत में रिहा हुए. लकवाग्रस्त केंद्र सरकार ने भी उनकी तरफ ध्यान नहीं दिया और उनकी पत्नी वीणा न्याय के लिए दरवाजे-दरवाजे सिर टकरा रही हैं और मत्था टेक रही हैं. ‘रॉ’ ने तिलकराज को भी पाकिस्तान ‘लॉन्च’ किया था, लेकिन उसका कोई पता ही नहीं चला. ‘रॉ’ ने भी पाकिस्तान में गुम हुए तिलकराज को खोजने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. तिलकराज के वयोवृद्ध पिता रामचंद्र आज भी अपने बेटे के वापस लौटने का इंतजार कर रहे हैं. ‘रॉ’ ने इसी तरह ओमप्रकाश को भी वर्ष 1988 में पाकिस्तान भेजा, लेकिन ओमप्रकाश का फिर कुछ पता नहीं चला. कुछ दस्तावेजों और कुछ कैदियों की खतो-किताबत से ओमप्रकाश के घर वालों को उनके पाकिस्तान की जेल में होने का सुराग मिला. इसे ‘रॉ’  को दिया भी गया, लेकिन ‘रॉ’ ने कोई रुचि नहीं ली. बाद में ओमप्रकाश ने अपने परिवार वालों को चिट्ठी भी लिखी. 14 जुलाई 2012 को लिखे गए ओमप्रकाश के पत्र के बारे में ‘रॉ’ को भी जानकारी दी गई, लेकिन सरकार ने इस मामले में कुछ नहीं किया. ‘रॉ’ एजेंट सुनील भी पाकिस्तान से अपने घर वालों को चिट्ठियां लिख रहे हैं, लेकिन उनकी कोई नहीं सुन रहा. 

केंद्र की बेजा नीतियों और ‘रॉ’ की साजिश से मारे गए कौशिक
पाकिस्तानी की सेना में मेजर के ओहदे तक पहुंच गए मेजर नबी अहमद शाकिर उर्फ रवींद्र कौशिक भारत सरकार की बेजा नीतियों और खुफिया एजेंसी ‘रॉ’ की साजिश के कारण मारे गए. ‘रॉ’ के अधिकारियों ने सोचे-संमझे इरादे से इनायत मसीह नामके ऐसे ‘बेवकूफ’ एजेंट को पाकिस्तान भेजा जिसने वहां जाते ही रवींद्र कौशिक का भंडाफोड़ कर दिया. कर्नल रैंक पर तरक्की पाने जा रहे रवींद्र कौशिक उर्फ मेजर नबी अहमद शाकिर गिरफ्तार कर लिए गए. ‘रॉ’ के सूत्र कहते हैं कि पाकिस्तानी सेना में रवींद्र कौशिक को मिल रही तरक्की और भारत में मिल रही प्रशंसा (उन्हें ब्लैक टाइगर के खिताब से नवाजा गया था) से जले-भुने ‘रॉ’ अधिकारियों ने षडयंत्र करके कौशिक की हत्या करा दी. कौशिक को पाकिस्तान में भीषण यंत्रणाएं दी गईं. पाकिस्तान की जेल में ही उनकी बेहद दर्दनाक मौत हो गई. भारत सरकार ने कौशिक के परिवार को यह पुरस्कार दिया कि रवींद्र से जुड़े सभी रिकॉर्ड नष्ट कर दिए और चेतावनी दी कि रवींद्र के मामले में चुप्पी रखी जाए. रवींद्र ने जेल से अपने परिवार को कई चिट्ठियां लिखी थीं. उन चिट्ठियों में उन पर ढाए जा रहे अत्याचारों का दुखद विवरण होता था. रवींद्र ने अपने विवश पिता से पूछा था कि क्या भारत जैसे देश में कुर्बानी देने वालों को यही सिला मिलता है? राजस्थान के रहने वाले रवींद्र कौशिक लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्र थे, जब ‘रॉ’ के तत्कालीन निदेशक ने खुद उन्हें चुना था. 1965 और 1971 के युद्ध में मार खाए पाकिस्तान के अगले षडयंत्र का पता लगाने के लिए ‘रॉ’ ने कौशिक को पाकिस्तान भेजा. कौशिक ने पाकिस्तान में पढ़ाई की. सेना का अफसर बना और तरक्की के पायदान चढ़ता गया. कौशिक की सूचनाएं भारतीय सुरक्षा बलों के लिए बेहद उपयोगी साबित होती रहीं और पाकिस्तान के सारे षडयंत्र नाकाम होते रहे. पहलगाम में भारतीय जवानों द्वारा 50 से अधिक पाक सैनिकों का मारा जाना रवींद्र की सूचना के कारण ही संभव हो पाया. कौशिक की सेवाओं को सम्मान देते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उन्हें ‘ब्लैक टाइगर’ की उपाधि दी थी. लेकिन ऐसे सपूत को ‘रॉ’ ने ही साजिश करके पकड़वा दिया और अंततः उनकी दुखद मौत हो गई.

भीषण अराजकता और बदइंतजामी का शिकार है ‘रॉ’
केंद्रीय खुफिया एजेंसी ‘रिसर्च एंड अनालिसिस विंग’ (रॉ) में भीषण अराजकता व्याप्त है. ‘रॉ’ की जिम्मेदारियां (अकाउंटिबिलिटी) कानूनी प्रक्रिया के तहत तय नहीं हैं. एकमात्र प्रधानमंत्री के प्रति उत्तरदायी होने के कारण ‘रॉ’ के अधिकारी इस विशेषाधिकार का बेजा इस्तेमाल करते हैं और विदेशी एजेंसियों से मनमाने तरीके से सम्पर्क साध कर फायदा उठाते रहते हैं. ‘रॉ’ के अधिकारियों कर्मचारियों के काम-काज के तौर तरीकों और धन खर्च करने पर अलग से कोई निगरानी नहीं रहती, न उसकी कोई ऑडिट ही होती है. ‘रॉ’ के अधिकारियों की बार-बार होने वाली विदेश यात्राओं का भी कोई हिसाब नहीं लिया जाता. कौन ले इसका हिसाब? प्रधानमंत्री या राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार छोड़ कर कोई अन्य अधिकारी ‘रॉ’ से कुछ पूछने या जलाब-तलब करने की हिमाकत नहीं कर सकता. ‘रॉ’ के अधिकारी अमेरिका, कनाडा, इंग्लैंड और यूरोपीय देशों में बेतहाशा आते-जाते रहते हैं. लेकिन दक्षिण एशिया, मध्य-पूर्व और अफ्रीकी देशों में उनकी आमद-रफ्त काफी कम होती है. जबकि इन देशों में ‘रॉ’ के अधिकारियों का काम ज्यादा है. ‘रॉ’ के अधिकारी युवकों को फंसा कर पाकिस्तान जैसे देशों में भेजते हैं और उन्हें मरने के लिए लावारिस छोड़ देते हैं. प्रधानमंत्री भी ‘रॉ’ से यह नहीं पूछते कि अमेरिका, पश्चिमी यूरोप, ऑस्ट्रेलिया और जापान जैसे आलीशान देशों में ‘रॉ’ अधिकारियों की पोस्टिंग अधिक क्यों की जाती है और पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका या अन्य दक्षिण एशियाई देशों या मध्य पूर्व के देशों में जरूरत से भी कम तैनाती क्यों है? इन देशों में ‘रॉ’ का कोई अधिकारी जाना नहीं चाहता. लेकिन इस अराजकता के बारे में कोई पूछताछ नहीं होती. ‘रॉ’ में सामान्य स्तर के कर्मचारियों की होने वाली नियुक्तियों की कोई पारदर्शी प्रक्रिया नहीं है. कोई निगरानी नहीं है. ‘रॉ’ के कर्मचारियों का सर्वेक्षण करें तो अधिकारियों के नाते-रिश्तेदारों की वहां भीड़ जमा है. सब अधिकारी अपने-अपने रिश्तेदारों के संरक्षण में लगे रहते हैं. तबादलों और तैनातियों पर अफसरों के हित हावी हैं. यही वजह है कि जिस खुफिया एजेंसी को सबसे अधिक पेशेवर (प्रोफेशनल) होना चाहिए था, वह सबसे अधिक लचर साबित हो रही है. 
‘रॉ’ में सीआईए वह कुछ अन्य विदेशी खुफिया एजेंसियों की घुसपैठ भी गंभीर चिंता का विषय है. ‘रॉ’ के डायरेक्टर तक सीआईए के लिए जासूसी करने के आरोप में जेल की हवा खा चुके हैं. इसी तरह एक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी जिसे आईबी का निदेशक बनाया जा रहा था, उसके बारे में पता चला कि वह दिल्ली में तैनात महिला सीआईए अधिकारी हेदी अगस्ट के लिए काम कर रहा था. तब उसे नौकरी से जबरन रिटायर किया गया. भेद खुला कि सीआईए ही उस आईपीएस अधिकारी को आईबी का निदेशक बनाने के लिए परोक्ष रूप से लॉबिंग कर रही थी. ‘रॉ’ में गद्दारों की लंबी कतार लगी है. ‘रॉ’ के दक्षिण-पूर्वी एशिया मसलों के प्रभारी व संयुक्त सचिव स्तर के आला अफसर मेजर रविंदर सिंह का सीआईए के लिए काम करना और सीआईए की साजिश से फरार हो जाना भारत सरकार को पहले ही काफी शर्मिंदा कर चुका है. रविंदर सिंह जिस समय ‘रॉ’ के कवर में सीआईए के लिए क्रॉस-एजेंट के बतौर काम कर रहा था, उस समय भी केंद्र में भाजपा की सरकार थी और अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे. वर्ष 2004 में केंद्र में कांग्रेस की सरकार आने के बाद रविंदर सिंह भारत छोड़ कर भाग गया. अराजकता का चरम यह है कि उसकी फरारी के दो साल बाद नवम्बर 2006 में ‘रॉ’ ने एफआईआर दर्ज करने की जहमत उठाई. मेजर रविंदर सिंह की फरारी का रहस्य ढूंढ़ने में ‘रॉ’ को आधिकारिक तौर पर आजतक कोई सुराग नहीं मिल पाया. जबकि ‘रॉ’ के ही अफसर अमर भूषण ने बाद में यह रहस्य खोला कि मेजर रविंदर सिंह और उसकी पत्नी परमिंदर कौर सात मई 2004 को राजपाल प्रसाद शर्मा और दीपा कुमारी शर्मा के छद्म नामों से फरार हो गए थे. उनकी फरारी के लिए सीआईए ने सात अप्रैल 2004 को इन छद्म नामों से अमेरिकी पासपोर्ट जारी कराया था. इसमें रविंदर सिंह को राजपाल शर्मा के नाम से दिए गए अमेरिकी पासपोर्ट का नंबर 017384251 था. सीआईए की मदद से दोनों पहले नेपालगंज गए और वहां से काठमांडू पहुंचे. काठमांडू में अमेरिकी दूतावास में तैनात फर्स्ट सेक्रेटरी डेविड वास्ला ने उन्हें बाकायदा रिसीव किया. काठमांडू के त्रिभुवन हवाई अड्डे से दोनों ने ऑस्ट्रेलियन एयरलाइंस की फ्लाइट (5032) पकड़ी और वाशिंगटन पहुंचे, जहां डल्स इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर सीआईए एजेंट पैट्रिक बर्न्स ने दोनों की अगवानी की उन्हें मैरीलैंड पहुंचाया. मैरीलैंड के एकांत आवास में रहते हुए ही फर्जी नामों से उन्हें अमेरिका के नागरिक होने के दस्तावेज दिए गए, उसके बाद से वे गायब हैं. पीएमओ ने रविंदर सिंह के बारे में पता लगाने के लिए ‘रॉ’ से बार-बार कहा लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला, जबकि ‘रॉ’ प्रधानमंत्री के तहत ही आता है. इस मसले में ‘रॉ’ ने कई राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों के निर्देशों को भी ठेंगे पर रखा. रविंदर सिंह प्रकरण खुलने पर ‘रॉ’ के कई अन्य अधिकारियों की भी पोल खुल जाएगी, इस वजह से ‘रॉ’ ने इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया. 
विदेशी एजेंसियों के लिए क्रॉस एजेंसी करने और अपने देश से गद्दारी करने वाले ऐसे कई ‘रॉ’ अधिकारी हैं, जो पकड़े जाने के डर से या प्रलोभन से देश छोड़ कर भाग गए. मेजर रविंदर सिंह जैसे गद्दार अकेले नहीं हैं. ‘रॉ’ के संस्थापक रहे रामनाथ काव का खास सिकंदर लाल मलिक जब अमेरिका में तैनात था तो वहीं से लापता हो गया. सिकंदर लाल मलिक का आज तक पता नहीं चला. मलिक को ‘रॉ’ के कई खुफिया प्लान की जानकारी थी. बांग्लादेश को मुक्त कराने की रणनीति की फाइल सिकंदर लाल मलिक के पास ही थी, जिसे उसने अमेरिका को लीक कर दिया था. मलिक की उस कार्रवाई को विदेश मामलों के विशेषज्ञ एक तरह की तख्ता पलट की कोशिश बताते हैं, जिसे इंदिरा गांधी ने अपनी बुद्धिमानी और कूटनीतिक सझ-बूझ से काबू कर लिया. 
मंगोलिया के उलान बटोर और फिर इरान के खुर्रमशहर में तैनात रहे ‘रॉ’ अधिकारी अशोक साठे ने तो अपने देश के साथ निकृष्टता की इंतिहा ही कर दी. साठे ने खुर्रमशहर स्थित ‘रॉ’ के दफ्तर को ही फूंक डाला और सारे महत्वपूर्ण और संवेदनशील दस्तावेज आग के हवाले कर अमेरिका भाग गया. विदेश मंत्रालय को जानकारी है कि साठे कैलिफोर्निया में रहता है, लेकिन ‘रॉ’ उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ पाया. ‘रॉ’ के सीनियर फील्ड अफसर एमएस सहगल का नाम भी ‘रॉ’ के भगेड़ुओं में अव्वल है. लंदन में तैनाती के समय ही सहगल वहां से फरार हो गया. टोकियो में भारतीय दूतावास में तैनात ‘रॉ’ अफसर एनवाई भास्कर सीआईए के लिए क्रॉस एजेंट का काम कर रहा था. वहीं से वह फरार हो गया. काठमांडू में सीनियर फील्ड अफसर के रूप में तैनात ‘रॉ’ अधिकारी बीआर बच्चर को एक खास ऑपरेशन के सिलसिले में लंदन भेजा गया, लेकिन वह वहीं से लापता हो गया. बच्चर भी क्रॉस एजेंट का काम कर रहा था. ‘रॉ’ मुख्यालय में पाकिस्तान डेस्क पर अंडर सेक्रेटरी के रूप में तैनात मेजर आरएस सोनी भी मेजर रविंदर सिंह की तरह पहले सेना में था, बाद में ‘रॉ’ में आ गया. मेजर सोनी कनाडा भाग गया. ‘रॉ’ में व्याप्त अराजकता का हाल यह है कि मेजर सोनी की फरारी के बाद भी कई महीनों तक लगातार उसके अकाउंट में उसका वेतन जाता रहा. इस्लामाबाद, बैंगकॉक, कनाडा में ‘रॉ’ के लिए तैनात आईपीएस अधिकारी शमशेर सिंह भी भाग कर कनाडा चला गया. इसी तरह ‘रॉ’ अफसर आर वाधवा भी लंदन से फरार हो गया. केवी उन्नीकृष्णन और माधुरी गुप्ता जैसे उंगलियों पर गिने जाने वाले ‘रॉ’ अधिकारी हैं, जिन्हें क्रॉस एजेंसी या कहें दूसरे देश के लिए जासूसी करने के आरोप में गिरफ्तार किया जा सका. पाकिस्तान के भारतीय उच्चायोग में आईएफएस ग्रुप-बी अफसर के पद पर तैनात माधुरी गुप्ता पाकिस्तानी सेना के एक अधिकारी के साथ मिल कर भारत के ही खिलाफ जासूसी करती हुई पकड़ी गई थी. माधुरी गुप्ता को 23 अप्रैल 2010 को गिरफ्तार किया गया था. इसी तरह अर्सा पहले ‘रॉ’ के अफसर केवी उन्नीकृष्णन को भी गिरफ्तार किया गया था. पकड़े जाने वाले ‘रॉ’ अफसरों की तादाद कम है, जबकि दूसरे देशों की खुफिया एजेंसी की साठगांठ से देश छोड़ कर भाग जाने वाले ‘रॉ’ अफसरों की संख्या कहीं अधिक है. 
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बुधवार, 15 नवंबर 2017

जब पक्षकार और सरकार दोनों नहीं साथ, तो कैसे बनेगी श्री श्री की मध्यस्थता की बात?

अयोध्या विवाद सुलझाने के लिए मध्यस्थता के मोर्चे पर निकले आध्यात्मिक गुरु श्रीश्री रविशंकर का धर्म गुरुओं से मुलाकात और बातचीत का सिलसिला जारी है.
खास बात ये है कि रविशंकर ने अभी तक जिन मुस्लिम-हिंदू रहनुमाओं से मुलाकात की है, वो ना तो अयोध्या विवाद में पक्षकार हैं और न ही उनका अयोध्या मामले में किसी तरह का सीधा जुड़ाव है. यही नहीं केंद्र सरकार ने भी साफ कर दिया है कि रविशंकर को मध्यस्थता के लिए उसने अधिकृत नहीं किया है. ऐसे में सवाल उठ रहे हैं कि रविशंकर के साथ जब  न सरकार है और न पक्षकार, तो कैसे वो अपने इस मिशन में कामयाब हो पाएंगे.
अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट में कुल 14 अपीलकर्ता हैं. इनमें 8 अपील मुस्लिम समुदाय की ओर से हैं और 6 हिंदू समाज की ओर से. सुप्रीम कोर्ट इन्हीं की अपीलों पर सुनवाई कर रही है.
अयोध्या के राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद को बातचीत से सुलझाने की कोशिश में श्रीश्री रविशंकर लगे हुए हैं. इस कड़ी में श्रीश्री रविशंकर से पिछले महीने 6 अक्टूबर को बेंगलुरु में मुस्लिम संगठन के लोगों को बुलाकर बात की और खुद मध्यस्थता करने की भी बात कही थी. बेंगलुरू में श्रीश्री रविशंकर ने निर्मोही अखाड़ा और कुछ मुस्लिम धर्मगुरुओं से मुलाकात की थी. इनमें मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के सदस्य एजाज अरशद कासमी भी शामिल थे.
इसके बाद रविशंकर ने सोमवार को दिल्ली में हिंदू-मुस्लिम दोनों पक्षों के कई लोगों से मुलाकात की थी. इनमें हिंदू महासभा के चक्रपाणि महाराज, हजरत निजामुद्दीन दरगाह के मौलाना सैयद हम्माद निजामी, अजमेर शरीफ दरगाह के सैयद फकहर काजमी  चिश्ती, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के कमाल फारुखी, सहारनपुर के मौलाना महताब आलम और बाबर के वंशज प्रिंस याकूब शामिल हैं.
श्रीश्री रविशंकर 16 नवंबर को अयोध्या भी जा रहे हैं. रविशंकर दिगंबर अखाड़ा, निर्मोही अखाड़ा, राष्ट्रीय मुस्लिम मंच, शिव सेना, हिंदू महासभा के अलावा विनय कटियार से मुलाकात करेंगे.
अयोध्या मामले से सीधा नाता नहीं हैं इन धर्मगुरुओं का
अयोध्या मामले में अपीलकर्ता मौलाना महफुजुर्ह रहमान के नामित खालिक अहमद खान ने कहा कि रविशंकर ने अभी तक  जिन मुस्लिम रहनुमाओं से मुलाकात की है. इनमें से एक भी अयोध्या मामले में जुड़ा हुआ नहीं है. रविशंकर हवा में तीर चला रहे हैं. इससे पहले भी वो अयोध्या मामले में मध्यस्थता करने चले थे, लेकिन कुछ दिन के बाद शांत बैठ गए. खालिक ने कहा कि अयोध्या विवाद का कोर्ट से ही फैसला हो सकता है. बातचीत से निकलना होता तो निकल गया होता.
मोदी सरकार ने श्रीश्री से बनाई दूरी
श्रीश्री रविशंकर के राम मंदिर विवाद को बातचीत से सुलझाने के मामले में केंद्र सरकार ने दूरी बना ली है. केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी का कहना है कि विवाद को लेकर श्री श्री रविशंकर जो मध्यस्थता कर रहे हैं, उसमें केंद्र सरकार की कोई भूमिका नहीं है. उनका कहना है कि अगर ये मामला बातचीत से सुलझता है तो अच्छी बात है.
योगी ने श्रीश्री की बातों से किया किनारा
श्रीश्री रविशंकर बाबरी मस्जिद-राममंदिर विवाद को कोर्ट से बाहर सुलह-समझौता कराने के लिए लखनऊ पहुंचे. उन्होंने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मुलाकात की. योगी आदित्यनाथ ने श्रीश्री रविशंकर के मध्यस्थता करने पर कहा कि सरकार इसमें कहीं नहीं है. अयोध्या विवाद का संवाद से अगर कोई रास्ता निकलता है तो हम इसका स्वागत करेंगे, लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार इस पहल में कहीं नहीं है.
श्री श्री रविशंकर की फिलहाल जिन लोगों से बातचीत हो रही है वह अदालत में चल रहे मुकदमे में मुख्य पार्टी नहीं हैं. मामले का कोई ठोस हल निकलने के लिए यह जरूरी है कि निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड सहित सभी अपीलकर्ताओं से श्रीश्री रविशंकर मुलाकात करें और बातचीत का ठोस मसौदा बनाएं। 

यदि आप विनोबा भावे को ठीक से जानना चाहते हैं, तो आपको पढ़ना होगा ये लेख

विनोबा भावे का यह आत्मकथ्य बताता है कि आखिर वह क्या ताकत थी जिसके बूते वे गांधीजी के बाद भारतीय जनमानस को सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाली शख्सियत के रूप में उभरे


मैं एक अलग ही दुनिया का आदमी हूं. मेरी दुनिया निराली है. मेरा दावा है कि मेरे पास प्रेम है. उस प्रेम का अनुभव मैं सतत ले रहा हूं. मेरे पास मत नहीं हैं, मेरे पास विचार हैं. विचारों का लेन-देन होता है. विचार मुक्त होते हैं. उन्हें चहारदीवारी नहीं होती, वे बंधे हुए नहीं होते. सज्जनों के साथ विचार-विमर्श कर उनके विचार ले सकते हैं और अपने विचार उन्हें दे सकते हैं. हम खुद अपने विचार बदल सकते हैं. इस तरह विचारों का विकास होता रहता है. इसका अनुभव मुझे निरंतर आता है. इसलिए मैं कोई वादी नहीं हूं. कोई भी मुझे अपना विचार जंचा दे और कोई भी मेरा विचार जंचा ले.
प्रेम और विचार में जो शक्ति है, वह और किसी में नहीं है. किसी संस्था में नहीं, सरकार में नहीं, किसी प्रकार के वाद में नहीं, शास्त्र में नहीं, शस्त्र में नहीं. मेरा मानना है कि शक्ति प्रेम और विचार में ही है. इसलिए पक्के मतों की अपेक्षा मुझसे न करें. विचारों की अपेक्षा रखें. मैं प्रतिक्षण बदलने वाला व्यक्ति हूं. कोई भी मुझपर आक्रमण कर अपना विचार समझाकर मुझे अपना गुलाम बना सकता है. विचार को समझाए बिना ही कोई कोशिश करेगा तो लाख कोशिश करने पर भी किसी की सत्ता मुझ पर चलेगी नहीं.
मैं केवल व्यक्ति हूं. मेरे माथे पर किसी प्रकार का लेबल लगा हुआ नहीं है. मैं किसी संस्था का सदस्य नहीं हूं. राजनैतिक पक्षों का मुझे स्पर्श नहीं है. रचनात्मक संस्थाओं के साथ मेरा प्रेम-संबंध है. मैं ब्राह्मण के नाते जन्मा और शिखा काटकर ब्राह्मण की जड़ ही काट डाली. कोई मुझे हिंदू कहते हैं. पर मैंने सात-सात बार कुरान-बाइबिल का पारायण किया है. यानी मेरा हिंदुत्व धुल ही गया. मेरी बातें लोगों को अच्छी लगती हैं, क्योंकि मेरे कार्य की जड़ में करुणा है, प्रेम है और विचार है. विचार के अलावा और अन्य किसी शक्ति का इस्तेमाल न करने की मेरी प्रतिज्ञा है. मेरे पास मत नाम की चीज नहीं है, विचार है. मैं इतना बेभरोसे का आदमी हूं कि आज मैं एक मत व्यक्त करूंगा और कल मुझे दूसरा मत उचित लगा तो उसे व्यक्त करने में हिचकिचाऊंगा नहीं. कल का मैं दूसरा था, आज का दूसरा हूं. मैं प्रतिक्षण भिन्न चिंतन करता हूं. मैं सतत बदलता ही आया हूं.
मेरे विषय में एक स्पष्टता मुझे कर देनी चाहिए. कुछ लोग मुझे गांधीजी के विचार का प्रतिनिधि मानने लगे हैं. लेकिन इससे अधिक गलती कोई नहीं होगी. गांधीजी के बताए हुए काम, जो-जो मुझे ठीक लगे, करने में मेरा अभी तक का सारा जीवन गया, यह बात सही है. लेकिन ‘जो-जो मुझे ठीक लगे’ इतना यद्-वाक्य हमेशा उसमें रहा. उनकी संगति से और विचारों से मैंने भर-भरकर पाया, लेकिन दूसरों के विचारों में से भी पाया और जहां-जहां से जो भी विचार मुझे जंचे हैं, मैंने ले लिए हैं. और जो नहीं जंचे, मैंने छोड़ दिये हैं. इसलिए मैं एक अपने विचार का प्राणी बन गया हूं. गांधीजी इस चीज को जानते थे. फिर भी उन्होंने मुझे अपने साथियों में से मान लिया था क्योंकि वे स्वतंत्रता-प्रेमी थे, मुक्तिवादी थे. इसलिए गांधीजी के विचारों का प्रतिनिधित्व करने की मैं इच्छा रखूं, तो भी अधिकारी नहीं हूं. वैसी इच्छा भी मैं नहीं करता.
देश में अनेक विचार-प्रवाह काम कर रहे हैं और चूंकि मैं जनता के सीधे संपर्क में रहता हूं, मुझे उनका बारीकी से निरीक्षण करने का मौका मिलता रहता है. इसका परिणाम, जहां तक मेरा ताल्लुक है, यह हो रहा है कि मैं बहुत अधिक तटस्थ बन रहा हूं और मुझे समन्वय का सतत भान रहता है. मेरा किसी से वाद नहीं. किसी का नाहक विरोध करूं, यह मेरे खून में नहीं है. उल्टे मेरी स्थिति वैसी ही है, जैसे तुकाराम ने कहा है - ‘विरोध का मुझे सहन नहीं होता है वचन’.
मैं ‘सुप्रीम सिमेंटिंग फैक्टर’ हूं, क्योंकि मैं किसी के पक्ष में नहीं हूं. परंतु यह तो मेरा निगेटिव वर्णन हो गया. मेरा ‘पॉजिटिव’ वर्णन यह है कि सब पक्षों में जो सज्जन हैं, उन पर मेरा प्रेम है. इसलिए मैं अपने को ‘सुप्रीम सिमेंटिंग फैक्टर’ मानता हूं. यह मेरा व्यक्तिगत वर्णन नहीं है. जो शख्स ऐसा काम उठाता है, जिससे कि हृदय-परिवर्तन की प्रक्रिया से क्रांति होगी, वह एक देश के लिए नहीं, बल्कि सब देशों के लिए ‘सिमेंटिंग फैक्टर’ होगा. मैंने लुई पाश्चर की एक तस्वीर देखी थी. उसके नीचे एक वाक्य लिखा था- ‘मैं यह नहीं जानना चाहता कि तुम्हारा धर्म क्या है. तुम्हारे खयालात क्या हैं, यह भी नहीं जानना चाहता. सिर्फ यही जानना चाहता हूं कि तुम्हारे दुख क्या हैं. उन्हें दूर करने में मदद करना चाहता हूं.’ ऐसा करनेवाले इनसान का फर्ज अदा करते हैं. मेरी वैसी ही कोशिश है.
मेरी यही भावना रहती है कि सब मेरे हैं और मैं सबका हूं. मेरे दिल में ऐसी बात नहीं कि फलाने पर ज्यादा प्यार करूं और फलाने पर कम. मुहम्मद पैगंबर के जीवन में एक बात आती है. अबुबकर के बारे में मुहम्मद साहब कहते हैं, ‘मैं उस पर सबसे ज्यादा प्यार कर सकता हूं, अगर एक शख्स पर दूसरे शख्स से ज्यादा प्यार करना मना न हो’. यानी खुदा की तरफ से इसकी मनाही है कि एक शख्स पर दूसरे शख्स से ज्यादा प्यार करें. इस तरह की मनाही नहीं होती तो अबुबकर पर ज्यादा प्यार करते. यही मेरे दिल की बात है. यानी प्यार करने में मैं फर्क नहीं कर सकता.
मेरे जीवन में मुझे मित्रभाव का दर्शन होता है. और वह मुझे खींचता है. मां के लिए मुझे आदर है. पितृभाव के लिए भी आदर है. गुरु के लिए तो अत्यंत आदर है. इतना होते हुए भी मैं सबका मित्र ही हो सकता हूं और सब मेरे मित्र. मित्र के नाते ही मैं बोलता हूं. और जब प्रहार करता हूं, तो वह भी इसी नाते करता हूं. फिर भी मेरे अंदर इतनी मृदुता है कि मानो कुल दुनिया की मृदुता उसमें आ गई.
वैसे ही मैं गुरुत्व का स्वीकार नहीं कर सकता. ‘एक-दूसरे की सहायता करें, सब मिलकर सुपंथ पर चलें’ - यह मेरी वृत्ति है. इसलिए गुरुत्व की कल्पना मुझे जंचती नहीं. मैं गुरु के महत्व को मानता हूं. गुरु ऐसे हो सकते हैं कि जो केवल स्पर्श से, दर्शन से, वाणीमात्र से, बल्कि केवल संकल्पमात्र से भी शिष्य का उद्धार कर सकते हैं. ऐसे पूर्णात्मा गुरु हो सकते हैं. फिर भी यह मैं कल्पना में ही मानता हूं. वस्तुस्थिति में ऐसे किसी गुरु को मैं नहीं जानता. ‘गुरु’ इन दो अक्षरों के प्रति मुझे अत्यंत आदर है. लेकिन वे दो अक्षर ही हैं. ये दो अक्षर मैं किसी भी व्यक्ति पर लागू नहीं कर सका. और कोई उन्हें मुझ पर लागू करे, तो वह मुझे सहन ही नहीं होता.
एक बार हंगरी से आए एक भाई ने मुझे पूछा कि आपका काम आगे कौन चलाएगा? आपका कोई शिष्य हो तो वह चला सकता है. मैंने कहा कि मेरा काम आगे वही चलाएगा, जिसने मुझे प्रेरणा दी. मैं काम करनेवाला हूं, ऐसी भावना मेरी नहीं है. मेरी न कोई संस्था है, न मेरा हुक्म माननेवाला कोई है, जिस पर मैं डिसिप्लिनरी एक्शन ले सकता हूं. ऐसी हालत में जिस ताकत ने मुझे प्रेरणा दी है, वही ताकत आगे काम करेगी. इसलिए मेरा कोई शिष्य बनेगा, ऐसा मैं नहीं मानता. फिर मैंने कहा मेरे पीछे सब महापुरुषों के आशीर्वाद हैं. वे मेरे पीछे हैं, आगे हैं, अंदर हैं, बाहर हैं, ऊपर हैं, नीचे हैं. जैसे सूर्य की किरणें मैं स्पष्ट देखता हूं, वैसे ही सर्वत्र ये आशीर्वाद देखता हूं.
ज्ञान की एक चिंगारी की दाहक शक्ति के सामने विश्व की सभी अड़चनें भस्मसात् होनी ही चाहिए, इस विश्वास के आधार पर निरंतर ज्ञानोपासना करने में और दृढ़ ज्ञान का प्रसार करने में मेरा आजतक का जीवन खर्च हो रहा है. यदि दो-चार जीवनों को भी उसका स्पर्श हो जाए, तो मेरा ध्येय साकार हो सकेगा.
मैं जो भी कदम उठाता हूं, उसकी गहराई में जाकर जड़ पकड़े बगैर नहीं रहता. मैंने अपनी जिंदगी के तीस साल एकांत चिंतन में बिताए हैं. उसी में जो सेवा बन सकी वह मैं निरंतर करता रहा. लेकिन मेरा जीवन निरंतर चिंतनशील रहा, यद्यपि मैं उसे सेवामय बनाना चाहता था. समाज में जो परिवर्तन लाना चाहिए, उसकी जड़ के शोधन के लिए वह चिंतन था. बुनियादी विचारों में मैं अब निश्चिंत हूं. कोई समस्या मुझे डराती नहीं. कोई भी समस्या, चाहे जितनी भी बड़ी हो, मेरे सामने छोटी बनकर आती है. मैं उससे बड़ा बन जाता हूं. समस्या कितनी भी बड़ी हो, लेकिन वह मानवीय है, तो मानवीय बुद्धि से हल हो सकती है. इसलिए मेरी श्रद्धा डांवाडोल नहीं होती. वह दीवार के समान खड़ी रहती है, या गिर जाती है.
मेरे पास अनेक श्रेष्ठ विचार हैं, लेकिन उनमें सबसे श्रेष्ठ विचार यही है कि मेरे विचार का किसी पर आक्रमण न हो. मेरा विचार किसी को अगर जंचता है, तो मुझे खुशी होती है. मेरा विचार किसी को नहीं जंचता है और वह उस पर अमल नहीं करता है, तो भी मुझे खुशी होती है. मेरा विचार किसी को न जंचे और किसी दबाव वगैरह से मान ले, तो मुझे बड़ा दुख होता है. लेकिन विचार पसंद होने के बावजूद यदि कोई उसे अमल में नहीं लाता तो मैं आशा रखता हूं कि आज नहीं तो कल अवश्य लाएगा. और मैं स्वयं किसी की सत्ता नहीं मानता, इसलिए किसी पर सत्ता चलाना भी नहीं चाहता, सत्ता का तो मैं दुश्मन ही हूं. सेवा को काटनेवाली यह चीज है.
मुझ पर परमेश्वर की एक बड़ी कृपा है कि गलतफहमियों के कारण लोगों की ओर से मुझ पर लगाए हुए आक्षेपों आदि का कोई असर मेरे चित्त पर नहीं होता. मैं पुण्य का अभिलाषी नहीं हूं, सेवा का अभिलाषी हूं. मैं केवल सेवा उत्सुक हूं. और मेरी इच्छा यह है कि वह सेवा भी मेरे झोले में जमा न हो. क्योंकि मैं जो सेवा कर रहा हूं, वह सहजप्राप्त है और आज के जमाने और परिस्थिति के लिए जरूरी है. यानी वह जमाने की मांग है. इसका मतलब यह होगा कि जो भी सेवा मैंने की, वह जमाने ने ही करवा ली. तब उस सेवा का श्रेय मुझे कैसे मिलेगा? मैंने जो सेवा उठायी है, वह प्रवाह के विरुद्ध होती और थोड़ी सी भी होती तो भी उसका श्रेय मुझे मिलता. लेकिन वह सेवा प्रवाह को पकड़कर चल रही है और जमाने की मांग के कारण हो रही है, इसलिए वह मेरे नाम पर जमा नहीं होगी. इसका पक्का बंदोबस्त मैंने कर रखा है. यद्यपि मैं सेवा की इच्छा रखता हूं, लेकिन उसका श्रेय मेरे पल्ले न पड़े इसका मेरा प्रयत्न रहता है.
मैं कभी-कभी विनोद में कहता हूं कि मुझे अपना चेहरा शीशे में देखने का खास मौका कभी मिलता नहीं. उसकी जरूरत भी नहीं. मेरी तो यही भावना है कि ये जो विविध चेहरे मैं देखता हूं, उन सबमें विविधता से सजे-धजे मुझे ही मैं देख रहा हूं. मेरी यात्रा में मैंने सतत यह अनुभव लिया है. जिस प्रदेश में मेरी भाषा लोग समझते नहीं थे, और उन्हें मेरे भाषणों का टूटा-फूटा अनुवाद सुनना पड़ता था, उन सभी प्रदेशों में भी आत्मदर्शन का ही अनुभव मुझे आया और इसका प्रमाण यह है कि लोगों का भी यही अनुभव था. मैं जहां-जहां गया, वहां के लोगों ने यह कभी नहीं माना कि मैं दूसरे प्रदेश से आया हूं. उलटे, अनुभव यह रहा कि महाराष्ट्र के लोग मुझे जितनी आत्मीयता से चाहते हैं, उतनी ही आत्मीयता से सभी प्रांतों के लोग चाहते हैं.
हर प्रांत में, जहां मेरा प्रथम ही प्रवेश हुआ, मुझे एक अप्रत्यक्ष ढंग से ही काम करना पड़ा. और वह लाभदायी साबित हुआ. उस प्रांत का नया-नया परिचय मुझे मिलता रहा. असम जाने से पहले असम का अध्ययन करने के लिए कितनी ही पुस्तकें मैंने पढ़ी थी. लेकिन वहां जाने पर नया ही दर्शन मुझे हुआ. ऐसे ही कश्मीर में हुआ. तमिलनाडु, केरल, बिहार, पंजाब आदि प्रदेशों में पदयात्रा से पहले भी जाना हुआ था. लेकिन खास कर कश्मीर और असम, दोनों का बिल्कुल ही नया दर्शन हुआ. मैं प्रवेश बहुत सावधानी से करता हूं. सावधानी से बोलता हूं. उस प्रदेश के बारे में कम बोलता हूं, सुनता और देखता ज्यादा हूं.

मंगलवार, 14 नवंबर 2017

राज्यपाल रामनाईक से मिला "इण्डियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट" का प्रतिनिधि मण्डल

 
लखनऊः 14 नवम्बर, 2017। उत्तर प्रदेश के राज्यपाल श्री राम नाईक से आज इण्डियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट का एक प्रतिनिधि मण्डल राजभवन में मिला। प्रतिनिधि मण्डल ने पत्रकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए संसद द्वारा कानून बनाये जाने की अपनी प्रमुख मांग सहित अन्य मांगों से संबंधित राष्ट्रपति को सम्बोधित ज्ञापन राज्यपाल को दिया। 12 सदस्यीय प्रतिनिधि मण्डल का नेतृत्व वरिष्ठ पत्रकार तथा इण्डियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री के0 विक्रम राव ने किया। राज्यपाल ने ज्ञापन की सभी मांगों को गंभीरतापूर्वक सुना और सकारात्मक कार्यवाही व मदद का आश्वासन दिया।
अपने सम्बोधन में राज्यपाल श्री राम नाईक ने पत्रकारों की सुरक्षा और अन्य राज्यों में प्रदत्त सहूलियतों की जानकारी मांगी तथा पत्रकारों की मांग के संबंध में नियमानुसार आवश्यक कार्यवाही करने की बात कही। राज्यपाल ने सुझाव दिया कि अलग से एक ज्ञापन में इस बात का भी स्पष्ट उल्लेख करें कि राज्य सरकार के स्तर पर उनकी क्या मांगें है। उस मांग पत्र पर विचारोपरान्त वे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से चर्चा भी करेंगे।    
इण्डियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट के अध्यक्ष श्री विक्रम राव ने ज्ञापन के माध्यम से अनुरोध किया कि पत्रकारों की सुरक्षा के लिए एक केन्द्रीय कानून बनाया जाए जिससे पत्रकार निर्भय और निष्पक्षतापूर्वक अपना कार्य कर सके। वरिष्ठ पत्रकार योगेश मिश्रा ने अनुरोध किया की उत्तर प्रदेश सरकार को राज्य में भारतीय दंड संहिता के अनुच्छेद 7 में बदलाव कर पत्रकारों पर हमले को संज्ञेय अपराध की श्रेणी में लाना चाहिये। उत्तर प्रदेश मान्यता प्राप्त पत्रकार समिति के अध्यक्ष प्रांशु मिश्रा ने राज्यपाल को शाहजहाँपुर के पत्रकार जागेन्द्र सिंह के बारे में बताया, जिसकी पैरवी कोर्ट में इण्डियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट के विधि सलाहकार मुदित माथुर ने की थी। 
पत्रकार श्री शिवशंकर गोस्वामी ने उल्लेख किया की कई देशों में पत्रकार सुरक्षा कानून लागू है जिसके अंतर्गत पत्रकारों को कई सहूलियतें प्रदान की जाती है। पत्रकार शिव शरण सिंह ने कहा कि प्रदेश और राष्ट्र में इस कानून को लागू करवाने की सार्थक पहल करने में इण्डियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट की मदद की जाये। प्रतिनिधि मण्डल की मांगो में पत्रकारों को पेंशन और जीवन बीमा दिये जाने की भी मांग शामिल है। 
प्रतिनिधि मण्डल में श्री हसीब सिद्दीकी, वरिष्ठ पत्रकार श्री योगेश मिश्रा, श्री विनय रस्तोगी, श्री शिवशरण सिंह, श्री शिव शंकर गोस्वामी, उत्तर प्रदेश मान्यता प्राप्त पत्रकार समिति के अध्यक्ष श्री प्रांशु मिश्रा, इण्डियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट के विधि सलाहकार श्री मुदित माथुर, सचिव (उत्तर) श्री संतोष चतुर्वेदी, पत्रकार अजय श्रीवास्तव, श्री रजत मिश्र और श्री सुशील अवस्थी भी शामिल रहे।

शनिवार, 11 नवंबर 2017

गुजरात चुनाव: मोदी और उनका मॉडल खतरे में


   
   गुजरात चुनाव बीजेपी के लिये प्रतिष्ठा का सवाल बन गया है । यहाँ सोशल मीडिया पे चल रहे ट्रेन्ड को माने तो बीजेपी काफी पिछड़ रही है । केन्द्र के सारे मन्त्री और बीजेपी शासित राज्यों के मुख्यमंत्री रोज गुजरात दर्शन कर रहे है । सोचने वाली बात ये है कि जिस गुजरात मॉडल पे बादशाह सलामत मुल्क का चुनाव लड़े और जीते आज उस गुजरात मॉडल को समझाने के लिये केन्द्र के मन्त्री और राज्यों के मुख्यमंत्री जा रहे है 
   लेकिन गुजरात की जनता जिस तरह से कांग्रेस के युवराज के प्रति आकर्षित हो रही है वो बौखलाहट बीजेपी के नेताओं के ब्यानों में साफ़ नज़र आ रहा है ।
मैंने पहले भी लिखा है और आज भी लिख रहा हूँ जितना ही राहुल गाँधी का बीजेपी विरोध करेगी राहुल गाँधी की छवि में उतना ही निखार आयेगा । 2014 का चुनाव बीजेपी इस वजह से जीती कि बाबा रामदेव से लेकर अन्ना हजारे अडानी अम्बानी सब लोग एड़ी चोटी का जोर लगा दिये । कांग्रेस को बदनाम करने में बीजेपी के कद्दावर नेता रोज इस्तीफा माँगने के लिये पत्रकार वार्ता आयोजन करते । 
   डीजल पेट्रोल गैस सिलेन्डर की महंगाई और बेरोजगारी पे जो बवाल बीजेपी के नेताओं ने काटा । बीजेपी की रणनीति का 2014 में मुकाबला न कर पाना कांग्रेस की हार का कारण बना । गठबंधन की सियासत में मनमोहन सिंह की साफ़ छवि के बावजूद कांग्रेस हार गयी ।
   आज ठीक उल्टा हो रहा है कल तक बादशाह सलामत कांग्रेस की नाकामियों को गिना गिनाकर खूब तालियाँ बटोर रहे थे अब वह भीड़ ऊब गयी है । अब तो यशवन्त सिन्हा शत्रुधन सिन्हा कृति आजाद खुलकर अपनी ही सरकार पर हमला बोल रहे है । कल तक जो लोग डर कर सरकार के खिलाफ कुछ नही बोलते थे अब वो सरकार के खिलाफ बोल रहे है और लिख भी रहे है । आम जनमानस नोट बन्दी की मार से उबर भी नही पायी कि जीएसटी के झमेले ने जीना दुशवार कर दिया । अब आम आदमी भी पूछ रहा है जो आज मन्त्री है 2014 में कांग्रेस के महंगाई के खिलाफ हल्ला बोल रहे थे आज वो क्यों खामोश है ।
   बादशाह सलामत के मन की बात और भाषणों में इतना कुछ बोल दिया है कि अब लोग उन्हें सुनना नही चाहते । ऊपर से गुजरात के लोग जो कारोबारी है उनको डूबते  को तिनके का सहारा अब राहुल गाँधी नजर आ रहे है । गुजरात के लोग राहुल गाँधी से बोलते है कि अगर आप इस बार बीजेपी को हरा नही पाये तो ये हम जनता की हार नही आपके रणनीति की हार होगी । देश बदलाव के दौर से गुजर रहा है । गुजरात चुनाव भले ही कोई जीते हारे लेकिन कल तक का पप्पू अब पापा बनता दिखाई दे रहा है । जीएसटी का फेरबदल कारोबारी राहुल गाँधी का दबाव मान रहे है । उधर आज राहुल गाँधी का ये कहना कि हम गब्बर सिंह टैक्स का विरोध करते रहेंगे जब तक सारा टैक्स आम जनता के मुताबिक नही हो जायेगा । 
   रोज रोज कोई न कोई नया खुलासा भी भाजपा के लिये सरदर्द बनता जा रहा है जय शाह शौर्य डोभाल विजय रूपानी अभी दर्द दे ही रहे थे तब तक पैराडाइज पेपर में जयन्त सिन्हा आर के सिन्हा भी लपेटे में आ गये । बीजेपी कल तक जिस करप्शन के मुद्दे पे कांग्रेस को घेर रही थी आज सारे करप्शन में लिप्त नेताओं को पार्टी में शामिल करवा रही है । 
   अख़बार के प्रकाशकों का उत्पीड़न भी आग में घी डालने का काम कर रहा है । सीनियर पत्रकारों के जरिये महंगाई बेरोजगारी का मुद्दा फेसबुक और ट्वीटर पे ट्रेन्ड कर रहा है । अब जितनी चर्चा पीएम के भाषणों की नही होती उससे ज्यादा चर्चा राहुल एक ट्वीट करके पा जाते है । सरकार अगर अपने रवैये में सुधार नही लायी तो कांग्रेस भले ही न गुजरात जीते लेकिन बीजेपी को छठी का दूध याद दिलाने में कामयाब हो रही है । राहुल गाँधी का विरोध कर करके बीजेपी राहुल गाँधी को जनता का हीरो बनाने में कोई कसर नही छोड़ रही है राहुल गाँधी 2019 में आवाम का प्यार और सहानभूति पाकर कही प्रधानमंत्री बन जाये तो कोई अतिशयोक्ति नही होगी ।

गुरुवार, 9 नवंबर 2017

"पद्मावती" को रिलीज़ तो होने दो


अगर भावनाएं आहत होने का दौर हमारे यहां ऐसे ही चलता रहा तो फिर सिनेमा अपनी चमक खो देगा. "द टाइम्स ऑफ इंडिया" की संपादकीय टिप्पणी

    संजय लीला भंसाली के निर्देशन में बनी ‘पद्मावती’ एक दिसंबर को रिलीज होनी है. लेकिन कई राज्यों में वितरक इसे लेकर हिचक रहे हैं. इनका कहना है कि फिल्म की रिलीज इससे जुड़े ‘विवाद’ का निपटारा होने के बाद हो. इसी वजह से भंसाली को एक वीडियो जारी करना पड़ा जिसमें उन्होंने सफाई दी है कि वे रानी पद्मावती की कहानी से हमेशा प्रभावित रहे हैं और यह फ़िल्म उनकी वीरता और बलिदान को नमन करती है.
पद्मावती के निर्माता-निर्देशक ने वीडियो में यह भी स्पष्ट करने की कोशिश की है कि फिल्म में रानी पद्मावती और अलाउद्दीन खिलजी के बीच ऐसा कोई दृश्य नहीं है जिससे किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचे. सिर्फ 20 दिन बाद ही यह फिल्म रिलीज होनी है और जाहिर है कि यह समय फिल्मकार के लिए बेहद कीमती है. इसमें म्यूजिक लॉन्च होना है, एक्टरों के पब्लिसिटी टूर होने हैं, फाइनल एडिटिंग भी इसी बीच होगी और फिल्म के लिए केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सीबीएफसी) का सर्टिफिकेट भी लिया जाना है. लेकिन यह उदाहरण बताता है कि भारत में कारोबार करना, खासकर जब वो किसी कला से जुड़ा हो, बहुत मुश्किल है.
   हमारे यहां सरकारें या राजनीतिक पार्टियां अपने-अपने वोटबैंक के लिए फिल्मों को फुटबाल बना लेती हैं और फिर सुविधा के मुताबिक इस गोल पोस्ट से उस गोल पोस्ट तक उछालती रहती हैं. ऐसा कतई नहीं होना चाहिए. अगर भावनाएं आहत होने का दौर हमारे यहां ऐसे ही चलता रहा तो फिर सिनेमा अपनी चमक खो देगा और आखिरकार भारत की ‘सॉफ्ट पावर’ बेअसर होने लगेगी.
   पद्मावती को लेकर एक संगठन ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई है कि रिलीज से पहले इसे वरिष्ठ इतिहासकारों को दिखाया जाए और फिर वे तय करें कि इसमें इतिहास का सही चित्रण है या नहीं. लेकिन यहां यह समझने की जरूरत है कि इतिहास का रूपांतरण करना सिनेमा का अधिकार है. हर फिल्म डॉक्यूमेंटरी नहीं हो सकती. दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित फिल्मकारों में शुमार अकीरा कुरोसावा और ओलिवर स्टोन भी इतिहास के अलग-अलग संस्करणों को सामने लाने के हिमायती रहे हैं.
   यहां इस बात का जिक्र करना भी जरूरी है कि कई प्रतिष्ठित इतिहासकारों के मुताबिक रानी पद्मावती का किरदार सन 1550 में एक सूफी कवि ने ईजाद किया था और इसका असल इतिहास से कोई ताल्लुक नहीं है. कुल मिलाकर अदालत को इस फिल्म का मामला सेंसर बोर्ड और आखिर में दर्शकों पर ही छोड़ना चाहिए. 

बुधवार, 8 नवंबर 2017

सैय्यद अहमद और टीपू: एक विश्लेषण


   
   
गत दिनों में दो मीडिया रपट से प्रत्येक राष्ट्रवादी तथा उदारमना भारतीय को जुगुप्सा और आक्रोश होना चाहिए। एक खबर में अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी के समारोह में पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने इसके संस्थापक सर सय्यद अहमद खान को “भारतीय राष्ट्रीयता का उत्कृष्ट उदाहरण और स्वप्नदर्शी पुरोधा” बताया। इस वक्तव्य पर घिन आती है। दूसरी ओर अद्वितीय देशभक्त सम्राट टीपू सुल्तान को कुछ भाजपायीजन विप्रमर्दक और धर्मशत्रु मानते हैं। ये तंगदिल सनातनीजन बर्तानवी उपनिवेशवाद के विरूद्ध इस प्रथम स्वाधीनता सेनानी को कट्टर सुन्नी करार देते हैं। ऐसे दृष्टिकोण पर गुस्सा आना चाहिए। इन दोनों अवधारणाओं के संदर्भ में प्रमाणित ऐतिहासिक और अर्वाचीन तथ्य पेश हों तो अकाट्य तौर पर सत्य उजागर हो जायेगा।
   सैय्यद अहमद खान (17 अक्टूबर 1817 से 27 मार्च 1898) एक सामन्ती कुटुम्ब में जन्मे थे। उन्होंने उन्तालिस साल की भरी जवानी में फिरंगियों का सक्रिय साथ दिया था। तब (मई 1857 में) समूचा भारत अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कम्पनी से जंग कर रहा था। इन विलायती फौजियों के हमदर्द और सहकर्मी सैय्यद अहमद बने और भारतीय सम्राट बहादुर शाह जफर को उखाड फेंकने में उन्होंने गोरों की मदद की। तब प्रथम भारतीय स्वाधीनता संग्राम हो रहा था। युवा अहमद हिन्दुस्तानियों को गुलाम बनानेवालों की तरफ थे। उन्हें मलका विकटोरिया ने “सर” की उपाधि से नवाजा। उनकी खिदमतों की श्लाघा की। तुलना कीजिए मुस्लिम युनिवर्सिटी के इस संस्थापक की पड़ोसी (सहारनपुर में) स्थापित देवबंद के दारूल उलूम के शेखुल हिन्द महमूद अल हसन से जिन्हें साम्राज्यवादियों ने सुदूर माल्टा द्वीप की जेल में कैद रखा। वहां मौलाना महमूद ने नेक अकीदतमन्द होने के नाते रमजान के रोजे रखे। ब्रिटिश गुलामी को मौलाना ने ठुकराया था। रिहाई पर भारत लौटे तो दारूल उलूम बनाया। अंगे्रजी राज उखाड़ने के लिए मुजाहिद तैयार किये। सैय्यद अहमद और महमूदुल हसन में भारतभक्त कौन कहलायेगा ?
   सर सैय्यद अहमद खान के मानसपुत्र थे मोहम्मद अली जिन्ना। फिरंगियों की झण्डाबरदारी में भर्ती होने के अर्धसदी पूर्व ही सैय्यद अहमद घोषणा कर चुके थे कि मुसलमान और हिन्दू दो कौमें है। हिन्दू-मुस्लिम अलगावाद के मसीहा थे सैय्यद अहमद। उनकी नजर में पर्दा और बुर्का अनिवार्य था। उन्होंने बाईबिल पर टीका लिखी। अपनी किताब “तबियत-उल-कलम” लिखने में उनका मकसद था कि मसीही और मुसलमानों का भारतीयों के विरूद्ध महागठबंधन बने। सत्ता ईसाईयों की, उपयोग उसका इस्लामियों के लिए और दमन हिन्दुओं का। उनका प्रचार था कि सात सदियों के राज के बाद भी मुसलमानों को 1857 में खोई हुकूमत में फिर कुछ हिस्सा मिले। इससे अंगे्रजी शासकों को दृष्टि और नीति बदली। मुगल सलतनत के समय विलायती कम्पनी से भिड़ने के बावजूद ब्रितानी गवर्नर जनरलों ने मुसलमानों पर रहमोकरम और दरियादिली दर्शानी प्रारंभ का दी। परिणाम भारत के विभाजन में आया। इस ओर ठोस प्रक्रिया में सैय्यद अहमद ने मदरसातुल उलूम 1875 में स्थापना कर दी जो बाद में अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी के रूप में उभरी। इसे सर आगा खान ने पाकिस्तान के लिए “आयुधशाला” बताया था।
   सैय्यद अहमद द्वारा शहर अलीगढ़ को मोहम्मडन-एंग्लो-ओरियन्टल“ मदरसा हेतु चुनने का ऐतिहासिक आधार था। अलीगढ़ का प्राचीन नाम कोल था। यह आज जनपद की एक तहसील मात्र है। जब दिल्ली में सर्वप्रथम इस्लामी सल्तनत (1210) कायम हुई थी तो पृथ्वीराज चैहान को हराकर मुहम्मद गोरी ने अपने तुर्की गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक को दिल्ली का साम्राज्य दे दिया। इस गुलाम सुल्तान के वंशज हिसामुद्दीन ऐबक ने सवा सौ किलोमीटर दूर कोल (अब अलीगढ़) पर कब्जा किया। उसने वहां की जनता को दो प्रस्ताव दिये। कलमा मानो अथवा शमशीरे इस्लाम से सर कलम कराओ। हिन्दू आतंकित होकर मुसलमान बन गये। रातों रात अकिलयत फिर अक्सरियत हो गई। तो इसी शहर अलीगढ़ में सैय्यद अहमद ने पृथक इस्लामी राष्ट्र के बीज बोये। कभी यही पर हरिदास का मन्दिर था। धरणीधर सरोवर था। मुनि विश्वामित्र की तपोभूमि थी। 
गत सप्ताह पाकिस्तान ने सैय्यद अहमद की जयंती की दूसरी सदी पर डाक टिकट जारी किया। स्कूली पुस्तकों में उन पर पाठ शामिल किये। कई इमारतों के नाम भी उन पर हैं। मगर बादशाह अकबर के नाम पर पाकिस्तान में न एक सड़क, न एक गली, न एक पार्क है। अलबत्ता औरंगजेब के नाम पर कई स्मारक हैं। सैय्यद अहमद की भांति। 
   अब एक भिन्न इस्लामी शासक की (10 नवम्बर) जयंती मनाने पर कर्नाटक में चल रहे भाजपायी घमासान की चर्चा हो। गिरीश कर्नाड ने बढ़िया कहा कि यदि टीपू हिन्दू होता तो छत्रपति शिवाजी के सदृश आराध्य होता। चार पीठों में से एक श्रृंगेरी धाम के शंकराचार्य सच्चिदानन्द भारती (1753), के सेवारत टीपू द्वारा जगद्गुरू को लिखे पत्रों से स्पष्ट हो जाता है कि अंगे्रजी उपनिवेशवाद का घोर शत्रु टीपू सुल्तान फ्रांसिसी सेना की मदद से मैसूर के विजय के लिए जूझ रहा था। तब उसने शंकराचार्य से शिवस्तुति कर भारतीयों की जीत हेतु दैवी कृपा मांगी थी। तीनों युद्धों में तो मिली भी। मगर चौथे में हिन्दू राजाओं के असहयोग के कारण वह अंग्रेजों के छल से शहीद हो गया। भारतमाता की वेदी पर बलि चढ़ गया। देशभक्त राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने टीपू को भारतीय प्रक्षेपास्त्र का जनक बताया था। अपने ब्राह्मण प्रधानमंत्री आचार्य पूर्णय्या की सलाह पर टीपू ने कांची कामकोटी के शंकरपीठ में मन्दिर भवन मरम्मत हेतु दस हजार स्वर्ण मुद्राओं का योगदान किया। रामनामी अंगूठी भेंट में सुल्तान को मिली थी। श्रीरंगपत्तनम के मन्दिर की घंटी और किले के मस्जिद की अजान सुनकर टीपू की दिनचर्या शुरू होती थी। टीपू ने कई शत्रुओं को युद्ध के निर्ममता से मारा था। उसमे कर्नाटक के नवाब, हैदराबाद का निजाम, मलाबार के इस्लामी मोपला, पेशवाई मराठे, मलयाली नायर थे। इनको युद्ध में मारने का कारण टीपू सुल्तान के लिए केवल इतना था कि वे सब ब्रिटिष साम्राज्यवादियों के खेमे में थे। इतिहासकार जदुनाथ सरकार ने टीपू को स्वतंत्रता सेनानी कहा था।
टीपू ने तीन सदियों पूर्व ही विदेश नीति रची थी। तुर्की के आटोमन सुल्तान से उसने ब्रिटेन के विरूद्ध (1787) युद्ध की घोषणा करने की मांग की थी। फ्रांसीसी क्रान्ति के तीनों सूत्रों का प्रसार कराया था। ये थे स्वाधीनता, समानता तथा भ्रातृत्व। संकीर्णमना होता तो टीपू युद्ध के पूर्व ज्योतिर्लिंग के ब्राह्मण ज्योतिशाचार्य से मशविरा न करता। उसने सेना में शराबबंदी लगाई थी।
   टीपू की जयंती का विरोध हास्यास्पद है। कर्नाटक के कांग्रेसी मुख्यमंत्री (पूर्व के लोहियावादी) सिद्धरामय्या इस जयंती से टीपू के सहधर्मियों को वोट बैंक बना सकते हैं, क्योंकि विधानसभा निर्वाचन आसन्न है। मगर कुछ वर्ष पूर्व भाजपायी मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टार और उपमुख्यमंत्री आर. अशोक टीपू की जयंती में सुल्तान की पगड़ी पहनकर शरीक हुये थे। तो चन्द वर्षों बाद वही टीपू अब कट्टर सुन्नी हो गया ? अध्यक्ष अमित शाह को अपने पार्टी जन को प्रशिक्षित करना चाहिए कि हिन्दू आस्था किसी कैलेण्डर का पन्ना नहीं जो हर महीने पलट दिया जाए।

Mob: 9415000909
Email: k.vikramrao@gmail.com

योगी का एक मंत्री.. जिसे निपटाने के लिए रचा गया बड़ा षडयंत्र हुआ नाकाम

  सुशील अवस्थी 'राजन' चित्र में एक पेशेंट है जिसे एक सज्जन कुछ पिला रहे हैं। दरसल ये चित्र आगरा के एक निजी अस्पताल का है। पेशेंट है ...