सुखनिधान अस पितु गृह मोरें।
पिय बिहीन मन भाव न भोरें॥1॥
पिय बिहीन मन भाव न भोरें॥1॥
भावार्थ:-मैंने पिताजी के ऐश्वर्य की छटा देखी है, जिनके चरण रखने की चौकी से सर्वशिरोमणि राजाओं के मुकुट मिलते हैं (अर्थात बड़े-बड़े राजा जिनके चरणों में प्रणाम करते हैं) ऐसे पिता का घर भी, जो सब प्रकार के सुखों का भंडार है, पति के बिना मेरे मन को भूलकर भी नहीं भाता॥1॥
* ससुर चक्कवइ कोसल राऊ। भुवन चारिदस प्रगट प्रभाऊ॥
आगें होइ जेहि सुरपति लेई। अरध सिंघासन आसनु देई॥2॥
भावार्थ:-मेरे ससुर कोसलराज चक्रवर्ती सम्राट हैं, जिनका प्रभाव चौदहों लोकों में प्रकट है, इन्द्र भी आगे होकर जिनका स्वागत करता है और अपने आधे सिंहासन पर बैठने के लिए स्थान देता है,॥2॥
* ससुरु एतादृस अवध निवासू। प्रिय परिवारु मातु सम सासू॥
बिनु रघुपति पद पदुम परागा। मोहि केउ सपनेहुँ सुखद न लागा॥3॥
भावार्थ:-ऐसे (ऐश्वर्य और प्रभावशाली) ससुर, (उनकी राजधानी) अयोध्या का निवास, प्रिय कुटुम्बी और माता के समान सासुएँ- ये कोई भी श्री रघुनाथजी के चरण कमलों की रज के बिना मुझे स्वप्न में भी सुखदायक नहीं लगते॥3॥
* अगम पंथ बनभूमि पहारा। करि केहरि सर सरित अपारा॥
कोल किरात कुरंग बिहंगा। मोहि सब सुखद प्रानपति संगा॥4॥
भावार्थ:-दुर्गम रास्ते, जंगली धरती, पहाड़, हाथी, सिंह, अथाह तालाब एवं नदियाँ, कोल, भील, हिरन और पक्षी- प्राणपति (श्री रघुनाथजी) के साथ रहते ये सभी मुझे सुख देने वाले होंगे॥4॥
दोहा :
* सासु ससुर सन मोरि हुँति बिनय करबि परि पायँ।
मोर सोचु जनि करिअ कछु मैं बन सुखी सुभायँ॥98॥
भावार्थ:-अतः सास और ससुर के पाँव पड़कर, मेरी ओर से विनती कीजिएगा कि वे मेरा कुछ भी सोच न करें, मैं वन में स्वभाव से ही सुखी हूँ॥98॥
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