हमनें अपनी बिटिया रिशिका को,
कुछ मिटटी के पात्र दिए|
खूब खुश है मेरी रिशिका,
घुमे दिन भर लिए-लिए|
जैसे चूल्हा,चाकी,बेलन,
पीढ़ा,तवा, भगोनें, कप|
अब तो दिनभर खाना बनता,
खाते मज़ा उठाते सब|
उसे नहीं मालूम है भोली,
भार गृहस्थी का कैसा?
ठंडी पड़ जाती है रसोई,
जब पास नहीं होता पैसा|
महँगाई डायन के निर्मम पंजो से,
है "सुशील" अन्जान अभी|
लड़ेगी वह भी इस डायन से,
आज नहीं तो कभी न कभी|
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