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श्रीराम बहुपत्नी विवाह को अनुचित मानते थे। यह उनकी दृष्टि में स्त्री जाति के प्रति पुरुषों का अन्याय था। वे स्वयं एक पत्नीव्रती थे। स्वभावतः उनके आचरण का प्रभाव प्रजा पर पड़ा था। उनके राज्य में समस्त प्रजा एक पत्नीव्रत का पालन कर रही थी। स्त्री का जीवन सम्मानित था। विवाहिता होकर वह भोगपत्नी नहीं, धर्मपत्नी बनती थी।
श्रीराम का विश्वास लोकतंत्र में था। उस लोकतंत्र में जिसमें एक-एक व्यक्ति को भी सम्मान प्राप्त था, महत्व प्राप्त था। वह लोकतंत्र भीड़ का नहीं था। वहाँ तो एक व्यक्ति भी है तो राम उसे अकेला नहीं होने देते। उसके साथ हो जाते हैं। एक ही व्यक्ति ने लंका निवास के कारण सीता के आचरण पर संदेह प्रकट किया था।
वह भी किसी उच्च वर्ण का नहीं, ज्ञानी पण्डित नहीं। वह सामान्य श्रमजीवी था। अयोध्या की प्रजा सीता को पवित्र ही नहीं, पवित्रता का स्रोत मानती थी। पूजती थी सीता को। स्वयं राम सीता को पुण्य का, शुभ का, पवित्रता का स्रोत मानते थे। परंतु सीता के चरित्र पर एक व्यक्ति को भी संदेह हो, राम कैसे सह सकते थे? प्राणों से प्यारी सीता का राम निर्वासन कर देते हैं।
सीता का निर्वासन इसलिए नहीं कि स्त्री जाति को हीन मानकर, उसे अबला मान कर, अपमान की भावना से राम ने अपने पुरुष होने का लाभ उठाया। सीता का परित्याग राम की इच्छा से नहीं, लोक की इच्छा से हुआ। आज का लोकतंत्र बहुमत प्रधान है। सौ सदस्यों की सभा में इक्यावन मूढ़मति जो भी चाह लें, वह चाहे जितना कुटिलता का, क्रूरता का निर्णय हो, वही सत्य माना जाता है।
बाकी के उनचास, जो वस्तुतः सत्य के पक्षधर हैं, धर्मात्मा हैं, न्याय प्रिय हैं, फड़फड़ाते रह जाते हैं। उनकी कोई नहीं सुनता। जीत मूर्खों की हो जाती है। स्वभावतः गुंडों का बहुमत होता है। वे जीतते हैं। वही शासन करते हैं। यही दोष है आज की लोकतंत्रीय शासन प्रणाली में। राम का लोकतंत्र ऐसा नहीं है। वहाँ तो एक-एक व्यक्ति को महत्व प्राप्त है।
फिर वह सामान्य हो या विद्वान या किसी भी वर्ण का हो, राम की दृष्टि में समान है। राम लोकमत के समक्ष प्रणत हैं। बहुमत समर्थन करे तो ही राम स्वीकार करें, ऐसा राम नहीं मानते। राम तो अपना प्राण देकर भी लोकमत का सम्मान करना चाहते हैं।
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प्रत्येक प्रतीक्षा कर रहा है कि किसी तरह रात बीत जाए, सबेरा हो और राम के शीश पर राजमुकुट देखकर हम लोग अपने को कृतकृत्य कर लें। परंतु रात के अंधेरे में एक दूसरा ही निर्णय हो जाता है। यह निर्णय लेने वाले हैं स्वयं दशरथ। कोप भवन में केवल दो व्यक्ति हैं दशरथ और कैकयी।
कैकयी अपने बेटे भरत के लिए अयोध्या का राज्य और राम के लिए चौदह वर्ष का वनवास दशरथ से माँग लेती है। भरत को युवराज बनाने की बात तो दशरथ तत्काल स्वीकार कर लेते हैं लेकिन राम को वनवास की बात पर कैकयी को मनाते रहे। इस प्रकार दशरथ ने एकांत में बैठकर कैकयी के समक्ष मंत्रिमंडल के निर्णय पर पानी फेर दिया और विवश होकर कैकयी के इशारे की बड़ी उत्कण्ठा से प्रतीक्षा करने लगे लेकिन अंत में लोकतंत्र धराशायी हो गया।
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